जॉर्ज फर्नांडीज : एक परछाईं
कुमार प्रशांत | कुमार प्रशांत की दुनिया: हम वहां हैं जहां से खुद हमको / कुछ अपनी खबर नहीं आती ! मालूम नहीं, जॉर्ज फर्नांडीज ने यह शेर कभी सुना या पढ़ा था लेकिन उनका अंत कुछ ऐसे ही हुआ. बहुत कुछ अटलबिहारी वाजपेयी की तरह. वे लंबे समय से हमारे बीच थे लेकिन ऐसे अनुपस्थित थे कि जैसे थे ही नहीं. जिन्होंने भी जॉर्ज को कभी, कहीं, थोड़ा भी जाना होगा वे सबसे पहले यही जान सके होंगे कि इस आदमी को नेपथ्य में रहना नहीं आता है, कि इसे नेपथ्य में रखा नहीं जा सकता है. जॉर्ज अपनी पूरी बनावट में ही मंच के आदमी थे.
तब जयप्रकाश आंदोलन अपने चरम पर था और इंदिरा गांधी उन सबको एक-एक कर जयप्रकाश से दूर करने में लगी थीं जिनसे उन्हें थोड़ी भी आशंका थी कि यह जयप्रकाश का मददगार हो सकता है. बिहार से बाहर के सर्वोदय आंदोलन के शीर्ष लोगों को बिहार निकाला दे दिया गया था. तब जॉर्ज रेलवे यूनियन के अध्यक्ष थे और रेल इतिहास की सबसे बड़ी हड़ताल का नेतृत्व कर रहे थे. कभी समाजवादियों के दार्शनिक व गुरु तथा स्वतंत्र भारत की रेलवे यूनियन के पहले अध्यक्ष जयप्रकाश नारायण से मिलने और अपनी हड़ताल की मांगों को बिहार आंदोलन की मांगों में शामिल करवाने का प्रस्ताव ले कर वे बिहार के, मुंगेर के खादीग्राम आश्रम आए थे.
यहां युवकों का हमारा संपूर्ण क्रांति का प्रशिक्षण शिविर चल रहा था और जयप्रकाश वहीं थे. यह सब चल ही रहा था कि खबर आई कि जॉर्ज के बिहार प्रवेश पर बंदिश लगा दी गई है. बंदिश की घोषणा अभी-अभी हुई थी और वह प्रभावी हो इससे पहले वे खादीग्राम पहुंच जाएं, जयप्रकाश से विचार-विमर्श हो जाए और उनकी एक सार्वजनिक सभा हो जाए, ऐसा संदेश आया.
जयप्रकाश ने कहा कि वे आ सकें तो आएं लेकिन बंदिश की घोषणा हो चुकी है तो उनका आश्रम में आ कर सार्वजनिक सभा करना उचित नहीं होगा. वे हमारे शिविर के हॉल में ही अपनी बात रखें. जॉर्ज अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ पहुंचे. उन्हें भी पता था कि किसी भी वक्त उन्हें बिहार से बाहर करने की काररवाई हो सकती है. इसलिए सब कुछ तेजी से करना था. पहला काम जयप्रकाश के साथ विमर्श का था. रेल हड़ताल के बारे में और अमर्यादित सरकारी दमन के बारे में उन्होंने जयप्रकाश को पूरी जानकारी दी और कहा कि यदि वे बिहार आंदोलन में इस हड़ताल को भी शामिल कर लेते हैं तो इसे खासी ताकत मिलेगी और सरकार के लिए हम बड़ी मुसीबत खड़ी कर सकेंगे. जयप्रकाश ने समझाया: जहां तक रेल हड़ताल का और तुम्हारी यूनियन की मांगों का सवाल है, मैं उसका समर्थन करता हूं.
मैं अपनी सभाओं में इसके बारे में बोल ही रहा हूं और अब तुमने जितनी जानकारी दी है उस आधार पर मैं दमन की पूरी निंदा भी करूंगा. हड़ताल मजदूरों का लोकतांत्रिक अधिकार है और उसका मुकाबला किसी भी सभ्य सरकार को बातचीत से ही करना चाहिए, दमन से नहीं. हां, तुमसे मैं यह जरूर कहूंगा कि हमारी हड़तालें बड़ी आसानी से हिंसा और तोड़-फोड़ में बदल जाती हैं, क्योंकि साधनों के बारे में तुम बड़े नेताओं का आग्रह नहीं होता है. अगर मैं सरकारी दमन का निषेध करूंगा तो यूनियन की हिंसक काररवाइयों के बारे में चुप्पी तो नहीं रख सकूंगा. मुझे ऐसी उलझन में न पड़ना पड़े, इसकी सावधानी तुम्हें रखनी होगी. जहां तक बिहार आंदोलन की मांगों में इसे शामिल करने का संबंध है तो यह तो सत्याग्रह के बुनियादी धर्म में नहीं बैठेगा. सत्याग्रह की नैतिक भित्ती ही यह है कि इसमें मांगें न्यूनतम रखते हैं और स्थिर रखते हैं. जो न्यूनतम है, सत्याग्रह का वही अधिकतम है और उस पर ही डटे रहना होता है. इसलिए मैं इसे बिहार आंदोलन की मांगों में शरीक नहीं कर सकूंगा लेकिन इस हड़ताल को मेरा पूरा व खुला समर्थन है, यह मैं जरूर कहूंगा.
जॉर्ज अपने गुरू को इतना तो जानते थे कि इन्हें इनकी बातों से डिगाने की कोशिश व्यर्थ है. विमर्श पूरा हुआ और जॉर्ज अपनी बात कहने शिविर हॉल में आए. माइक से जैसे ही उन्होंने बोलना शुरू किया, उन्हें बिहार की सीमा से बाहर करने वाले आ पहुंचे. अब कुछ खींचतान की आशंका बन रही थी कि जयप्रकाश ने पुलिस अधिकारी को बुला कर कहा: आप सरकारी आदेश इन्हें दीजिए और तब तक इन्हें अपनी बात पूरी कर लेने दीजिए. दोनों आश्वस्त हो गये. जॉर्ज माइक पर दहाड़े, तो जयप्रकाश ने हंस कर कहा: माइक बंद कर दो, जॉर्ज को माइक की जरूरत ही नहीं है. सभी हंस पड़े, सारा तनाव कहीं बह गया.
मैं उन्हें छोड़ने कार तक गया और जयप्रकाश के इंकार से आहत जॉर्ज को कुछ आश्वस्त करने की कोशिश की तो वे कंधे पर हाथ रखकर बोले, “ मैं जानता था कि वे ऐसा ही कहेंगे. अब तो यहां गांधी की कसौटी की बात है.”
गांधी की हो कि किसी और की, जॉर्ज को कोई भी कसौटी कभी रास नहीं आती थी. वे लड़ाई और प्यार में सब कुछ जायज मानने वाले व्यक्ति थे. बला का ओज और बला की ऊर्जा थी. संसदीय राजनीति में विपक्ष का दिमाग कैसा होना चाहिए यह अगर हम मधुलिमये को जानकर समझ पाते हैं तो त्वरा और तेवर कैसा होना चाहिए, यह जॉर्ज को देखकर समझा जाना चाहिए. उन जैसा हरावल सेनापति दूसरा कहीं नहीं मिलता है. लेकिन राजनीति केवल लड़ाई से नहीं चलती है, यह बात जनता पार्टी की सरकार में शामिल सारे घटकों ने यदि समझी होती तो वह प्रयोग उतना जलील हो कर खत्म नहीं हुआ होता. लेकिन तब क्या अटल, क्या मोरारजी, क्या जॉर्ज, क्या जगजीवन राम या चरण सिंह कोई भी अपने अलावा कुछ भी देखने का शील निभाने को तैयार नहीं था.
एक दिन अपनी ही सरकार के समर्थन में भाषण दे कर और दूसरे ही उसी के खिलाफ मतदान कर, उसे पराजित कर जॉर्ज तब जो भटके तो फिर कभी ठौर नहीं पा सके. सत्ता में वे करीब-करीब लगातार ही रहे लेकिन सत्ता जॉर्ज जैसों का ठौर कभी हो ही नहीं सकती थी. इसलिए वे लगातार अपनी परछाईं के पीछे छिपते रहे. लेकिन परछाइयां सख्सियत से बड़ी तभी होती हैं जब धूप ढलने लगती है. जॉर्ज को ही इसका उदाहरण बनना था. सत्ता की आखिरी बाजी उन्होंने अटलजी की सरकार में शामिल हो कर खेली. फिर तो वे लगातार खेलते रहे, अच्छा भी खेलते रहे, संकटमोचक की भूमिका में जीतते भी रहे लेकिन वह सब परछाईं भर थी. जो सख्सियत थी वह लगातार हारती रही.
जब अटल सरकार ने आयोडीन नमक को अनिवार्य बना दिया तब उसके खिलाफ हमने एक आंदोलन खड़ा किया था और उस सिलसिले में कई दफा प्रधानमंत्री अटलजी से भी और रक्षामंत्री जॅार्ज फर्नाडीज से भी मिलना पड़ा. वह सब अलग ही कहानी है. लेकिन एक दिन सुबह-सुबह घर पर मिलना हुआ. मैं कुछ चिढ़ा भी था, कुछ परेशान भी. कुछ कड़ी बात कही तो बोले, “ प्रशांतजी, रास्ता तो आप लोगों का ही सही है. इन संसदों और विधानसभाओं से कुछ निकलने वाला नहीं है !” मैंने तुरंत ही पूछा, “ तो फिर कब यहां से निकल कर हमारे साथ आ रहे हैं ?” अचानक ऐसे सवाल की उन्हें आशा नहीं थी. थोड़े से अचकचा गये और फिर शून्य में देखते रहे.
आज हम शून्य में देख रहे हैं. एक परछाईं थी जो, वह भी मिट गई.