दीवाने-ख़ास में आम बजट
देश का आम बजट कभी भी आम जनता से पूछकर नहीं बनाया जाता है जबकि वही इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होता है. आम जनता जहां आम बजट को अपनी दुश्वारियों को कम करने वाला चाहती है वहीं इस बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में सरकार का जोर बजट घाटे को कम करने में लगा रहता है. औद्योगिकरण को बढ़ावा देने के नाम पर पिछले कई सालों से केन्द्र सरकार नैगम करों में छूट देती जा रही हैं जबकि आम जनता पर लगने वाले विभिन्न प्रकार के अप्रत्यक्ष करों को बढ़ाया जा रहा है. इसी कारण से नए वित्तवर्ष के बजट को लेकर कयासों का दौर जारी है. इतना तो तय है कि बजट जन आकांक्षाओं से इतर होगा, यानी जेब और ढीली होगी. वित्तमंत्री खुद इस बात का संकेत दे चुके हैं, बजट लोक लुभावन नहीं होगा. इसलिए लोगों को अभी से चिंता सताने लगी है.
जहां तक महंगाई का सवाल है, कई तरह के टैक्सों के बाद लगभग सवा सौ सेवाओं को सर्विस टैक्स के दायरे में लाकर, कमाई पहले ही हल्की की जा रही है.
इस बीच संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत अर्थव्यवस्था की दृष्टि से आगे रहेगा तथा 2016 में उत्पादन वृद्धि की दर 7.3 व 2017 में 7.5 होगी. लेकिन हालात कुछ और ही कह रहे हैं, लगता है कि ऐसा कुछ हो पाएगा?
बाजार सूने पड़े हैं. लिवाली-बिकवाली दोनों की कमी है. सोने के दाम ऊपर नीचे हो रहे हैं. स्टील सेक्टर मंदी से जूझ रहा है. शेयर बाजार एक अजीब सी ऊहापोह में है. उद्योगों और कल कारखानों की डांवाडोल स्थिति भी चिंताजनक है.
बजट को लेकर जो संकेत मिल रहे हैं, उससे लगता है कि इस बार सरकारी खर्चो को बढ़ाने पर जोर दिया जा सकता है, क्योंकि वेतन आयोग की सिफारिशों, सैनिकों की बढ़ी पेंशन और कैपिटल एक्सपेंडीचर जैसे कामों के लिए धन की जरूरत तो पड़ेगी. लेकिन सवाल वही कि पैसा आएगा कहां से?
बजट में निवेश बढ़ाए जाने पर जोर दिया जा सकता है. लेकिन मौजूदा हालात में कितना कारगर होगा, यह कहना जल्दबाजी होगी, क्योंकि पिछले बजट में 69500 करोड़ रुपये विनिवेश का लक्ष्य रखा गया था जबकि सरकार मुश्किल से 12700 करोड़ रुपये ही जुटा पाई है.
इधर घाटे वाली सरकारी कंपनियों में विनिवेश तो पूरी तरह नाकाम रहा. आय बढ़ाने के लिहाज से पोस्ट ऑफिस को बैंक में तब्दील करने की योजना भी फलीभूत नहीं हो पाई, जबकि रिजर्व बैंक इसके लिए लाइसेंस भी दे चुका है.
बजट में सबसे बड़ी चुनौती कॉरपोरेट टैक्स घटाने और जीएसटी की तरफ बढ़ने के इंतजाम जरूरी हैं. कॉरपोरेट टैक्स में यदि 1 प्रतिशत की भी कमी हुई तो सरकारी खजाने में 6 से 7 हजार करोड़ रुपयों की आमद घटेगी. निश्चित रूप से यह बड़ी रकम है. इस बजट में मोदी सरकार द्वारा बहुप्रचारित काले धन को लेकर भी कठोर उपाय किए जा सकते हैं. संभव है कि तय सीमा से ज्यादा नकदी रखने पर पाबंदी लगे.
स्कूल, कॉलेजों में डोनेशन के नाम पर कालेधन के लेन-देन पर रोक के लिए डोनेशन को क्रॉस चेक से देना जरूरी किया जाए. अनुमानत: केवल एमबीबीएस दाखिलों में पूरे देश में लगभग 12 हजार करोड़ रुपयों का कालाधन इस्तेमाल होता है.
पिछले बजट में कालाधन का खुलासा करने, खास स्कीम लाने का ऐलान किया गया था. स्कीम भी आई लेकिन, अपेक्षानुसार कालाधन नहीं आया. महत्वाकांक्षी सोना मुद्रीकरण योजना का भी यही हाल रहा. योजना तो आई लेकिन सोना नदारद रहा. यह सब बीते बजट की आधी अधूरी घोषणाएं हैं.
इस बजट में मनपसंद सैलरी ब्रेकअप तय करने की संभावना है. इसके लिए वो कंपनी जिसमें 40 या अधिक कर्मचारी हैं, तय कर सकेंगी कि भविष्य निधि फंड में पैसा जमा करना है या नहीं एवं स्वास्थ्य बीमा के लिए मनपंसद स्कीम भी चुनने की आजादी होगी.
मौजूदा वित्तवर्ष में सरकार विनिवेश लक्ष्य से काफी पीछे चल रही है. शेष दो महीनों में स्थिति में सुधार की गुंजाइश भी नहीं दिख रही है. ऐसे में निश्चित रूप से सारा दारोमदार आम आदमी के कंधों पर ही पड़ता दिखाई दे रहा है. हो सकता है, वित्तमंत्री ने पहले ही लोक लुभावन न होने वाला बजट कहकर, शायद यही संकेत दिया हो.
सस्ते रेल किराये को लेकर वित्त मंत्रालय और रेल मंत्रालय पहले ही आमने-सामने जैसे स्थिति में हैं. सस्ता यात्री किराया और सस्ते अनाज ढुलाई पर दी जाने वाली सब्सिडी किसकी खाते में जाए. रेल मंत्रालय चाहता है वित्त मंत्रालय उठाए और वित्त मंत्रालय तैयार नहीं है. सब्सिडी को लेकर इस ऊहापोह के बीच कहीं भार सीधे आम आदमी के कंधों पर न आ जाए?
इधर ‘डिलॉयट’ सर्वे के इशारों को समझें तो भारतीय कंपनियां अपने वफादार कर्मचारियों के जाने के भय से भी भयभीत हैं. कर्मचारी, कंपनी में अपनी भूमिका को लेकर असंतुष्ट हैं जिसकी वजह लीडरशिप पोजीशन के लिए युवाओं को प्रोत्साहित किया जाना बताया गया है. यह वाकई अनकही लेकिन चिंता की बात है.
कीमतों पर नियंत्रण, घरेलू निवेश बढ़ना, नए कल-कारखाने खुलना, लोगों को नौकरियां मिलना, आम आदमी की आय बढ़ाना, जीवन स्तर में सुधार आना ही वो संकेत हैं, जिनसे अर्थ व्यवस्था की गति मापी जाती है. कहने की जरूरत नहीं कि वर्तमान में यह सब किस दौर से गुजर रहे हैं. अब तो सबसे बड़ी चुनौती सर्वहारा वर्ग के चेहरे पर मुस्कान लाने की है. इसके लिए क्या कुछ किया जाएगा यह अहम है.
कृषि विकास की कोरी बातों को फलीभूत करना, किसानों की आत्महत्या रोकना, विदेशी मुद्रा अर्जन, एक्सपोर्ट को बढ़ावा और विदेशी निवेशकों का भारत के प्रति रुझान ही आर्थिक तरक्की का मुख्य आधार है, जबकि वर्तमान में स्थिति, इससे उलट ही दिख रही है.
दाल के भाव आसमान छू रहे हैं, गेहूं, चावल से लेकर सब्जी और फल, खाद्य तेल, मसाले, दुनिया में सबसे न्यूनतम दर पर पेट्रोल की उपलब्धता के बावजूद एक्साइज ड्यूटी बढ़ाकर कीमतें लगभग जस की तस रखना. रेल, हवाई और सड़क परिवहन में बढ़ोतरी का सभी का भार जनता पर ही तो है, जबकि लोगों की तनख्वाह इस अनुपात में दोगुनी होनी चाहिए. ये तो दूर सवाया तक नहीं बढ़ी और न ही मजदूरी की दर में खास इजाफा हुआ.
घरेलू गृहणियों की चिंता बढ़ना स्वाभाविक है. संभव है कि आयकर की सीमा बढ़ाकर 5 लाख रुपये तक कर दी जाए, लेकिन इससे आम आदमी को क्या फायदा होगा यह आने वाला बजट ही बताएगा.
बजट से आम और खास सभी उम्मीदें करते हैं. युवा, गृहिणी, वरिष्ठ नागरिक, नौकरीपेशा, व्यवसायी, उद्यमी, सर्विस सेक्टर सभी तो उम्मीदें लगाए बैठे हैं. बजट कैसा होगा ये बस कयासों का दौर ही है. बजट लोक लुभावन होगा या लोक लुटावन, लोगों की चिंता अभी से बढ़ गई है.