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प्रकृति से सामंजस्य बनाना आदिवासियों से सीखें

देविंदर शर्मा
जब मैंने देहरादून में भारतीय वन सेवा (आईएफएस) के प्रशिक्षु अधिकारियों के 2022 बैच के दीक्षांत समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के भाषण के संपादित अंश पढ़े, तो मुझे एक अथक योद्धा और छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला की याद आ गई, जिन्होंने एक ऐसे सफल सामुदायिक अभियान का नेतृत्व किया है, जिसने प्राचीन हसदेव अरण्य के 445,000 एकड़ में फैले जैव विविधता से समृद्ध जंगलों को बचाया.

दीक्षांत समारोह में राष्ट्रपति ने कहा था, “पर्यावरण एवं जंगलों की महत्ता के बारे में पिछले सप्ताह उच्चतम न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण बात कही है and I quote “Human beings indulge themselves in selective amnesia when it comes to fathom the significance of forests… It’s the spirit of the forest that moves the Earth.” जंगलों के महत्व को जान-बूझ कर भुलाने की गलती मानव समाज कर रहा है. हम यह भूलते जा रहे हैं कि वन हमारे लिए जीवन दाता हैं. यथार्थ यह है कि जंगलों ने ही धरती पर जीवन को बचा रखा है…”

उसी भावना से, जिस भावना से उन्होंने उस दिन उत्तीर्ण होने वाले सभी अधिकारियों को बधाई दी, मुझे लगता है कि यह स्वीकार करना उचित होगा कि आलोक शुक्ला भी “समाज में प्रगति के प्रतीक हैं.”

अब इससे पहले कि आप मुझसे पूछें कि आलोक शुक्ला कौन हैं और उन्होंने जंगलों को बचाने के लिए क्या अभूतपूर्व योगदान दिया है, और वह भी ऐसे समय में जब उच्च आर्थिक विकास हासिल करने के लिए जंगलों की लूट को सहवर्ती क्षति माना जाता था, उन्हें 2024 का गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार प्रदान किया गया है, जिसे ‘ग्रीन नोबेल’ भी कहा जाता है.

वह इस वर्ष सम्मान पाने वाले छह महाद्वीपों के सात बहादुर दिल लोगों में से एक हैं. निडर और साहसी, सबसे शक्तिशाली आर्थिक ताकतों से लोहा लेने की उनकी अदम्य भावना ने छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्र में लगभग 4.5 लाख एकड़ के अमूल्य आदिम जंगलों में लाखों पेड़ों को बचाया है.

हसदेव के स्थानीय समुदाय ने न केवल उस विशाल जैविक संपदा की रक्षा के लिए सभी बाधाओं के खिलाफ संघर्ष किया है, बल्कि इस सामुदायिक प्रयास से मानवता के हित में प्राकृतिक संसाधनों से जुड़े पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित करने में भी मदद मिलेगी.

आलोक शुक्ला
छत्तीसगढ़ के आलोक शुक्ला को ग्रीन नोबेल

यदि मैं पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता के अर्थशास्त्र (टीईईबी) दृष्टिकोण को लागू करने वाले वास्तविक लेखांकन मानदंडों का उपयोग करके आर्थिक मूल्य का पता लगाने का प्रयास करूं, तो इसका मूल्य कई ट्रिलियन रुपये होगा.

जब मैंने पहले कहा कि आलोक शुक्ला सबसे शक्तिशाली आर्थिक ताकतों के खिलाफ खड़े थे (और अब भी हैं), तो संदर्भ 21-योजनाबद्ध कोयला खदानों के संबंध में था, जो हसदेव अरण्य जंगलों में आवंटित की गई थीं. आदिवासी समुदायों के लंबे और अथक अभियान के बाद, हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति जिसका गठन उन्होंने 2012 में किया था, ने प्रभावशाली तरीके से प्रतिरोध का आयोजन किया और अंततः सरकार को इन कोयला खदानों को रद्द करने के लिए मजबूर करने में कामयाब रहे.

इस प्रक्रिया में, स्थानीय समुदायों द्वारा किए गए अथक संघर्ष में कई धरना, पेड़ों को गले लगाना, जैसा कि गढ़वाल की पहाड़ियों में प्रसिद्ध चिपको आंदोलन द्वारा दिखाया गया था, और राज्य की राजधानी रायपुर तक 166 किलोमीटर की पैदल यात्रा भी शामिल थी.

यदि किसी को संघर्ष, अनवरत जारी विरोध प्रदर्शन और समुदायों द्वारा झेले गए उत्पीड़न का दस्तावेजीकरण करना हो, तो यह नेटफ्लिक्स, प्राइम और अन्य ओटीटी प्लेटफार्मों के लिए एक आकर्षक वृत्तचित्र श्रृंखला हो सकती है. यह निश्चित रूप से हाथियों की फुसफुसाहट नहीं थी बल्कि अत्याधुनिक आरा मशीनें थीं, जिनके खिलाफ आदिवासियों को खड़ा होना पड़ा.

आलोक शुक्ला को गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार भी ऐसे समय में दिया गया है, जब चिपको आंदोलन अपनी 50वीं वर्षगांठ मना रहा है. डाउन टू अर्थ पत्रिका (16-30 अप्रैल, 2024) का कहना है कि चिपको आंदोलन ने राष्ट्रव्यापी पर्यावरण संबंधी चिंता को प्रेरित किया और नीति निर्माण को प्रभावित किया. “जब ठेकेदार और मजदूर 1973 में मार्च की सुबह रेनी गांव के जंगल को काटने के लिए पहुंचे, तो गांव में कोई आदमी नहीं था,” परिवर्तन का नेतृत्व करने वाले चंडी प्रसाद भट्ट याद करते हैं, उन्होंने कहा कि गौरा देवी, जो उस समय महिला मंडल की मुखिया थीं, वे अन्य महिलाओं के साथ जंगल में पहुंचीं और पेड़ों से लिपट गए. इसके बाद का किस्सा तो अब इतिहास का हिस्सा है.

‘चिपको आंदोलन’ को याद करना इसलिए जरूरी है क्योंकि हसदेव के जंगलों में भी महिलाओं ने पेड़ों को बचाने के लिएआलिंगन का सहारा लिया. लेकिन गढ़वाल क्षेत्र में पेड़ काटने आए व्यावसायिक लकड़हारों के विपरीत, यहां छत्तीसगढ़ में शक्तिशाली व्यापारिक घराने थे, जिन्हें राज्य सरकार की मशीनरी से सहायता और प्रोत्साहन मिला हुआ था.

इसलिए शायद छत्तीसगढ़ के पेड़ों को बचाने की अधिक आवश्यकता थी, और यहीं पर सामुदायिक प्रतिरोध आवश्यक हो गया.

पर्यावरण संरक्षण के साथ आर्थिक विकास को संतुलित करने की बात अक्सर की जाती रही है, लेकिन जब मानवता की खातिर जंगलों को बचाने की बात आती है, खासकर जलवायु परिवर्तन के समय, तो अर्थशास्त्र को प्राथमिकता दी जाती है. हालांकि यह ज्ञात है कि दुनिया के कुछ सबसे बड़े उद्योग हर साल अनुमानित $7.3 ट्रिलियन मूल्य की प्राकृतिक पूंजी को निगल जाते हैं, जो स्पष्ट रूप से ग्रह को सभ्यता के संकट की ओर ले जा रहा है, लेकिन जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों की लूट हो रही है, उस पर मुझे कोई पछतावा भी नहीं दिखता है. इसके उलट वनो के विनाश की अनुमति दी जा रही है.

जंगलों को काटने से वायुमंडल में वैश्विक जल चक्र सूख जाएगा, जैसा कि येल विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में बताया गया है, वन अपने स्थानीय वातावरण को ठंडा रखकर स्थानीय जलवायु को नियंत्रित करते हैं.

एक अकेला पेड़ एक दिन में सैकड़ों लीटर पानी वाष्पित कर सकता है. प्रत्येक सौ लीटर का शीतलन प्रभाव एक दिन के दो घरेलू एयर कंडीशनर के बराबर होता है. लेकिन क्या किसी को इस बात की परवाह है?

संसद में सितंबर 2020 में सूचित किया गया था कि 2015 के बाद से 10.76 मिलियन से अधिक पेड़ों को काटा जाना है या कटाई के लिए चिह्नित किया गया है. कोई भी शिक्षित व्यक्ति बुनियादी ढांचा परियोजनाओं और राजमार्गों के लिए जंगलों को साफ करने के लिए मतदान करेगा, यहां तक ​​कि यह जाने बिना कि आने वाली परियोजनाएं सच में आवश्यक हैं या नहीं. व्यावसायिक परियोजनाओं के लिए रास्ता बनाने के लिए वन कानूनों को भी कमजोर किया जा रहा है. हमने अब तक कोई सबक नहीं सीखा.

फ्रंटलाइन द्वारा प्रकाशित लेखों के संकलन ‘द ग्रेट निकोबार बिट्रेयल’ पुस्तक में, इसके संपादक, पंकज सेखसरिया का कहना है कि 72,000 करोड़ रुपये की बनाई गई वृहत्तर परियोजना, द्वीप के नाजुक वर्षावन पारिस्थितिकी तंत्र और इसके स्वदेशी लोगों को नष्ट कर देगी. इस परियोजना के लिए 130 वर्ग किमी क्षेत्र में लगभग दस लाख पेड़ काटे जाने हैं. इसकी वर्तमान जनसंख्या 8,000 से अगले 30 वर्षों में इसे 350,000 तक बढ़ाने की योजना है. इसे ही ‘विनाशकारी पूंजीवाद’ कहा जाता है.

हमें ऐसी प्रत्यक्ष आपदाओं से दूर जाना होगा. चाहे निकोबार द्वीप हो या हसदेव के जंगल, आदिवासी समुदायों से फिर से सीखें कि प्रकृति के साथ कैसे रहना है. कुएं के मेढक से सीखने की ज़रुरत है कि वह तालाब को पी नहीं जाता, बल्कि सामंजस्य बना कर रहता है.

जिन लोगों के जंगल हैं, उनके अधिकार छीने नहीं जा सकते. यह तभी हो सकता है, जब हम आर्थिक विकास के बारे में अपनी अधिकांश गलतफहमियों को दूर कर लें. प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर रहना सीखें और इसलिए हमारा सारा प्रयास इन प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित और संवर्द्धित करने का होना चाहिए. यहीं पर आलोक शुक्ला ने देश को औपनिवेशिक दृष्टिकोण से परे सोचने की राह दिखाई है. इस पृथ्वी को विनाश से बचाने के लिए हमें आर्थिक सिद्धांतों की एक भिन्न सोच की आवश्यकता है. हम अप्रचलित विकास मॉडल को आगे भी जारी नहीं रख सकते.

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