गैस सब्सिडी;हंगामा है क्यों बरपा!!
बादल सरोज
रसोई गैस की सब्सिडी की समाप्ति के पहले चरण के उसे स्वैच्छिक रूप से त्यागने के बड़े दिलचस्प उदाहरण पढ़ने में आये हैं. पखवाड़े भर पहले पता चला कि बड़े अम्बानी ने गैस सिलेंडर की सब्सिडी छोड़ने की पेशकश की है. छोटे अम्बानी के बारे में अभी खबर नहीं आई है. मगर राहुल बजाज और उनके दोनों बेटों ने भी छोड़ दी है. अब तक की सूचनाओं के मुताबिक़ कोई 3 लाख ने मोदी सरकार के इस स्वैच्छिक निवृत्ति आव्हान का पालन किया है. कुल 15 करोड़ 30 लाख गैसधारकों की तुलना में यह संख्या नगण्य है, हालांकि सरकारी अनुमान है कि कम से कम 1 करोड़ तो उसकी अपील मानेंगे.
कई बार लिखे हुए से अधिक उसके अन्तर्निहित मायने महत्वपूर्ण होते हैं. गैस सब्सिडी इसी तरह का प्रसंग है जो दिखने में मासूम लगता है, किन्तु वह जिस प्रक्रिया -सब्सिडी राज के खात्मे – का आगाज़ है वह अत्यंत दूरगामी और गुणात्मक प्रभाव वाली है.
सब्सिडी न तो दान है न खैरात. इसका सामाजिक विकास की स्थिति और उसमे राज की भूमिका के साथ रिश्ता है. जिन्हें भ्रम है कि यह भारत की अनूठी, अनोखी फिजूलखर्ची है, वे अति विकसित देशों पर निगाह डाल लें. अमरीका अपनी चौथाई आबादी को मुफ़्त खाद्य कूपन्स देता है. दुनिया के सारे देश रसोई गैस सहित पेट्रोलियम उत्पादों को अत्यंत घटी दरों पर उपलब्ध कराते हैं. अमरीका में ही गौपालकों को 3 डॉलर (करीब 150 रू) प्रति गाय प्रति दिन की सब्सिडी दी जाती है.
फिर भारत में इतना हंगामा है क्यूँ बरपा? थोड़ी सी जो देदी है !!
इसके लिये डब्लूटीओ और उसके पूर्वाधार डंकल समझौते की शर्तों का पारायण जरूरी है. पूरी दुनिया को अपने मुक्त बाजार में बदलने और अपार मुनाफ़ा कमाने के लिए जरूरी है कि सब कुछ बाजार के लिए छोड़ दिया जाए. पानी भी और मुमकिन हो तो हवा भी. फकत 20-22 हजार करोड़ की गैस सब्सिडी को लेकर इतना शोर तो इब्तिदाये इश्क़ भर है. आत्महत्या करने वाले किसानो के समाधि लेखों पर लिखी इबारत से उजागर है कि आगे आगे देखिये होता है क्या.
सब्सिडी- चाहे वह गैस की हो या भैंस की, कृषि की हो या खाद्यान्न की- के खात्मे का सोच गलत राजनीति ही नहीं, नितांत गलत अर्थशास्त्र भी है. जो सरकार कारपोरेट का टैक्स 30 से घटाकर 25% कर सकती है. 4 साल में इने-गिने कारपोरेट घरानों पर बकाया 29.52 लाख करोड़ रुपये का राजस्व छोड़ सकती है. वह इनकी तुलना में गणितीय चूक से भी कम राशि के पीछे इतने उन्माद में क्यों हैं. इसलिए कि धनकुबेरों को दी गयी इन भेंटों की पूर्ति आम लोगों से वसूली करके जो की जानी है.
जैसे जून 2014 से विश्व बाजार में तेल के दाम 55 % कम हुए मगर इसी बीच आयातित तेल पर एक्साइज ड्यूटी 4 गुना कर दी गयी. भले इस तरह वे कुछ अपने खजाने को भर रहे हों मगर ऐसा करके वे खुद अपने बाजार को ही सिकोड़कर मन्दी को न्यौता दे रहे होते हैं. अगर बहुत ही सरल गणित से देखें तो सब्सिडी का अर्थ है नागरिक के पास उतने पैसे का दूसरी इस्तेमाल की वस्तुओं के खरीदने में खर्च होने के लिए बच जाना. मतलब बाजार की खरीदारी का बढ़ना. उदाहरणतः एसोचेम के मुताबिक़ 65 फीसद भारतीय इन दिनों अपनी आमदनी का आधा पैसा अपने बच्चों की शिक्षा पर व्यय कर रहे हैं !! यदि यह राशि बच जाए, शिक्षा मुफ़्त हो जाए तो मन्दी का नामोनिशां मिट जायेगा.
जिस देश में 80 फीसद ग्रामीण आबादी 50 रूपये प्रति दिन पर गुजर कर रहे हैं, जहां मजदूर की औसत आमदनी 1990-91 के 108 रुपये से घटकर 2010-11 में 103 रुपये रह गयी हो. वहां सरकार की भूमिका कम करने की नहीं बढ़ाने की जरूरत है. जो ऐसा करना भूल जाते हैं और गरीबी के फैलते रेगिस्तान में कैक्टस की तरह उग रहे फ़ोर्ब्स की सूची में दर्ज 100-200 डॉलर अरबपतियों को ही नखलिस्तान मान बैठते हैं, वे ऐसी मृगमरीचिका में उलझ जाते हैं जिससे बाहर निकलने का रास्ता नहीं है.
भारत में सब्सिडी हमेशा क्रॉस सब्सिडी रही है. पूँजी के बांधों से निर्धनता के सूखे खेतों की सिंचाई की समझदारी. यह तब तक प्रासंगिक है जब तक असमानता कायम है. 14 साल पहले भारत की ऊपरी 1 फीसदी आबादी के पास देश की कुल 36 फीसद संपत्ति थी जो अब बढ़कर 49 प्रतिशत हो चुकी है. जरूरत इस पिरामिड की स्थिति को दुरुस्त करने की है, इसे और बेढब बनाने की नहीं !!
इसके लिए किसी कार्ल मार्क्स या चार्वाक को पढ़ने का झंझट लेने की बजाय अगर वे सिर्फ कीन्स या शुक्राचार्य को ही पढ़ लें तो भी गनीमत है.
मगर विश्व-बैंक के नुस्खों को – जिनके नतीजे ग्रीस भुगत रहा है- को रामबाण और वेदवाक्य मानने वाले हुक्काम इस सामान्य गणित को समझेंगे ऐसी उम्मीद कम है, क्योंकि दोनों बड़ी टीमों के खेल का मैदान एक ही है. उनके प्रायोजक भी एक समान हैं.