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हसदेव अरण्य: कोयले की कमी और बिजली संकट का सच

रायपुर | संवाददाता : देश में कोयले की कमी का हवाला दे कर हसदेव अरण्य के परसा कोयला खदान को केंद्र सरकार ने मंजूरी दे दी है. अक्टूबर नवंबर के महीने में, जब कोयला का उत्पादन सालाना आधार पर 8.2 फीसदी बढ़ा, तब देश भर में कोयले की कमी को लेकर मीडिया में माहौल तैयार किया गया.

तो क्या देश में वाकई कोयले का संकट है? अक्टूबर 2021 में छत्तीसगढ़ के कोरबा से लेकर दिल्ली तक कोयले की कमी की ख़बरें चर्चा में थी. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कोयले की कमी के कारण बिजली संयंत्र के बंद होने और दिल्ली में बिजली संकट पैदा हो जाने की आशंका जताते हुए प्रधानमंत्री को भी पत्र लिखा. छत्तीसगढ़ के अख़बार भी ऐसी ख़बरों से रंग गये.

यह वही दौर था, जब छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य के सैकड़ों आदिवासी, नये कोयला खदानों को मंजूरी दिए जाने के ख़िलाफ़ 300 किलोमीटर पैदल रायपुर के लिए रवाना हुए थे.

छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ला कहते हैं-“जब भी देश के सबसे बड़े कोयला उत्पादक छत्तीसगढ़ में कोयला खदानों को लेकर सवाल उठने लगते हैं, पूरे देश में कोयले की कमी की ख़बरें एकाएक सामने आने लगती हैं. पिछले साल यानी 2020 में अप्रैल से सितंबर के बीच देश में 282 मिलियन टन कोयले का उत्पादन हुआ था. पिछले साल अप्रैल से सितंबर यानी इसी अवधि में कोयले का उत्पादन बढ़ कर 315 मिलियन टन हो चुका था. ऐसे में कोई समझाए कि कोयले का उत्पादन कम हुआ या बढ़ा?”

कुछ इसी से मिलता-जुलता सवाल कोरबा ज़िले के मदनपुर के हसदेव अरण्य संघर्ष समिति के आदिवासी बालसाय कोर्राम भी उठाते हैं. बालसाय कोर्राम का गांव हरिहरपुर है, जो अब परसा कोयला खदान का हिस्सा है. इस कोयला खदान के आवंटन का आदिवासी विरोध कर रहे हैं.

छत्तीसगढ़ स्टेट पावर पावर जेनरेशन कंपनी को आवंटित इस कोयला खदान को एमडीओ यानी माइंस डेवलपर कम ऑपरेटर के आधार पर अडानी समूह को दिया गया है.

2011 में केंद्र सरकार द्वारा ‘नो गो एरिया’ घोषित होने के बाद भी केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु मंत्रालय ने परसा ईस्ट केते बासन कोल खदान की स्वीकृति इस आधार पर दी थी कि यह इलाका हसदेव अरण्य के किनारे के हिस्से में है और इसके बाद अन्य किसी खनन परियोजना को स्वीकृति नहीं दी जाएगी.

राजस्थान राज्य विद्युत निगम उत्पादन निगम लिमिटेड को आवंटित इस खदान को एमडीओ यानी माइंस डेवलपर कम ऑपरेटर के तौर पर अडानी समूह को दे दिया गया है.

लेकिन 2011 की शर्तों को किनारे करते हुए इसी खदान से लगी हुई नई कोयला खदानों को मंजूरी दे दी गई, जिसकी जद में बाल साय कोर्राम का गांव हरिहरपुर भी आ रहा है.

बालसाय कोर्राम कहते हैं-“आप अगर सरकार के आंकड़े देखेंगे तो वो कहती है कि हमें कोयले की ज़रुरत नहीं है. लेकिन दूसरी ओर उसी सरकार का दूसरा विभाग एक के बाद एक कोयला खदानों का आवंटन कर रहा है. सरकार तय क्यों नहीं करती कि उसे कितना कोयला चाहिए? चाहिए भी कि नहीं चाहिए?”

कोयला: उत्पादन खपत और बिजली संकट

एक सामाजिक संगठन से जुड़ी रायपुर की बिपाशा पॉल का कहना है कि केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण की रिपोर्ट के अनुसार आने वाले दिनों में कोयले का उपयोग घटेगा. वर्तमान में 76 फ़ीसदी विद्युत उत्पादन कोयले से हो रहा है लेकिन 2030 तक यह घट कर 52 फ़ीसदी रह जाएगा.

वे कहती हैं-“अभी जितनी कोयला खदानों की क्षमता है, वह हमारी हरेक ज़रुरत को पूरी करने के लिए पर्याप्त है. छत्तीसगढ़ सरकार अगर 3827 वर्ग किलोमीटर के दायरे में हाथी रिज़र्व बना दे तो भी इससे बाहर की खदानें कोयला आपूर्ति की ज़रुरत को पूरा करने के लिए पर्याप्त हैं.”

सुप्रीम कोर्ट में कोयला खदानों को लेकर याचिका लगाने वाले अधिवक्ता सुदीप श्रीवास्तव का दावा है कि कोयले की कमी और बिजली संकट को लेकर जितने दावे किये जा रहे हैं, वे हास्यास्पद हैं.

वे केंद्र सरकार के दस्तावेज़ों के हवाले से बताते हैं कि देश में औसत बिजली की मांग 1.7 लाख मेगावॉट के आसपास है, जबकि हमारी कुल बिजली उत्पादन की क्षमता 3.88 लाख मेगावॉट की है. इनमें 2.2 लाख मेगावॉट कोयला आधारित संयंत्रों की है. पनबिजली से 46,000, सौर ऊर्जा से 44000 और वायु ऊर्जा से 39000 मेगावाट यानी कोयला से इतर हमारी क्षमता 1,29,000 मेगावॉट है.

इस तरह ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन का हवाला दे कर कोयला आधारित बिजली उत्पादन कम करने की बात कहने के बाद भी, भारत में 76 फ़ीसदी बिजली इन्हीं कोयला आधारित संयंत्रों से की जा रही है और पनबिजली, सौर व वायु ऊर्जा से बिजली उत्पादन को हाशिये पर डाल दिया गया है.

सुदीप कहते हैं-“ हमारी औसत ज़रुरत की 1.70 लाख मेगावाट बिजली के लिए कोयला आधारित बिजली परियोजनाओं से अगर हम 1 लाख मेगावॉट बिजली की भी बात करें तो हमें प्रति वर्ष 500 मिलियन टन कोयले की ज़रुरत होती है. जबकि अकेले भारत सरकार का उपक्रम कोल इंडिया 600 मिलिटन टन कोयले का उत्पादन करता है और इस उत्पादन क्षमता में 60 मिलियन टन की और बढ़ोत्तरी होने वाली है.”

सुदीप कहते हैं- “सितंबर 2020 में कोयला आधारित बिजली संयंत्रों से 85,988 गिगावाट आर्स बिजली पैदा हुई थी, जो सितंबर में 85,404 गिगावाट आर्स बिजली थी. इसी दौरान यानी सितंबर 2020 में कोल इंडिया में कोयले का उत्पादन 46.7 मिट्रिक टन और सितंबर 2021 में 48.3 मिट्रिक टन था. ज़ाहिर है, पिछले साल की तुलना में कोयले का उत्पादन बढ़ा है. अगर आप वर्षवार देखें तो 2019-20 में देश में कुल 730 मिलियन टन कोयले का उत्पादन हुआ था. 2020-21 में यह आंकड़ो कोरोना के बाद भी 716 मिलियन टन था. ऐसे में अक्टूबर में कोयले की कमी की जो बात फैलाई गई, वो सिरे से झूठी थी.”

बिजली की मांग, आपूर्ति और कमी के आंकड़े भी दिलचस्प हैं. केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के जो ताज़ा आंकड़े उपलब्ध हैं, उसके अनुसार 2019-20 में 12,91,010 मिलिटन यूनिट की मांग की तुलना में 12,84,444 मिलियन यूनिट बिजली की आपूर्ति हुई, यानी कुल 6566 मिलियन यूनिट बिजली (-0.5 फ़ीसदी) की कमी थी. 2020-21 में 12,75,534 मिलिटन यूनिट की मांग की तुलना में 12,70,663 मिलियन यूनिट बिजली की आपूर्ति हुई, यानी कुल 4,871 मिलियन यूनिट बिजली (-0.4 फ़ीसदी) की कमी थी.

पिछले साल अगस्त तक के आंकड़े बताते हैं कि 2021-22 में 4,66,241 मिलिटन यूनिट की मांग की तुलना में 4,64,800 मिलियन यूनिट बिजली की आपूर्ति हुई, यानी कुल 1,441 मिलियन यूनिट बिजली (-0.3 फ़ीसदी) की कमी हुई है.

ऐसे में स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठता है कि फिर देश को हर साल कोयले का आयात क्यों करना पड़ता है ?

छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला बताते हैं कि भारत सरकार की कोयला मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2020-21 में देश में कोयले की वास्तविक मांग 906.07 मिलियन टन थी लेकिन घरेलू आपूर्ति केवल 691.08 मिलियन टन थी. यही कारण है कि 214.99 मिलियन टन कोयला आयात करना पड़ा.

आलोक शुक्ला का कहना है कि देश में बिजली उत्पादन के बाद सर्वाधिक कोयले की खपत इस्पात संयंत्रों में होती है लेकिन इस्पात संयंत्रों में कम राख वाले उच्च श्रेणी के कोयले की ज़रुरत होती है और भारत में इतनी कम राख वाले कोयले का भंडार सीमित है.

आलोक शुक्ला पिछले साल 4 अगस्त को लोकसभा में कोयला एवं खान मंत्री प्रल्हाद जोशी के बयान का हवाला देते हुए कहते हैं-“ इस्पात संयंत्रों को तकनीकी-आर्थिक तथा पर्यावरणीय पहलुओं के कारण कम राख वाले कोयले की आवश्यकता होती है. अनधुले देशी कोयले में राख की मात्रा आम तौर पर 22-35 प्रतिशत तक होती है. कोयला वाशरियों में इसकी धुलाई कर दी जाए तब भी राख की मात्रा 18 से 20 प्रतिशत तक बची रहती है. जबकि इस्पात संयंत्रों में उपयोग के लिए कोयले में राख की प्रौद्योगिकीय आवश्यकता सामान्यतः लगभग 10-12 प्रतिशत होती है. ऐसे में देशी कोयले से इस्पात संयंत्र चल ही नहीं सकते. उसके लिए हमें कम राख वाले कोयले का आयात करना ही होगा.”

बिलासपुर की अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता प्रियंका शुक्ला का कहना है कि विद्युत उत्पादन संयंत्रों में कोयले की कमी का हवाला दे कर कोशिश ये कि जा रही है कि अगले कुछ महीनों में और नये कोयला खदानों को मंजूरी दी जा सके और कोयला खनन से जुड़े क़ानून में और छूट के लिए संशोधन किए जा सकें.

निजी खदान और बिजली का हाल

बिजली संयंत्रों से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि संयंत्रों में आम तौर पर 15 दिन का कोयले का स्टॉक रखा जाना आदर्श स्थिति होती है लेकिन आम तौर पर सभी संयंत्रों में 6 से 8 दिन का ही कोयले का स्टॉक होता है.

अक्टूबर के महीने में दिल्ली के साथ-साथ छत्तीसगढ़ के अख़बारों में भी बिजली संयंत्रों में कोयले की कमी की ख़बर छपी थी.

राज्य सरकार ने भी कहा कि अधिकांश संयंत्रों में 3 से 8 दिन का कोयले का स्टॉक उपलब्ध है. लेकिन दिलचस्प ये है कि इनमें से अधिकांश बिजली संयंत्रों को आवंटित कोयला खदान, महज दो से तीन घंटों की दूरी पर हैं और इनमें कोयला का उत्पादन लगातार जारी था.

दिलचस्प ये है कि एनटीपीसी लारा ने अपने यहां केवल 6 दिन के कोयला उपलब्धता का हवाला दिया. लेकिन एनटीपीसी लारा के पास पहले से ही तिलईपाली कोयला खदान आवंटित है और वहां लगातार उत्पादन जारी है.
इसी तरह छत्तीसगढ़ शासन के मड़वा बिजली संयंत्र ने भी 6 दिन के कोयले का स्टॉक होने की बात कही. इस संयंत्र को भी गारे-3 कोयला खदान आवंटित है, जिसे एमडीओ के आधार पर अडानी समूह को दिया गया है.

नाम सार्वजनिक नहीं करने की शर्त पर एक अधिकारी कहते हैं-“ इन संयंत्रों के पास कोयला खदानें हैं और इनसे उत्खनन का काम भी यही करती हैं. लेकिन अगर निजी खदानों के बाद भी बिजली संयंत्र कोयले की कमी का रोना रो रहे हैं तो कोई बताए कि इसका क्या उपाय है?”

तो क्या यह मान लिया जाए कि नये कोयला खदानों को आवंटित करने और उन्हें हासिल करने के लिए कोयले की कमी की मनगढ़ंत ख़बरें, फैलाई गईं?

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