छत्तीसगढ़ का गऊरा-गऊरी उत्सव
रायपुर | एजेंसी: छत्तीसगढ़ में तीज त्योहारों का दौर प्रारंभ होते ही सूबे में तरह-तरह के नृत्य गांवों के साथ-साथ शहरों में भी दिखने लगते हैं और वातावरण संगीतमय हो जाता है. यहां की ग्रामीण संस्कृति में रचे बसे गीतों पर कोई भी संगीत प्रेमी बिना थिरके नहीं रह पाता.
ऐसे ही गीतों में से एक है गऊरा-गऊरी का गीत. सूबे के ग्रामीण इलाकों में गऊरा-गऊरी उत्सव बड़े ही धूमधाम के साथ मनाया जाता है.
सूबे के इस पारंपरिक गीत में गऊरा हैं शिव तथा गऊरी हैं पार्वती. यूं तो यह लोक उत्सव हर साल दिवाली और लक्ष्मी पूजा के बाद ही मनाया जाता है. भाटापारा की माधुरी यादव ने बताया कि कार्तिक महीने की कृष्ण पक्ष अमावस्या के वक्त यह उत्सव पारंपरिक रूप से खास तौर पर गांवों में मनाया जाता है. इस पूजा में सभी जाति समुदाय के लोग शामिल होते हैं.
बताया जाता है कि सुरहुत्ति त्योहार छत्तीसगढ़ अंचल में दीपावली पूजा के दिन को ही कहते हैं. अर्थात त्योहार की शुरुआत. शाम चार बजे उस दिन लोग झुंड में गांव के बाहर जाते हैं और एक स्थान विशेष पर पूजा करते हैं. उसके बाद उसी स्थान से मिट्टी लेकर गांव की ओर वापस आते हैं.
गांव वापस आने के बाद मिट्टी को सभी लोग गीला करते हैं और उस गीली मिट्टी से शिव-पार्वती की मूर्ति बनाते हैं. शिव हैं गऊरा और उनकी सवारी बैल है. इसी तरह पार्वती यानी गऊरी की सवारी कछुए की है. ये मूर्तियां बनाने के बाद लकड़ी के पिड़हे पर उन्हें रखकर सजाया जाता है. लकड़ी की एक पिड़हे पर बैल पर गऊरा और दूसरे पिड़हे पर कछुए पर गऊरी. पिड़हे के चारों कोनों में चार खम्भे लगाकर उसमें दिया बत्ती लगायी जाती है.
लक्ष्मी पूजा के बाद आधी रात बारह बजे से गऊरा-गऊरी की झांकी पूरे गांव में घूमती रहती है. घूमते वक्त दो कुंवारे लड़के या लड़की गऊरा-गऊरी के पिड़हे सर पर रखकर चलते हैं और आसपास गऊरा-गऊरी का गीत आरंभ हो जाता है.
गाते हुए, नाचते हुए लोग झांकी के आसपास मंडराते हुए पूरे गांव की परिक्रमा करते हैं. कुछ पुरुष एवं महिलाएं इतने जोश के साथ नाचती हैं कि वे अलग नजर आने लगते हैं. लोगों की मान्यता है कि उस वक्त देव-देवी उन पर सवार होते हैं.
गऊरा लोक गीत सिर्फ महिलाएं ही गाती हैं और पुरुष दमऊ, सींग बाजा, ठोल, गुदुम, मोहरी, मंजीरा, झुमका, दफड़ा, ट्रासक बजाते हैं. छत्तीसगढ़ के लोग इसे गंडवा बाजा कहते हैं क्योंकि ज्यादातर इन वाद्यों को गांडा जाति के लोग ही बजाते हैं.
इस उत्सव के पहले जो पूजा होती है, वह बैगा जाति के लोग करते हैं. इस पूजा को चावल चढ़ाना कहते हैं क्योंकि गीत गाते हुए गऊरा-गऊरी को चावल चढ़ाया जाता है. इसी तरह गीत गाते हुए, नाचते हुए पूरे गांव में रात भर परिक्रमा करते हैं. आज भी छत्तीसगढ़ के गांवों में दिल को छू लेने वाली यह प्रथा कायम है.