मशीनी यूरोपीय सभ्यता और गांधी
कनक तिवारी | फेसबुक: पश्चिम की आधुनिक सभ्यता, पूंजीवाद, मशीनीकरण, कॉरपोरेट दुनिया और साम्राज्यवाद में उन्नीसवीं सदी के योगदान से एक समीकरण समय की स्लेट पर लिखा जा रहा था. उसे पढ़ पाने में दुनिया के और इसलिए भारत के भी अधिकतर बुद्धिजीवी असफल हो रहे थे. कुछ शलाका पुरुष जरूर थे. वे आने वाले वक्त की इबारत को अपनी तटस्थ लेकिन मनुष्य के प्रति पारखी निगाहों से पढ़ने में काबिल सिद्ध हो चुके हैं.
आधुनिकता का अर्थ सभी पुरानी परिपाटियों को खारिज करने का तेजाब अपने तर्कों में भरकर लाया था. मसलन वह खेती को खेती नहीं रहने देना चाहता था. उसे कृषि उद्योग के रूप में बदलने, पनपने और समझने की जिद लिए हुए था. उद्योगों के कारण मशीनों का आविष्कार होना लाजिमी था. मनुष्यमूलक सिद्धांतों को खोजने के साथ साथ मशीनों का मनुष्य के खिलाफ उद्योगों के लिए इस्तेमाल शुरू हुआ. ऐसी बदली हुई हालत में पूंजी ने पारंपरिक कलाओं को रुखसत करना शुरू किया.
पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का चोली दामन का साथ होना डंके की चोट पर था. मनुष्य को आधुनिक विज्ञान की नजर से संपन्न बनाने का औद्योगिक प्रयोजन ऊपरी तौर पर मासूम लगता था. किसी फोटो के निगेटिव की तरह उसका अंदरूनी चेहरा बहुत भयानक, वीभत्स और डरावना था. मशीन, पूंजी, साम्राज्यवादिता, औद्योगिक लाभ के पूरे गठजोड़ में इंसानी संवेदना का जीवित होना संभव ही नहीं था. औद्योगिक प्रगति को मनुष्य और देशों के विकास का बैरोमीटर समझते पूंजीवादी जेहादी उन सभी स्थापनाओं को खारिज कर रहे थे जिनका इंसानी जगत के कलात्मक सौंदर्य और सांस्कृतिक अभिरुचियों से परिणामधर्मी रिश्ता था.
गांधी आधुनिक सभ्यता को यूरोपीय और मशीनी सभ्यता का समानार्थी बना रहे थे. तब उनमें एक बौद्धिक विचारक का चेहरा इतिहास तराश नहीं पाया था. वे उससे आगे बढ़कर भारत की आजादी की लड़ाई के लिए और उससे भी पहले दक्षिण अफ्रीकी अश्वेतों के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर रहे थे.
सत्य को पहचानते और उसे आत्मसात कर दैनिक व्यवहार में ढालने का आग्रह करते गांधी नीतिशास्त्र के कई बीजक आसानी से साथ साथ गढ़ते जाते हैं. उनका फतवा है कि नैतिक हुए बिना राजनीतिक नहीं हुआ जा सकता. वे नीतियों और नियमों के लिए निजी और सामाजिक जोखिम और जिल्लत तक उठाने के लिए तैयार रहते हैं. उन्होंने एक अध्यवसायी विद्यार्थी के रूप में इंग्लैड में बहुत कुछ पढ़ा. छात्र जीवन और बाद का वह संचित ज्ञान भी गांधी के वृहत्तर होते व्यक्तित्व के गाढ़े वक्त काम आया.
गांधी भारत की भूगोल तक फैले थे. उनकी पारस्परिक लगती कशिश में फिर भी दुनिया के भविष्य को बनाने का लक्षण कसमसाता दिखाई देता है. वे किसी लोकप्रिय राजनेता की तरह नारे लगाने में सिद्धहस्त नहीं थे. राजनीति भी उनके लिए सच को पाने का एक साधन रही है. वे उससे ऊबते भी थे.
फिर नैतिकता के सिद्धांतों की सरहद पर जाकर उन नेताओं को निमंत्रित करना जानते थे जो पश्चिम की आधुनिक मशीनी सभ्यता के खिलाफ नहीं थे. उनका और जवाहरलाल नेहरू का देश और दुनिया को समझने और भारत को बनाने को लेकर मतभेद था. वह बीसवीं सदी के बाद के भारत के लिए कई नए प्रस्थान बिंदु रेखांकित करता है.
यह आकलन एक अक्षम्य अर्द्धसत्य है कि गांधी में पश्चिमी ज्ञानोदय से उपजे राजनीतिक बोध को लेकर संदेह और अविश्वास था. यूरोप में राजनीति राज्य और चर्च को अलग करके व्यावहारिक नियामक मूल्यों को स्थिर कर रही थी. वह पूरी गवेषणा गांधी के लिए अनबूझ पहेली बनी थी. गांधी उस विसंगत आधुनिकता की गहरी खाइयों में जाकर उसकी कंटीली सफलता के फैलाव का इंग्लैंड और भारत सहित पूरे विश्व के लिए तिरस्कार करते हैं. यूरोप के नए ज्ञानोदय में व्यक्ति-केन्द्रित विनाश के अनियंत्रित और जोखिम भरे आयाम उन्हें दिखाई देते हैं.
वैज्ञानिकता के लिहाफ में लिपटी औद्योगिक दुनिया के लाभ के समीकरण से जूझते गांधी पूंजीवाद की भयावह रूप से व्याप्त हो रही खूंरेजी से रूबरू होकर खौफजदा भी होते हैं. उनका ऐलान है कि हर नैष्ठिक चिंतक के लिए इसका विरोध करना ईमानदार काम है. यूरोप ऐलान करता है (वही अब भारत में संविधान भी कोशिश कर रहा है) कि मनुष्य के नागरिक बन जाने से उसे बेहतर हो गया समझा जाना चाहिए. संविधान और प्रशासन से उपजी नागरिकता की ऐसी सभी अन्वेषित शर्तों और परिस्थितियों को गांधी खारिज करते हैं.
राजनीति, अध्यात्म और गांधी पारद मिश्रण की तरह हैं. भारतीय लोकजीवन और गांधी के पारद मिश्रण से अध्यात्म और आन्दोलनों दोनों को अलग करना नामुमकिन है. दक्षिणपंथी विचारकों और धुर वामपंथियों को बुरा लग सकता है. सच लेकिन यही है कि बीसवीं सदी की भारतीय राजनीति को बल्कि सामाजिक जीवन को समझने के लिए गांधी के जीवन विश्वविद्यालय की आध्यात्मिक उपलब्धियों को तटस्थ होकर बार बार पढ़ना होगा.
कई पश्चिमी विचारकों ने उनको गैर-राजनीतिक व्यक्ति करार दिया है. यह एक सतही मूल्यांकन है. ऐसा फतवानुमा तर्क यह भी है कि गांधी केवल साधु पुरुष थे. वे अपनी साधुता की व्याख्या की समीक्षा कराने के लिए राजनीति के बियाबान में स्वेच्छा से आकर संभावनाएं तलाश रहे थे. वे दरअसल कोई नया या निजी रास्ता नहीं बना रहे थे जिससे करोड़ों पथिकों को कोई राह दीखे.
गांधी के पक्ष में कहते हुए यह भी कहना चाहिए कि ऐसा नहीं है कि गांधी ने कभी गलतियां नहीं कीं. ऐसा भी है कि कई बार गांधी को समझाया गया. फिर भी वे नहीं माने. उन्होंने जानबूझकर या जिद में भी गलतियां की होंगी. उनकी गलतियों से देश और आंदोलनों का नुकसान भी हुआ होगा. उनके लिखे, बोले गए विपुल साहित्य में ही गांधी को समझने के बाल प्राइमर से लेकर शोध प्रबंध तक शामिल हैं. कोई पढ़े तो उनको.
महात्मा गांधी एक सजग और सावधान समकालीन उपस्थिति रहे हैं. उनका दिमागी सत्य उनके हर संघर्ष में कूद जाने से अपने आप बुराइयों के खिलाफ तेजाब की तरह झरता था. कई बार वे किसी संदर्भ में कुछ कह जाते थे. तब यह भी लगता था वे किसी पूर्व कथन की उलटबांसी कर रहे हैं या मौजूदा गलतबयानी कर रहे हैं.