हरिवंश कथा और संसदीय व्यथा
श्रवण गर्ग
वे तमाम लोग जो नीतिपरक (एथिकल) पत्रकारिता की मौत और चैनलों द्वारा परोसी जा रही नशीली खबरों को लेकर अपने छाती-माथे कूट रहे हैं, उन्हें हाल में दूसरी बार राज्यसभा के उपसभापति चुने गए खाँटी सम्पादक-पत्रकार हरिवंश नारायण सिंह को लेकर मीडिया में चल रही चर्चाओं पर नज़र डालने के बाद अपनी चिंताओं में संशोधन कर लेने चाहिए.
वैसे यह बहस अब पुरानी पड़ चुकी है कि कैसे उस ‘काले’ रविवार (बीस सितम्बर) को लोकतंत्र की उम्मीदों का पूरी तरह से तिरस्कार करते हुए देश के करोड़ों किसानों और खेतिहर मज़दूरों को सड़कों पर उतरने के लिए मज़बूर कर दिया गया.
यह आलेख मूलतः उन सुधी पाठकों के लिए है, जो पत्रकारिता और राजनीति के बीच गहरी होती जा रही साठगाँठ को अंदर से समझना चाहते हैं. बिहार की वर्तमान राजनीति के महत्वाकांक्षी नायक नीतीश कुमार के आधिपत्य वाली जद (यू ) की ओर से वर्ष 2014 में राज्यसभा में पहुँचने के पहले तक हरिवंश नारायण सिंह की उपलब्धियाँ एक निर्भीक और वैचारिक रूप से पारदर्शी समाजवादी पत्रकार की रही हैं.
मेरा भी उनके साथ कोई दो दशकों से इसी रूप में परिचय रहा है. उनके साथ पत्रकारों के दल में एक-दो विदेश यात्राएँ भी की हैं. उनके अख़बार ‘प्रभात खबर’ के एक बड़े समारोह में पत्रकारिता पर बोलने के लिए राँची भी गया हूँ और उसके लिए लिखता भी रहा हूँ. पर हाल में काफ़ी कुछ हो जाने के बाद भी उन्हें लेकर मन में स्थापित उनकी पुरानी छबि में अभी पूरी दरार क़ायम नहीं हुई है. एक-दो झटके और ज़रूरी पड़ेंगे.
पिछले रविवार को हरिवंश के ‘सभापतित्व’ में राज्यसभा में जो कुछ हुआ उसे लेकर दो-तीन सवाल इन दिनों मीडिया की चर्चाओं में हैं.पहला तो यह कि एक पत्रकार के रूप में क़ायम अपनी छबि के अनुसार हरिवंश अगर अपने अख़बार के लिए उस दिन के ऐसे ही किसी घटनाक्रम की रिपोर्टिंग कर रहे होते और ‘सभापति’ की कुर्सी पर कोई और बैठा हुआ होता तो वे क्या कुछ लिखना चाहते ?
दूसरा सवाल यह कि अगर ऐसे ही किसी और (महत्वाकांक्षी) पत्रकार को राजनीति में इसी तरह से नायक बनकर उभरने के अवसर प्राप्त हो जाएँ तो पाठकों को उससे अब किस तरह की उम्मीदें रखनी चाहिए ?
तीसरा यह कि कुर्सी पर उस दिन एक पत्रकार की आत्मा के बजाय किसी अनुभवी राजनीतिक व्यक्तित्व का शरीर उपस्थित होता तो क्या वह भी इतने ज़बरदस्त हो-हल्ले के बीच इतने ही शांत भाव और ‘कोल्ड ब्लडेड’ तरीक़े से काग़ज़ों में गर्दन समेटे ध्वनिमत से सबकुछ सम्पन्न कर देते या फिर जो सांसद मत विभाजन की माँग कर रहे थे, उनकी ओर भी नज़रें घुमाकर देखते ?
वैसे इस बहस में जाने का अब कोई अर्थ नहीं रह गया है कि मत विभाजन (वोटिंग) अगर हो जाता तो ‘विवादास्पद’ कृषि विधेयकों और सरकार की स्थिति क्या बनती ! क्या एक पत्रकार के दिमाग़ की शांत सूझबूझ से स्थिति सरकार के पक्ष में नहीं हो गई ?
हरिवंश नारायण सिंह के ‘सभापतित्व‘ में राज्यसभा का कुछ ऐसा इतिहास रच गया है कि पत्रकारिता और सत्ता की राजनीति के बीच के घालमेल को लेकर मुड़कर देखने की ज़रूरत पड़ गई है.
सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू की अध्यक्षता में गठित प्रेस काउन्सिल ऑफ इंडिया का एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की ओर से नामांकित मैं भी एक सदस्य था. बात अब लगभग दस साल पुरानी होने को आयी. जस्टिस काटजू मीडिया की आज़ादी को लेकर तब बहुत ही आक्रामक तरीक़े से काम कर रहे थे.
इस सम्बंध में कई राज्यों से शिकायतें भी आ रहीं थीं. बिहार में मीडिया पर नीतीश सरकार के दबाव को लेकर प्राप्त शिकायतों के बाद एक समिति का गठन कर उसे बिहार भेजा गया और एक रिपोर्ट तैयार होकर काउन्सिल के समक्ष प्रस्तुत की गई. पर क़िस्सा इतना भर ही नहीं है !
क़िस्सा यह है कि प्रेस काउन्सिल की समिति द्वारा तैयार की गई तथ्यपरक रिपोर्ट को चुनौती तब प्रभात खबर के सम्पादक हरिवंश नारायण सिंह द्वारा दी गई. काउन्सिल के सदस्यों को आश्चर्य हुआ कि रिपोर्ट को एकतरफ़ा और मनगढ़ंत नीतीश सरकार नहीं, बल्कि एक प्रतिष्ठित पत्रकार करार दे रहा है.
हरिवंश ने रिपोर्ट के ख़िलाफ़ अपने अख़बार में बड़ा आलेख लिखा और उसके निष्कर्षों को झूठा करार दिया. वर्ष 2016 में प्रधानमंत्री द्वारा घोषित की गई नोटबंदी के समर्थन में जिन कुछ पत्रकारों ने प्रमुखता से आलेख लिखे, उनमें हरिवंश भी थे. इसके साल भर के बाद तो जद(यू)-भाजपा की आत्माएँ मिलकर एक हो गईं और उसके एक साल बाद हरिवंश राज्यसभा में उप-सभापति बन गए.
राज्यसभा में जो कुछ हुआ उसका क्लायमेक्स यह है कि हरिवंश सोमवार सुबह धरने पर बैठे आठ निलम्बित सांसदों के लिए चाय-पोहे लेकर पहुँच गए जिसका कि उन्होंने (सांसदों ने) उपयोग नहीं किया.
उसके अगले दिन हरिवंश ने राष्ट्रपति के नाम एक मार्मिक पत्र लिखकर स्थापित कर दिया कि वास्तव में तो पीड़ित वे हैं और अपनी पीड़ा में एक दिन का उपवास कर रहे हैं. प्रधानमंत्री ने न सिर्फ़ हरिवंश के निलम्बित सांसदों के लिए चाय ले जाने की ट्वीटर पर तारीफ़ की, उनके द्वारा राष्ट्रपति को लिखे पत्र को भी जनता के लिए ट्वीटर पर जारी करके बताया कि कैसे उसके (पत्र के) एक-एक शब्द ने लोकतंत्र के प्रति ‘हमारे विश्वास को नया अर्थ दिया है.’
समूचे घटनाक्रम के ज़रिए अब जो कुछ भी प्राप्त हुआ है, उसे हम एक ऐतिहासिक दस्तावेज मानकर पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों के लिए उपयोग में ला सकते हैं.
हरिवंश राजनीतिक रूप से तीन लोगों के काफ़ी क़रीब रहे हैं और उसके कारण उन्हें कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा. ये हैं: चंद्रशेखर, नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी. तीनों के ही व्यक्तित्व, स्वभाव और राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ लगभग एक जैसी रही हैं. अतः असीमित सम्भावनाएँ व्यक्त की जा सकती हैं कि अपनी शांत प्रकृति, प्रत्यक्ष विनम्र छबि और तत्कालीन राजनीति की ज़रूरतों पर ज़बरदस्त पकड़ के चलते हरिवंश आने वाले समय में काफ़ी ऊँचाइयों पर पहुँचेंगे.
सोचना तो अब केवल उन पत्रकारों को है जो फ़िलहाल तो जनता की रिपोर्टिंग कर रहे हैं, पर कभी सत्ता की रिपोर्टिंग के भी आमंत्रण मिलें तो उन्हें क्या निर्णय करना चाहिए !