छत्तीसगढ़छत्तीसगढ़ विशेष

हसदेव में 2 लाख पेड़ों की कटाई शुरु

रायपुर | संवाददाता: हसदेव अरण्य में ग्रामसभा को हाशिये पर रख कर लगभग 2 लाख पेड़ों की कटाई का काम शुरु हो गया है.छत्तीसगढ़ में पेड़ों की यह कटाई राजस्थान सरकार को आवंटित और अडानी को MDO के द्वारा सौंप दिए गये परसा कोयला खदान के लिए किया जा रहा है.

हसदेव अरण्य में प्रस्तावित परसा कोयला खदान परियोजना को वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के तहत वन भूमि डायवर्सन की अंतिम स्वीकृति राज्य सरकार द्वारा जारी की गई है.

चुनाव से पहले इसी इलाके में आ कर कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी ने आदिवासियों को भरोसा दिया था कि वे उनके संघर्ष में साथ हैं. लेकिन कांग्रेस पार्टी की सरकार ने आदिवासियों के विरोध और विशेषज्ञों की रिपोर्ट को किनारे कर के अडानी के MDO वाले खदान को अंतिम स्वीकृति दे दी.

पिछले एक दशक से हसदेव अरण्य के आदिवासी, संविधान की पांचवी अनुसूची, पेसा कानून 1996 और वन अधिकार मान्यता कानून 2006 द्वारा ग्राम सभाओं को प्रदत्त अधिकारों के माध्यम से हसदेव अरण्ड जैसे सघन वन क्षेत्र में प्रस्तावित कोयला खनन परियोजनाओं का विरोध करते आ रहे हैं.


सरगुजा जिले में प्रस्तावित परसा खदान की पर्यावरणीय स्वीकृति, वन स्वीकृति एवं भूमि अधिग्रहण की प्रक्रियाओं में हो रही गड़बड़ियों और नियम विरुद्ध कार्यों पर भी प्रभावित आदिवासी समुदाय ने लगातार अपनी आपत्तियां दर्ज कराई है. 2017 से ही इस परियोजना हेतु स्वीकृति की प्रक्रियाएं शुरू हो गई थी और लगातार ग्रामीणों ने इन प्रक्रियाओं का विरोध किया है.

फर्जी ग्रामसभा

ग्रामीणों का आरोप है कि इस परियोजना के वन भूमि डायवर्सन की प्रक्रिया में फर्जी ग्राम सभा दस्तावेज प्रस्तुत कर वन स्वीकृति हासिल की गई है. साल्ही, हरिहरपुर और फत्तेपुर जो कि परियोजना प्रभावित गाँव है, इनकी ग्राम सभाओं ने वन भूमि डायवर्सन के प्रस्ताव को कभी भी सहमति नहीं दी.

ग्राम सभा सहमति हासिल करने के लिए कंपनी के दबाव में बार-बार ग्राम सभा का आयोजन कराया गया जिसमे लगातार विरोध में प्रस्ताव पारित हुए. स्वीकृति हासिल करने के लिए कंपनी द्वारा ग्राम सभा सहमति के कूटरचित दस्तावेजों का उपयोग किया गया. फर्जी ग्राम सभा दस्तावेज के माध्यम से हासिल की गई वन स्वीकृति का प्रभावित गाँव लगातार विरोध कर रहे है. इस मामले की जांच की मांग और दोषी अधिकारियों पर कार्यवाही की मांग को लेकर पुलिस में शिकायत दर्ज कराई गई और कलेक्टर को भी इसकी जांच की मांग से संबंधित पत्र भेजा गया.

लोगों ने एसडीएम कार्यालय उदयपुर तक पदयात्रा करके ज्ञापन सौंपा. कोई भी संज्ञान या कार्यवाही नहीं होने के कारण 2019 में प्रभावित ग्रामीणों द्वारा ग्राम फत्तेपुर में अनिश्चितकालीन धरना प्रदर्शन भी किया गया. इसके बाद भी इस मामले में कोई कार्यवाही नहीं हुई.

हसदेव में पेड़ों की कटाई
हसदेव में पेड़ों की कटाई

हसदेव अरण्य को खनन से बचाने के अपने संकल्प के लिए यहाँ के आदिवासियों ने बीते साल अक्टूबर के महीने में सरगुजा से रायपुर तक 300 किलोमीटर की पदयात्रा की. पदयात्रा के बाद माननीय राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री को भी ज्ञापन सौंपा. केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, राज्यपाल और मुख्यमंत्री को इन समुदायों ने लगातार पत्र लिख कर अपने साथ हो रहे इस अन्याय को रोकने और इस पर कार्यवाही करने की गुहार लगाई. यहाँ तक कि हसदेव अरण्य के लोगों ने दिल्ली जाकर राहुल गाँधी से भी इस मामले में मुलाकात की.

लेकिन फर्जी ग्राम सभा की लगातार शिकायत और लोगों के आन्दोलन के बाद भी इस परियोजना को स्वीकृति दे दी गई.

समर्थन का खेल

इलाके के आदिवासी लगभग दो महीने से अनिश्चितकालीन धरना पर बैठे हुए हैं. इस बीच कोयला खनन के समर्थन का अभियान शुरु किया गया. सरगुजा में परसा खदान शुरू करवाए जाने के पक्ष में लोगों को जुटाया गया, साथ ही कलेक्टर और राज्यपाल को पत्र लिख कर बाकायदा खदान शुरू करवाने की मांग करते हुए लोगों के बयान और अंबिकापुर में रैली निकली गई.


इस पूरे मामले में प्रभावित गाँव साल्ही के सरपंच विजय कोराम कहते हैं- “जो लोग खदान को खोले जाने की बात कर रहे हैं, वे दरअसल परसा खदान से प्रभावित गाँव के लोग हैं ही नहीं. इस खनन परियोजना का नाम परसा है किन्तु परसा गाँव इस खदान से प्रभावित गाँव नहीं है. इस परियोजना को शुरू करने के लिए परसा गाँव के सरपंच ने भी अपना वक्तव्य रखा है, जिसका कोई मतलब नहीं निकलता.”

प्रभावित गाँव घाटबर्रा के सरपंच जयनंदन सिंह पोर्ते के अनुसार- “परसा खदान का सभी संबंधित ग्राम सभाओं ने लगातार विरोध किया है. वे नहीं चाहते कि अब एक इंच भी जमीन हसदेव अरण्य में कोयला खनन के लिए दिया जाए. जमीनी विरोध लगातार चल रहा है और कंपनी द्वारा पोषित खदान का समर्थन वे लोग कर रहे हैं, जिनका इस खदान से कोई लेना देना है ही नहीं.”

नो गो क्षेत्र के बाद भी खनन स्वीकृति

हसदेव अरण्य का इलाका भारत सरकार की श्रेणी 1 के कई प्रमुख वन्य प्राणियों के रहवास के लिए न सिर्फ उपयुक्त है बल्कि यहां उनकी उपस्थिति भी है. यह वन क्षेत्र आदिवासियों की आजीविका और संस्कृति के साथ छत्तीसगढ़ की जीवनदायनी हसदेव नदी का जलागम क्षेत्र भी है.

उपरोक्त विभिन्न कारणों से इस सम्पूर्ण हसदेव अरण्य को “पर्यावरणीय संवेदनशील” क्षेत्र मानते हुए केन्द्रीय वन पर्यावरण, एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के द्वारा खनन हेतु “नो गो क्षेत्र” घोषित किया गया था.

वर्ष 2010 में नो गो क्षेत्र घोषित होने के कारण यहाँ आवंटित सभी कोल ब्लॉको की स्वीकृति प्रक्रिया को रोकते हुए इस क्षेत्र को खनन के लिए प्रतिबंधित किया गया था.

वर्ष 2012 में राज्य सरकार और खनन कंपनी के दवाब में इस परियोजना को हसदेव अरण्य क्षेत्र के फ्रिंज अर्थात किनारे में मानते हुए वन स्वीकृति जारी की गई थी. स्वीकृति मिलने के बाद से ही यह परियोजना न सिर्फ विवादों में रही है बल्कि खनन का कार्य कर रही MDO (माइंस डेवलपर कम आपरेटर) कंपनी अडानी पर अधिक दर पर कोयले बेचने सहित विभिन्न कानूनों और नियमो के उल्लंघन के आरोप भी लगते रहे हैं.

परसा ईस्ट एवं केते बासेन का सच

कुल 2711 हेक्टेयर क्षेत्रफल की इस कोयला खनन परियोजना में 2388 हेक्टेयर क्षेत्रफल में कोयला उत्खनन के लिए 30 मई 2012 को माइनिंग लीज प्रदान की गई थी. परियोजना से सरगुजा जिले के 7 गाँव की जंगल, जमीन प्रभावित हुई है जिसमें 2 गाँव का पूर्ण विस्थापन शामिल है. कुल 2388 हेक्टेयर माइनिंग लीज में 1898.328 हेक्टेयर वन भूमि शामिल है, जिसमें दो चरणों में खनन की अनुमति की शर्त पर केन्द्रीय वन पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने मार्च 2012 में वन स्वीकृति जारी की.

इस वन स्वीकृति के अनुसार परियोजना के प्रथम चरण में 762 हेक्टेयर एवं द्वितीय चरण में 1176 हेक्टेयर वन भूमि में खनन की शर्त रखी गई. वन स्वीकृति की शर्त के अनुसार प्रथम चरण की समाप्ति के बाद माइनिंग क्लोजर प्लान के अनुसार खनन बंद होने और खनन जमीन के पुनर्भरण (रिक्लेमेशन) के बाद ही द्वितीय चरण में खनन की अनुमति मंत्रालय द्वारा दी जाएगी.

खनन के दुष्प्रभावों को न्यूनतम रखते हुए पर्यावरण एवं वन्य प्राणियों के रहवास को बिना सकंट में डाले संयमित कोयला उत्खनन करना ही चरणबद्ध खनन योजना का प्रमुख आधार था.

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा परियोजना की वन स्वीकृति की निरस्ती का आदेश

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने 24 मार्च 2014 में सुदीप श्रीवास्तव की याचिका पर सुनवाई करते हुए केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय के स्वीकृति देने के सभी आधारों को ख़ारिज किया एवं इस खनन परियोजना की वन स्वीकृति को ही निरस्त कर दिया. आदेश में ग्रीन ट्रिब्यूनल ने लिखा कि “केन्द्रीय वन पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय” इस सम्पूर्ण वन क्षेत्र की निर्धारित पैरामीटर के अंतर्गत अध्ययन करवाए और अध्ययन के निष्कर्षो के आधार वन सलाहकार समिति (FAC) की सलाह पर निर्णय लिया जाएगा कि इस खनन परियोजना के लिए खनन हेतु पुनः वन स्वीकृति जारी की जा सकती है या नही.


राजस्थान राज्य विद्युत निगम लिमिटेड ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेश के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में याचिका प्रस्तुत की, जिस पर शीर्ष कोर्ट ने वन क्षेत्र का जैव विविधता अध्ययन और उसके आधार पर मंत्रालय के निर्णय लेने तक खनन जारी रखते हुए ट्रिब्यूनल के आदेश पर स्टे जारी किया.

15 वर्षो तक निकलने वाले कोयले की समाप्ति 7 वर्षो में ?

दिनांक 23 दिसंबर 2021 को केन्द्रीय वन पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की वन सलाहकर समिति द्वारा लिया गया निर्णय पर स्पष्ट रूप से खनन कंपनी के उस प्रचार का असर नजर आता है, जो उसने पिछले एक वर्ष में मीडिया के जरिए तैयार किया- राजस्थान में कोयले का संकट…सिर्फ चंद दिनों का कोयला शेष.. जैसी मनगढ़ंत ख़बरें प्रचारित-प्रसारित करवाई गईं.

दरअसल किसी भी खनन परियोजना की स्वीकृति के आधार में माइनिंग प्लान एक सबसे महत्वपूर्ण दस्तावज होता है. वैज्ञानिक अध्ययन के साथ जमीन में उपलब्ध कोयले की मात्रा को समयबद्ध निकालने का पूरा खाका खनन कंपनी द्वारा प्रस्तुत किया जाता है जिसे कोयला मंत्रालय स्वीकृत करता है.

खनन कंपनी द्वारा कोयला मंत्रालय से स्वीकृत खनन योजना (माइनिंग प्लान) के अनुसार प्रथम चरण में 15 वर्षो तक 10 मिलियन टन वार्षिक उत्पादन के आधार पर कुल 137 मिलियन टन कोयले के उत्पादन का लक्ष्य रखा गया.

कंपनी द्वारा प्रस्तुत दस्तावेजों के अनुसार परसा ईस्ट केते बासेन कोयला खनन परियोजना के प्रथम चरण में कुल 137 मिलियन टन में से वर्ष 2021 तक मात्र 72.42 मिलियन टन कोयला का उत्खनन किया गया.

स्वीकृत माइनिंग प्लान के अनुसार इसे देखा जाये तो प्रथम चरण में लगभग 64 मिलियन टन कोयला शेष होना चाहिए. हालाँकि परियोजना की क्षमता विस्तार के बाद वर्ष 2018-19 से उत्पादन क्षमता 15 मिलियन टन वार्षिक की गई है जिससे लगभग 15 मिलियन टन अतिरिक्त कोयला निकाला गया. इस बढ़ी हुई क्षमता के आधार पर भी वर्ष 2025–2026 तक प्रथम चरण के लिए कोयला मौजूद है.

परन्तु राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड द्वारा छत्तीसगढ़ सरकार को लिखे गए पत्रों में कहा गया कि प्रथम चरण का कोयला वर्ष 2021 तक ख़त्म को जायेगा क्योंकि 762 हेक्टेयर जमीन में पूर्व आंकलन अनुसार कोयला उपलब्ध नही है.

कंपनी के इस तर्क पर आँख मूंदकर अगले चरण के खनन के प्रस्ताव को केंद्र सरकार द्वारा आगे बढाया गया लेकिन ये सवाल नही किया गया कि जब कोयले की उपलब्धता का आंकलन ही गलत है तो उसके आधार पर बना स्वीकृत माइनिंग प्लान सही कैसे हो सकता है?

यहाँ यह भी सवाल महत्वपूर्ण है कि प्रथम चरण के तथाकथित कोयले की समाप्ति से छत्तीसगढ़ सरकार को मिलने वाले राजस्व की भरपाई कहाँ से होगी?

न्यायालयों में मामले लंबित होने के वाबजूद परियोजना का विस्तार जारी

महत्वपूर्ण है कि यह एक ऐसी परियोजना है जिसकी वन स्वीकृति निरस्त होने और सुप्रीम कोर्ट द्वारा खनन जारी रखने के स्टे आर्डर को आधार बनाकर न सिर्फ इसकी उत्पादन क्षमता 10 से 15 मिलियन टन की गई बल्कि न्यायालय के अंतिम आदेश के पूर्व ही दूसरे चरण की खनन योजना को भी स्वीकृति जारी कर दी गई. न्यायालय में लंबित मामले की अपने पक्ष में व्याख्या का यह अनूठा उदाहरण है.

24 मार्च 2014 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा परियोजना की वन स्वीकृति निरस्त करने के आदेश के खिलाफ राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 28 अप्रेल 2014 को स्टे आदेश जारी किया था.

सुप्रीम कोर्ट के इस स्टे आर्डर में बहुत स्पष्ट रूप से यह लिखा था कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेश के तारतम्य में निर्धारित शर्तो के अधीन वन सलाहकार समिति द्वारा वन क्षेत्र का अध्ययन और उसके आधार पर केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा निर्णय लिए जाने तक कंपनी खनन जारी रखा जा सकती है.

केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा वर्ष 2018 तक हसदेव अरण्य क्षेत्र का कोई भी अध्ययन नही कराया गया बल्कि परियोजना की उत्पादन क्षमता 10 से 15 मिलियन टन वार्षिक बढ़ाने की सहमति दे दी गई.

हाल ही में 23 दिसंबर 2021 को भी परियोजना के दूसरे चरण में खनन की अनुमति हेतु वन सलाहकार समिति ने सहमति इस शर्त पर दी कि यह सहमति माननीय सुप्रीम कोर्ट के अंतिम आदेश पर निर्भर करेगी.

इसी परियोजना से प्रभावित ग्राम घाट्बर्रा के सामुदायिक वनाधिकार को निरस्त किए जाने के खिलाफ गाँव की वनाधिकार समिति की याचिका पर मामला छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में भी लंबित है जिस पर अंतिम फैसला आना अभी बाकि है.

विशेषज्ञ अध्ययन हाशिये पर

हालाँकि NGT के आदेश के तारतम्य में वर्ष 2019 के बाद राज्य सरकार ने देश के दो प्रमुख संस्थान ICFRE और भारतीय वन्य जीव संस्थान (WII) से हसदेव अरण्य वन क्षेत्र की जैव विविधता अध्ययन कराया. इस अध्ययन में भारतीय वन्य जीव संस्थान द्वारा हसदेव अरण्य क्षेत्र में खनन से गंभीर दुष्प्रभाव एवं मानव हाथी द्वन्द के विकराल होने की चेतावनी के साथ सम्पूर्ण हसदेव अरण्य क्षेत्र को खनन से मुक्त रखने की सिफारिश की.

ICFRE ने अपनी रिपोर्ट में वर्तमान प्रथम चरण परिचालित PEKB परियोजना के संबंध में गंभीर पर्यावरणीय दुष्प्रभावों को दर्शाते हुए बतलाया था कि यह अति-आवश्यक है कि यहाँ गहन (intensive) खनन प्रणाली की ज़रूरत है जिसमें सीमित क्षेत्रफल में ही भीतर तक खनन किया जाये.

इसके विपरीत इस परियोजना में विस्तृत (extensive) माइनिंग प्रणाली का उपयोग कर ज़्यादा क्षेत्र में कम गहराई तक खनन किया जाता है, जिससे व्यापक पर्यावरणीय विनाश होता है. ऐसे में दूसरे चरण की स्वीकृति पर्यावरणीय तर्क के बिलकुल विपरीत ज़्यादा से ज़्यादा क्षेत्रफल में जंगल-कटाई और अनावश्यक विस्थापन को भी बढ़ावा देगा.

error: Content is protected !!