..जब गांधीजी रेडियो पर बोले
नई दिल्ली | एजेंसी: महात्मा गांधी ने अपने लंबे सार्वजनिक जीवन में लिखने और बोलने का काम बड़े पैमाने पर किया था. संपूर्ण गांधी वांग्मय के लगभग 100 खंड उनके लेखन, उद्बोधन और चिंतन की गहराई के उदाहरण हैं. गांधीजी जो लिखते या जो बोलते वह कितनी तेजी से पूरे भारत में फैल जाता और उसका किस-किस पर कैसा-कैसा असर पहुंचता, इसे भी हम सब अच्छी तरह जानते हैं. उनका लिखा जनलेखन बन जाता और उनकी वाणी जन-जन की वाणी बन जाती.
लेकिन 12 नवंबर 1947 को गांधीजी ने अपने लिखने और बोलने के दो सशक्त माध्यमों के अलावा एक तीसरे माध्यम का पहली बार उपयोग किया था और वह था आकाशवाणी से प्रसारण. इससे पहले उन्होंने कभी भी इस माध्यम का प्रयोग नहीं किया था, और इसके बाद भी उन्होंने अपने जीवन में दोबारा इस माध्यम का उपयोग नहीं किया.
यह प्रसंग इसलिए उपस्थित हुआ कि विभाजन के शरणार्थी कुरुक्षेत्र में आ रहे थे और उनकी संख्या लगातार बढ़ रही थी. गांधीजी उनसे कुरुक्षेत्र जाकर ही मिलना चाहते थे. लेकिन किसी कारण से वहां नहीं जा सकते थे. तब उन्हें घनश्यामदास बिड़ला ने सुझाव दिया था कि आप क्यों नहीं रेडियो का उपयोग करते हैं. गांधीजी ने उनका सुझाव मानकर अपने जीवन में पहली और आखिरी बार आकाशवाणी भवन से रेडियो का उपयोग देश की जनता को संबोधित करने के लिए किया था.
इस संदेश में उन्होंने प्रारंभ में ही कहा था कि उन्हें यह माध्यम अच्छा नहीं लगता. इसलिए उन्होंने रेडियो का उपयोग इससे पहले करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी. प्रसारण के प्रारंभ में उन्होंने अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहा था कि दुखियों के साथ दुख उठाना और उनके दुखों को दूर करना ही मेरे जीवन का काम रहा है. इसलिए गांधीजी को दूर बैठकर रेडियो पर भाषण देकर, अपनों के दुख में शामिल होना ठीक नहीं लगा था. उन्होंने इस माध्यम में यह कमी देखी थी.
फिर भी उन्होंने इसी माध्यम का उपयोग किया और इस तरह पहली बार प्रसारण की तकनीक को सीधे समाज के दुख-सुख से जोड़ दिया था. 12 नवंबर, 1947 के दिन दीपावली भी थी. एक तरफ खुशी का पर्व था तो दूसरी तरफ समाज के सामने विभाजन का दुख भी.
12 नवंबर की तिथि एक और घटना के लिए महत्वपूर्ण है. देश की पहली रेडियो उद्घोषक स्वतंत्रता सेनानी उषा मेहता को 1942 में इसी दिन ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ रेडियो प्रसारण के लिए गिरफ्तार कर लिया गया था. देश के इस प्रथम रेडियो की शुरुआत डॉ. राममनोहर लोहिया की प्रेरणा से विट्ठलभाई झवेरी ने की थी. इसका संचालन उषा मेहता करती थीं.
बहरहाल, सन् 1997 में गांधीजी के इस ऐतिहासिक प्रसारण के पचास वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में दिल्ली की जन प्रसार नामक संस्था ने इस दिवस को जन प्रसारण दिवस की तरह मनाना प्रारंभ किया. इसके बाद आकाशवाणी ने भी इस दिन के महत्व को स्वीकार किया. तब से प्रतिवर्ष दिल्ली में आकाशवाणी अपने प्रांगण में एक सादगी भरा, किंतु भव्य आयोजन करती है.
इसलिए हमें इस आयोजन का ठीक संदर्भ भी समझ लेना चाहिए. आज 24 घंटे रेडियो चलता है, दूरदर्शन चलता है, टीवी, एफएम चलते हैं और हिंदी व अंग्रेजी के अलावा अनेक भारतीय भाषाओं में निजी कंपनियों के चैनल भी हैं. इनमें 24 घंटे समाचार, राजनीति, खेल, फिल्म, घटना, दुर्घटना, फूहड़ मनोरंजन, नाच-गाना श्रोताओं एवं दर्शकों को परोसा जाता है और इसमें सबसे प्रधान होता है विज्ञापन यानी बाजार.
उदारीकरण के इस ताजा दूसरे दौर में यह प्रवृत्ति प्रसारण के इन माध्यमों पर और तेजी से पकड़ बढ़ाएगी. यह प्रवृत्ति समाज के दुख को भी एक खबर की तरह परोसती है. उसमें भी यह श्रेय लेती है कि इस खबर को आप तक हम सबसे पहले पहुंचा रहे हैं और बड़ी से बड़ी दुखद घटना के बीच में, पहले और उसके बाद तरह-तरह के विज्ञापन भी दिखाए जाते हैं.
जिनका सब लुट गया हो, उनकी खबरों के बीच ऐयाशी के सामान का विज्ञापन जले पर नमक की तरह छिड़का जाता है. स्वायत्त माने गए प्रसार भारती जैसे संगठन भी बाजार के दबाव के अलावा सत्तारूढ़ शासक दल के दबाव में काम करते हैं और प्राय: समाज के सुख-दुख को सामने रखने के बदले सरकार के गुणगान में व्यस्त रहते हैं.
ऐसी विचित्र स्थिति में यह बताना आवश्यक नहीं है कि गांधीजी से जुड़ा यह पावन प्रसंग, यह लोक प्रसारण दिवस हमें किस ढंग से मनाना होगा, कौन-कौन सी चिंताएं समाज के सामने रखनी होंगी. हम सब इस काम में अपनी शक्ति लगाएं तो हमें पूरा भरोसा है कि लगातार जनविरोधी होते जा रहे प्रसारणों का स्वरूप थोड़ा और बेहतर बन सकेगा.