‘पवित्र गाय’ की सियासत
पशुओं की बिक्री को लेकर आए नए नियम असंवैधानिक और अ-हिंदू हैं.गौ वध को लेकर सबसे कड़े कानून गुजरात, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब में हैं. पश्चिम बंगाल, केरल, मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा में गौ वध प्रतिबंधित नहीं है. ओडिशा, असम, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु में सशर्त गौ वध की अनुमति है. इनमें प्रजनन या दूसरे काम के लिए सक्षम नहीं होना चाहिए. केंद्र की सत्ता में काबिज भारतीय जनता पार्टी यह समझती है कि 1980 के दशक में उसका उभार हिंदुत्व के मुद्दे पर ही हुआ था. अब भाजपा उन राज्यों में भी सत्ता पाना चाहती है जहां वह बेहद कमजोर रही है. इसके लिए उसे लगता है कि गौ वध एक बड़ा मुद्दा हो सकता है.
इस वजह से भाजपा सरकार ने गौ वध को पूरे देश में प्रतिबंधित करने की कोशिश की है. सरकार ने यह काम पशुओं के खिलाफ कू्ररता को रोकने के लिए बने 1960 के कानून के तहत बने नियमों में संशोधन का सहारा लिया है. नए नियमों के जरिए पशुओं को मारे जाने के लिए बेचे जाने को प्रतिबंधित कर दिया गया है. इसका मतलब यह हुआ कि भारत में पशु वध बंद हो जाएगा.
उन राज्यों में जहां भाजपा सत्ता में है, वहां उसके समर्थक केंद्र और राज्य दोनों जगह अपनी सरकार देखकर गौ रक्षा को लेकर जरूरत से ज्यादा उत्साहित दिखते हैं. इन गौ रक्षकों ने अपने राज्यों में गौआतंकवाद चला रखा है. इसके तहत मुसलमानों और दलितों के खिलाफ हिंसात्मक घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है. छत्तीसगढ़ के भाजपाई मुख्यमंत्री रमन सिंह ने धमकी दी है कि अगर किसी ने गाय को नुकसान पहुंचाया तो उसे फांसी दे दी जाएगी. गुजरात के भाजपाई मुख्यमंत्री विजय रूपानी ने कहा कि गाय का संरक्षण इसलिए करना चाहिए ताकि आध्यात्मिक और नैतिक तौर पर पतन नहीं हो!
राजस्थान के एक मंत्री ने पुलिस को उन लोगों को खिलाफ कार्रवाई करने को कहा जो गौ वध करते हैं. राजस्थान में ही हिंसक भीड़ ने पहलू खान की हत्या कर दी थी. वे स्थानीय बाजार से खरीदे हुए बैलों को लेकर जा रहे थे. पहलू खान की मौत यह बताती है कि गौ वध के मुकाबले इंसानों की मौतों की अहमियत कम हो गई है.
संविधान को समझने वाली न्यायपालिका जानती है कि संविधान गाय की रक्षा धार्मिक आधार पर नहीं करता. संविधान में अनुच्छेद 48 के तहत गौ रक्षा की बात वहीं आई है जहां यह कृषि और पशु पालन पर नकारात्मक असर रोकने के लिए जरूरी हो. इसके आवजूद अदालत ने 2005 में गौ वध को पूर्णतः प्रतिबंधित करने का फैसला सुना दिया था. सात जजों की पीठ ने यह कहा था कि अगर गाय और बैल प्रजनन करने या काम करने में सक्षम नहीं भी रहते हैं तो भी वे उपयोगी हैं क्योंकि उनके मूत्र और गोबर का इस्तेमाल बायोगैस और दवाओं के उत्पादन में हो सकता है. क्या इसे धार्मिक आधार पर दिया गया फैसला माना जाएगा? इसमें ‘गौ माता’ माने जाने और इसके आसपास कही जाने वाली बातों का कोई जिक्र नहीं है.
दूध नहीं दे पाने वाले जानवरों के वध को प्रतिबंधित कर देने से क्या संसाधनों का नुकसान नहीं होगा? इनमें लिए अतिरिक्त चारे की व्यवस्था करनी होगी. साथ ही बहुत सारे लोगों को रोजगार चला जाएगा और बहुत लोगों से उनका मुख्य खाना दूर हो जाएगा. क्या इस प्रतिबंध से दलित, आदिवासी, मुस्लिम, ईसाई, सिख और यहां तक की कई हिंदुओं को सीमित पैसे में अपनी प्रोटीन जरूरतों को पूरा करने में दिक्कत नहीं होगी? यह भी पता चलता है कि नए नियम बनाते वक्त संविधान के अनुच्छेद-48 का ध्यान नहीं रखा गया.
हिंदू धर्म में कई मान्यताओं को जगह दी गई है और मोक्ष का लक्ष्य रखा गया है. लेकिन नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भाजपा की विचारधारा पूरी तरह से हिंदुत्व की हो गई है. इसका लक्ष्य यह है कि उसे पूरी राजनीतिक सत्ता मिल जाए और एक खास तरह की हिंदुत्व की राजनीति लोगों पर थोप दी जाए. नए नियम उन सभी लोगों पर कई तरह की बंदिशें लगाने वाला है जो हिंदुत्व की इस राजनीति को नहीं स्वीकार करते. इसका असर उनके रोजगार पर पड़ेगा और उनकी जीवन पद्धति पर भी. भाजपा हिंदुत्व की इसी भावना को उभारकर आने वाले विधानसभा चुनावों और 2019 के लोकसभा चुनावों में जीत हासिल करने की योजना पर काम कर रही है.
यह तय लग रहा है कि नए नियमों को अदालत में चुनौती दी जाएगी और अदालत इन्हें गलत ठहरा देगी. लेकिन ऐसे में भाजपा अपने समर्थकों के बीच यह प्रचार करेगी कि वैदिक संस्कृति स्थापित करने में अदालतें उनके लिए बाधा पैदा कर रही हैं. जबकि सच्चाई यह है कि वैदिक काल और इसके बाद के समय में भी गाय को पवित्र नहीं माना जाता था.
जानवरों को मारा जाना और इनके मांस को खाना न तो अनैतिक था और न ही गैर कानूनी. 1500 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व तक बीफ खाना भारत में बेहद सामान्य था. इतिहास के इस हिस्से को अभी के हिंदुत्ववादी अपनी सुविधा से मिटा दे रहे हैं. सच्चाई यह है कि नए नियम न सिर्फ गैरकानूनी है बल्कि अ-हिंदू भी हैं.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद