जीएसटी के बाद अर्थव्यवस्था की हालत बिगड़ी
जीएसटी के बाद अर्थव्यवस्था
आर्थिक समीक्षा 2016-17 का दूसरा खंड इस बार गैरपारंपरिक ढंग से बजट के काफी बाद जारी किया गया.
यह नोटबंदी, वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी के लागू होने और कृषि संकट के बाद अर्थव्यवस्था की स्थिति पर भारतीय रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय के औपचारिक पक्ष की कमी को पूरा करने वाला है. इस खंड में आंकड़ों को पारदर्शी तरीके से पेश किया गया है. यह सराहनीय काम है क्योंकि इससे वैकल्पिक व्याख्या में मदद मिलेगी. आंकड़ों को इलैक्ट्रानिक तौर पर जारी करने का निर्णय भी प्रशंसनीय है. हालांकि, वैकल्पिक व्याख्या अर्थव्यवस्था की हताशाजनक तस्वीर पेश करता है. हालांकि, आर्थिक समीक्षा उस आर्थिक विचारधारा से प्रेरित है जिसके सुधार एजेंडे में समावेशी सोच नहीं है.
जीएसटी के फायदों का चित्रण और महंगाई का विश्लेषण बहुत अच्छे ढंग से किया गया है. वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल को लेकर जो स्थिति बन रही है, उसमें आने वाले दिनों में इसके दाम कम रहने के आसार हैं. वैकल्पिक स्रोतों से बनने वाली बिजली की कीमतें भी कम रहने से बिजली की दरों में बढ़ोतरी के आसार नहीं हैं. घरेलू खाद्य कीमतों में भी कमी बनी हुई है. न्यूनतम समर्थन मूल्य को तार्किक बनाने और पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में हुए बंपर पैदावार से अनाज उत्पादन में स्थिरता बनी हुई है. लेकिन खाद्य प्रबंधन में यही स्थिति बनी रहेगी, इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता. क्योंकि पहले भी हमने कुछ मौकों पर देखा है कि सरकारी भंडारों से अनाजों को खुले बाजार में उतारना पड़ा है क्योंकि इन्हें रखने का बोझ अधिक पड़ रहा था. समीक्षा में कहा गया है कि आने वाले दिनों में खाद्य प्रबंधन ठीक रहने की उम्मीद है.
समीक्षा में किसानों की कर्ज माफी के दूरगामी परिणामों की भी चर्चा की गई है. उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, पंजाब और तमिलनाडु ने कर्ज माफी की घोषणा की है. समीक्षा में माना गया है कि दूसरे राज्य भी इसी रास्ते पर जाएंगे और कुल मिलाकर 2.2 से 2.7 लाख रुपये की कर्ज माफी हो सकती है. केंद्र सरकार ने हालांकि साफ कर दिया है कि कर्ज माफी का आर्थिक बोझ राज्यों को खुद ही वहन करना होगा. समीक्षा में चेतावनी दी गई है कि अगर सभी राज्यों ने ऐसा किया तो सकल मांग में 1.1 लाख करोड़ रुपये की कमी आ जाएगी और जीडीपी को 0.7 फीसदी का नुकसान होगा. इसे कोरी कल्पना ही कहा जा सकता है.
कुछ क्षेत्रों को लेकर समीक्षा का विश्लेषण निराशाजनक है. पहली चिंता तो यह है कि पिछले दो सालों में अच्छी बारिश और अच्छी पैदावार के बावजूद किसानों की स्थिति खराब हुई है. किसानों की आमदनी की अनिश्चितता बनी हुई है. उनके कर्जों में अधिकांश हिस्सा स्थानीय साहूकारों का होता है. लेकिन फिर भी इन समस्याओं को दूर करने के लिए कुछ नहीं किया गया.
समीक्षा में नोटबंदी की अल्पकालिक नुकसान और दीर्घकालिक फायदों का जिक्र भी किया गया है. हमें यह बताया गया क नॉमिनल जीडीपी में नोटबंदी के बाद तेजी आई. यह आश्चर्यजनक है कि इतने गंभीर दस्तावेज में इस बात का जिक्र नहीं है कि नॉमिनल मामले में हर क्षेत्र नोटबंदी से अछूता दिखा. चाहे वह लोक प्रशासन हो, रक्षा हो या अन्य सेवाएं हों. सब जगह उछाल दिखा. विनिर्माण, निर्माण, व्यापार और आर्थिक क्षेत्रों में नोटबंदी का नकरात्मक असर दिखा.
अनौपचारिक क्षेत्र पर नोटबंदी के असर का विश्लेषण करते हुए समीक्षा में दोपहिया वाहनों की बिक्री और रोजगार गारंटी योजना के तहत काम की बढ़ी मांग का जिक्र किया गया है. अधिक रोजगार की मांग दबाव का संकेतक तो है लेकिन दोपहिया वाहनों के बिक्री के आंकड़े सही संकेतक नहीं हैं.
सरकारी खर्चों और शिक्षा व स्वास्थ्य क्षेत्र में निवेश पर भी जो तस्वीर समीक्षा ने पेश की वह भारत की जरूरतों के अनुकूल नहीं है. हम मानव पूंजी के मामले में काफी पीछे हैं. इसकी वजह सामाजिक बुनियादी ढांचे में होने वाला कम निवेश है. समाज की क्रय शक्ति तब बढ़ती है जब सरकारी खर्चे गरीबों और मध्य वर्ग की जरूरतों को पूरा करने के लिए होते हैं. आर्थिक विकास की धारा में सिर्फ आपूर्ति पक्ष पर ध्यान दिया जा रहा है. मांग पक्ष उपेक्षित है. आर्थिक समीक्षा में ब्रिक्स देशों में शिक्षा और स्वास्थ्य पर निजी खर्च में हुई बढ़ोतरी का जिक्र किया गया है.
स्वास्थ्य सेवाओं के लिए भारत में 60 फीसदी पैसा जेब से खर्च होता है जबकि दूसरे देशों के लिए यह आंकड़ा 10 से 32 फीसदी है. इसका मतलब यह है कि हमारे यहां स्वास्थ्य बीमा का कवरेज कमजोर है. सिर्फ कह देने भर से शिक्षा और स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च नहीं बढ़ जाएगा.
यह तो तब ही होगा जब करों का संग्रहण बढ़े और अधिक वित्तीय घाटे की जोखिम उठाने की स्थिति बने. पिछले 30 सालों से सुधार के नाम पर जो चल रहा है उसमें अपर्याप्त सरकारी खर्च स्पष्ट तौर पर यह जाहिर करता है कि गरीबों की जरूरतों की अनदेखी लगातार की जा रही है.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद