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हिंदी सम्मेलन, मोदी और मुक्तिबोध

सुदीप ठाकुर
भाषा को उदार होना चाहिए इससे भला कौन इनकार कर सकता है. मगर भाषा को सिर्फ कारोबार और वोटरों तक सीमित नहीं किया जा सकता. स्टेशन पर चाय बेचकर हिंदी सीखने वाले नरेंद्र भाई जानते ही होंगे कि दिल्ली के जनपथ, पहाड़गंज और कनाटप्लेस पर फुटपाथ पर सामान बेचने वाले लोग किस तरह रूसी, फ्रेंच, स्पेनिश, अंग्रेजी, और न जाने किन किन भाषाओं के पर्यटकों से अपना कारोबारी रिश्ता बना लेते हैं. वे स्कूल में भले न गए हों, लेकिन उन्होंने इन भाषाओं के इतने शब्द सीख लिए हैं जिससे वे अपना माल बेच सकें. इसमें कुछ भी नया नहीं है. भाषा इसी तरह अपना कारोबारी रिश्ता बनाती रही है.

राजनयिक और सांस्कृतिक संबंध बनाने में भाषा की अपनी भूमिका होती है. इसके साथ ही यह भी अहम है कि एक भाषा दूसरे भाषा के साथ किस तरह का व्यवहार करती है. निसंदेह हिंदी देश में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है और उसकी पहुंच भी देश के बड़े हिस्से में है. लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि तमिल, गुजराती, बंगाली,पंजाबी, उडिया, संथाली, मैथिली, मराठी, भोजपुरी, मणिपुरी, कन्नड़, मलयाली सहित सैकड़ों भाषाएं और बोलियां कमतर हैं.

भाषा का अपना एक संस्कार होता है. उसकी अपनी एक समझ होती है. और उससे भी बड़ी बात यह है कि उसका अपना एक सरोकार भी होता है. नरेंद्र भाई भाषा और मौजूदा संदर्भ में बात करें तो हिंदी को सिर्फ आर्थिक और राजनीतिक निवेश तक सीमित नहीं किया जा सकता. इससे भाषा अपनी चमक और गहराई खो देगी. असल में भाषा में निवेश एक अलग तरह का मामला है.

महात्मा गांधी की डेढ़ सौवीं जयंती के कार्यक्रम से जुड़े रहे वरिष्ठ वकील, स्तंभकार और साहित्यकार कनक तिवारी की एक टिप्पणी याद आ रही है. मामला दो दशक से भी अधिक पुराना है. भिलाई में हिंदी के वरिष्ठ कवि और आपकी भाषा में बात करूं तो गैरहिंदी वाले गजानन माधव मुक्तिबोध की स्मृति में एक कार्यक्रम था. 1960 के दशक में जब मुक्तिबोध राजनांदगांव के दिग्विजय कालेज में अध्यापन कर रहे थे, उसी समय कनक तिवारी भी वहां अंग्रेजी के लेक्चरर थे. उनके अलावा वहां हिंदी के एक अन्य साहित्यकार पता नहीं आप जानते हैं या नहीं, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी भी वहां अध्यापन करते थे. बख्शी जी ने सरस्वती पत्रिका का संपादन भी किया था. कनक तिवारी इनमें सबसे नौजवान थे. तो उन्होंने अपना जो संस्मरण सुनाया वह कुछ इस तरह था, ‘मुक्तिबोध और बख्शी जी के साथ अक्सर हम लोग कालेज के बाहर तालाब के किनारे स्थित एक गुमटी में चाय पीने जाते थे. उन दोनों से उम्र में छोटा होने के बावजूद कई ऐसे मौके आते थे जब चाय के पैसे मुझे देने पड़ते थे. इतने बरसों बाद मैं कह सकता हूं कि मेरे जीवन का ये सबसे बड़ा पूंजी निवेश था.’

नरेंद्र भाई मुक्तिबोध को बेहद अभावों में रहना पड़ा था, चालीस पार का हो जाने के बावजूद उनकी नौकरी का कोई स्थायी ठिकाना नहीं था. लेकिन उन्होंने लिखना बंद नहीं किया. 1958 में वह राजनांदगांव के दिग्विजय कालेज में पढ़ाने आए थे, जहां कुछ हद तक उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हो सकी. वह चाय और बीड़ी बहुत पीते थे और इसके सहारे ही उनका लेखन चलता था.

हिंदी का उन्होंने कभी ढिंढोरा नहीं पीटा, लेकिन उनका लिखा हुआ आज भी उतना ही प्रासंगिक है. मुझे पता नहीं आपने और आपके उन सहयोगियों ने जो इन दिनों भोपाल में हिंदी का जश्न मना रहे हैं, मुक्तिबोध का कुछ लिखा हुआ पढ़ा है या नहीं. आपको शायद यह भी पता नहीं होगा कि एक समय की कांग्रेसी सरकार उनके पीछे पड़ी हुई थी. उनके घर पर छापे तक मारे गए थे.

नरेंद्र भाई मैं अपने आपको सौभाग्यशाली मानता हूं कि मैं उसी राजनांदगांव से ताल्लुक रखता हूं जहां मुक्तिबोध ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण वर्ष गुजारे थे. आपको शायद यह भी पता न हो, आज यानी 11सितंबर को मुक्तिबोध की पुण्यतिथि है. 11 सितंबर, 1964 को लंबी बीमारी से जूझते हुए महज 47 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया था.

(लेखक, अमर उजाला दिल्ली के स्थानीय संपादक हैं)

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