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राष्ट्रभाषा हिंदी का शोक

अमिता नीरव | फेसबुक: इस बात पर हमने बहुत दुख मनाया है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रभाषा के प्रश्न को ठीक से डील नहीं किया. खासतौर पर हम उत्तर भारतीयों का दुख इसलिए ज्यादा बड़ा है क्योंकि हमें लगता है कि बहुसंख्यकों की भाषा होने के चलते हिंदी को राष्ट्रभाषा होना चाहिए था.

हम उत्तर भारतीय कांग्रेस और उसके बहाने नेहरू-गांधी से इस बात से बहुत नाराज़ हैं. देश की बहुसंख्यक जनता जिस भाषा को बोलती बरतती है उसे राजभाषा होकर संतोष करना पड़ा. उस पर भी संपर्क भाषा अंग्रेजी से लगातार प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है.

ये नाराजगी मुझे भी कई साल रही. जब भारत में भाषा के आंदोलन और उसकी राजनीति को थोड़ा बहुत पढ़ा जाना तब संविधान सभा के इस निर्णय के बारे में थोड़ी बहुत समझ बनी.

पढ़ाई के दिनों में ताऊ जी अक्सर ये बात कहा करते थे कि पूरे देश में एक ही जैसा सिलेबस पढ़ाया जाना कोई अच्छी प्रैक्टिस नहीं है. इस बात को ठीक से समझने और राय बनाने के लिए संभाल कर रख लिया था.

बाद में समझ आया कि अलग अलग सिलेबस के चलते स्थानीयता को भी सिलेबस में शामिल करना चाहिए ताकि विद्यार्थी देश दुनिया के साथ अपने क्षेत्र के नायकों, रीति रिवाज, इतिहास, भूगोल आदि को भी जान सके.

इन दिनों अपने पड़ोसी के घर अपनी खूब ताका झांकी चल रही है. पता चला कि पिछले कुछ सालों से वहां आइडेंटिटी पर लंबा लंबा विमर्श हो रहा है.

जी, पाकिस्तान के अकादमिक हलकों में इस बात पर बहसें हो रही है कि हमारी जड़ें कहां हैं? अरब में, तुर्की में या कि हिंदुस्तान में!

पाकिस्तान के बुद्धिजीवी कहने लगे हैं कि हमारा अरबों और तुर्कियों से कोई संबंध नहीं है. हमारी जड़ें सिंधु सभ्यता से जुड़ती है, इस लिहाज से हम हिंदुस्तानियों के करीब हैं.

किसी दिन ये सवाल आया कि पाकिस्तान में बच्चों को इतिहास में क्या पढ़ाया जाता होगा और कब से पढ़ाया जाता होगा?

इस सवाल का जवाब ढूंढने निकली तो पाकिस्तान में चल रहे बहुत सारे विमर्शों के दरीचे खुलते चले गए. इस पर भी बात होती है कि पाकिस्तान की बदहाली के क्या वजूहात हैं?

पाकिस्तान के इतिहासकार और बुद्धिजीवी और बहुत सारी बातों के साथ इस बात पर खास जोर देते हैं कि वहां उर्दू को नेशनल लैंग्वेज की तरह थोपा गया और इसके परिणाम में बांग्लादेश बना.

पाकिस्तानी बुद्धिजीवी अब खुलकर कह रहे हैं कि मजहब के आधार पर कोई मुल्क सरवाइव नहीं कर सकता है. एक तरह से वे उस विविधता के लिए जगह बनाने की बात कर रहे हैं, जिसे वहां दबाया जा रहा है.

हमारे यहां वन नेशन वन इलेक्शन, वन नेशन वन फलाना के नारे दिए जा रहे हैं. किसी भी समाज की विविधता को स्पेस देकर, सम्मान और स्वीकार्यता देकर ही देश के विचार को मजबूत बनाया जा सकता है.

हमने ये बात आज से अस्सी साल पहले ही समझ ली थी, पाकिस्तान इसे आज तक नहीं समझ पाया है. अब वहां लोग समझ रहे हैं, कह रहे हैं. और हम उस सबक को भुलाने में लगे हुए हैं.

पाकिस्तान के पॉडकास्ट सुन सुन कर ये आशंका गहराने लगी है कि कहीं पाकिस्तान का आज, हिंदुस्तान का कल तो नहीं होने जा रहा है!

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