हबीब तनवीर, आगरा बाजार और छत्तीसगढ़
नई दिल्ली | बीबीसी: छत्तीसगढ़ के कलाकारों को हबीब तनवीर ने अपने नाटक में लिया. हबीब तनवीर छत्तीसगढ़ के कलाकारों की अभिनय क्षमता तथा हंसाने की क्षमता के कायल थे. हबीब तनवीर के नाटक आगरा बाजार का मंचन पिछले 60 सालों से हो रहा है.
आशिक कहो, असीर कहो, आगरे का है
मुल्ला कहो, दबीर कहो, आगरे का है
मुफ़लिस कहो, फ़क़ीर कहो, आगरे का है
शायर कहो, नज़ीर कहो, आगरे का है
नज़ीर अकबराबादी 18वीं सदी में आगरे में बसे शायर थे. उनकी शायरी ऐसी थी की आम लोग अक्सर उनकी नज़्में गलियों में गाते फिरते थे. नज़ीर अकबराबादी के काम को 20 और 21 वीं सदी में ज़माने के सामने फिर चमका कर रखा हबीब तनवीर ने.
नज़ीर अकबराबादी का नज़रिया हबीब तनवीर के थिएटर का नज़रिया बन गया और हबीब तनवीर ने बनाया नाटक आगरा बाज़ार .
इस नाटक का पहली बार मंचन1954 में दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया में हुआ. भारतीय रंगमंच में इस नाटक ने एक हलचल पैदा की. पिछले 60 सालों से खेला जा रहा ये नाटक आज भी हिट है.
भारतीय रंगमंच को आगरा बाज़ार और चरणदास चोर जैसे नाटक देने वाले अभिनेता, निर्देशक, लेखक हबीब तनवीर का 8 जून 2009 को देहांत हुआ.
उनके नाटक आगरा बाज़ार में बेचारे ककड़ी, लड्डू और पतंग जैसी चीज़ें बेचने वाले दुकानदारों को दिखाया गया है जिन्हें ख़रीदार नहीं मिल रहे हैं. नज़ीर ने उनके लिए गाने लिखे जिसे गा कर वो अपना सामान बेच सकें.
हबीब तनवीर ने इस नाटक को जीवंत बनाने के लिए इसमें दिल्ली के आम लोगों को भी शामिल किया.
हबीब तनवीर के नाटक आगरा बाज़ार में किरदार निभाने वाले मोहम्मद असद उल्लाह खान कहते है की इस नाटक को भारत से बाहर भी उतना ही पसंद किया गया जितना यहाँ के लोगों ने किया.
असद बताते हैं कि जब जर्मनी में इस नाटक का मंचन हुआ तो एक जर्मन प्रोफेसर ने इस नाटक की भूमिका जर्मन लोगों को समझाई. इस नाटक का मंचन उर्दू में ही हुआ था और वहाँ उर्दू ना समझते हुए भी इस नाटक को बहुत पसंद किया गया.
हबीब तनवीर हर एक कलाकार की तरह बम्बई में अभिनेता बनने के लिए गए थे लेकिन मायनगरी उन्हें रास नहीं आई और 10 साल हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री में काम करने के बाद वो 1954 में दिल्ली वापस आ गए.
पहले उन्होंने क़ुदसिया जैदी के हिंदुस्तान थिएटर के साथ काम किया इसी दौरान उन्होंने बच्चों के लिए भी कुछ नाटक किए. उसके बाद हबीब इग्लैंड में रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक्स आर्ट्स में पढ़ने चले गए.
दास्तानगो और इतिहासकार महमूद फ़ारूक़ी कहते हैं कि जब हबीब साहब का थिएटर परवान चढ़ा उस दौर में थिएटर नितांत शहरी था. थिएटर केवल पढ़े लिखे शहरी अभिनेता वेस्टर्न कल्चर के ताने बाने पर किया करते थे.
हबीब साहब ने शुरू से छत्तीसगढ़ की नाचा शैली को अपनाया. जब लौटे तो बम्बई और दिल्ली में ना रुके और जा पहुंचे छत्तीसगढ़ के गांवो में. उस समय थिएटर के लिए उन्हें कलाकारों की तलाश थी और जो छत्तीसगढ़ में जाकर पूरी हुई.
वहां जाकर उन्होंने पाया कि गज़ब की अभिनय क्षमता के साथ-साथ कॉमेडी करने में भी छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों का कोई कोई सानी नहीं है. उन्होंने उन्हीं कलाकारों के साथ थिएटर की एक नयी विधा गढ़ी.
मोहन राकेश के नाटक हो या गिरिश कर्नाड के, हबीब साहब के नाटक शुरू में गांव वालों की समझ में नहीं आते थे, लेकिन आदिवासी कलाकारों के साथ संजीदगी से काम करते हुए उन्होंने थिएटर की एक नई परिभाषा गढ़ी.
उनके नाटकों को छत्तीसगढ़ के गांवों से लेकर एडिनबरा के स्टेज तक दिखाया गया और सराहा गया. उन्होंने थिएटर को एक ऐसा स्वरूप दिया कि हिंदी ना जानते हुए भी विदेशों में चरणदास चोर जैसे नाटक पर दर्शक खूब ठहाके लगते थे.