समलैंगिकता, शिखंडी और नैतिक मूल्य
नई दिल्ली | संवाददाता: समलैंगिकता को लेकर मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में गरमागरम बहस हुई. बात शिखंडी की भी हुई और समलैंगिकों की मानसिक स्थिति को लेकर भी. पुराने नैतिक मूल्य भी इस बहस का हिस्सा बने. धारा 377 के तहत समलैंगिकता को अपराध मानने या अपराध नहीं मानने के मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस आर. नरीमन, जस्टिस एम. खानविलकर, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की बेंच में हुई.
गौरतलब है कि 1861 में भारतीय दंड संहिता की धारा 377 में समलैंगिक सेक्स को अपराध माना गया है. ब्रिटिश साम्राज्य वाले ऐसे 42 देश थे, जहां समलैंगिकता को अपराध घोषित किया गया था. इस धारा के तहत आम तौर पर सात साल की सज़ा होती है लेकिन अगर कानून की व्याख्या को देखें तो समलैंगिकता के कानून के तहत उम्र कैद तक हो सकती है. आंकड़ों में देखें तो 2016 में धारा 377 के तहत कुल 2,187 मामले दर्ज किए गए. इनमें से 6 मामलों में सज़ा भी सुना दी गई.
लगभग नौ साल पहले जुलाई 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि दो समलैंगिकों के बीच अगर सहमति से सेक्स होता है तो उसे अपराध नहीं माना जाएगा. लेकिन 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगाते हुये कहा कि किसी धारा को हटाने का काम न्यायपालिका का नहीं संसद का है. इसके बाद इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई.
इससे पहले मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के समक्ष कहा गया कि जेंडर और सेक्सुअल पसंद को एक साथ नहीं रखा जा सकता है. पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा कि ‘लिंग और सेक्सुअल पसंद दो अलग-अलग बातें हैं. इन दो अलग मुद्दों को एक साथ नहीं रखा जा सकता है. यह पसंद का सवाल ही नहीं है.
मुकुल रोहतगी ने कहा कि एलजीबीटी समुदाय समाज के किसी दूसरे तबके की तरह ही है, सिर्फ उनका सेक्सुअल रुझान अलग है. रोहतगी ने जोर देकर कहा कि यह सवाल किसी की व्यक्तिगत इच्छा का भी नहीं है, बल्कि उस रुझान का है, जिसके साथ कोई पैदा हुआ है. ऐसे में उसे प्रताड़ित करना ठीक नहीं है.
शिखंडी का उदाहरण देते हुये रोहतगी ने कहा कि समय के साथ हमारे मूल्य बदलते हैं. 160 साल पहले जो चीज नैतिक मूल्यों के दायरे में आती थी, वह आज नहीं आती. आईपीसी 377 सेक्सुअल नैतिकता को गलत तरीके से पारिभाषित करती है. 1680 के ब्रिटिश काल की नैतिकता कोई कसौटी नहीं है. प्राचीन भारत में इसको लेकर दृष्टिकोण अलग था और हमारे सामने शिखंडी जैसे उदाहरण हैं.
उन्होंने कहा कि कई एलजीबीटी को इसलिये अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा क्योंकि उनका सेक्सुअल रुझान सामान्य लोगों से अलग था. रोहतगी ने ऐसे जोड़ों की सामाजिक सुरक्षा और संपत्ति को लेकर भी अदालत का ध्यान आकृष्ट किया. हालांकि एएसजी तुषार मेहता के हस्तक्षेप के बाद अदालत ने कहा कि फिलहाल धारा 377 पर ही बातचीत हो तो बेहतर होगा.