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न्याय का गला घोंटना

अदालतों की कार्यवाही से मीडिया को दूर रखने से न्यायपालिका में लोगों का भरोसा कम होगा. भारत की न्याय व्यवस्था में खुले न्याय की खास अहमियत रही है. सैद्धांतिक तौर पर अदालतों की कार्यवाही को कोई भी देख सकता है. मीडिया को भी देखकर रिपोर्टिंग की आजादी है. लेकिन व्यवहार में देखा जाए तो अदालतों में आम लोगों के लिए जगह नहीं होती और उनके आने को भी नियंत्रित रखा जाता है. ऐसे में लोगों को मीडिया पर अदालती कार्यवाही के लिए निर्भर रहना पड़ता है. जो केस जितना बड़ा होता है, उसमें आम लोगों की दिलचस्पी उतनी अधिक होती है. इससे अदालत पर भी ठीक से काम करने का दबाव रहता है. अदालती निर्णय चाहे भी हो लेकिन जनता का न्यायपालिका पर विश्वास इस बात पर निर्भर करता है कि प्रक्रिया का पालन ठीक ढंग से हुआ या नहीं.

लेकिन चिंता की बात यह है कि इस प्रक्रिया का खुद अदालतों द्वारा बार-बार उल्लंघन किया जा रहा है. हाल ही में अदालत ने दो मामलों की मीडिया कवरेज पर रोक लगा दी. इसमें पहला मामला सोहराबुद्दीन शेख की हत्या के आरोप में कुछ पुलिसकर्मियों पर चल रहे मुकदमे का है. दूसरा मामला उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से जुड़ा हुआ है. उन पर यह मुकदमा नफरत फैलाने वाला भाषण देने से संबंधित है. दोनों हाई प्रोफाइल मामले हैं और दोनों में लोगों की खासी दिलचस्पी है.

दोनों मामलों में रोक लगाने का आदेश दो अलग परिस्थितियों में आया. सोहराबुद्दीन मामले में मुंबई की सीबीआई कोर्ट ने यह कहते हुए मीडिया कवरेज पर रोक लगाई कि इससे दोनों पक्षों के गवाह, आरोपित और वकील प्रभावित हो सकते हैं. मीडिया के लोगों को कार्यवाही में हिस्सा लेने की अनुमति तो होगी लेकिन वे इसकी रिपोर्टिंग ट्रायल पूरा होने के बाद ही कर सकते हैं. बचाव पक्ष द्वारा हाथ से लिखे एक आवेदन के अलावा अन्य किसी बात की जानकारी नहीं है जिसके आधार पर अदालत ने यह निष्कर्ष निकाला.

दूसरी तरफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त महाधिवक्ता के अनुरोध पर मामले की रिपोर्टिंग पर रोक लगाने का निर्णय लिया. अतिरिक्त महाधिवक्ता ने कहा था कि मामले की गलत रिपोर्टिंग हो रही है. इस पर अदालत ने आदेश दिया कि मामले में जब तक निर्णय नहीं हो जाता तब तक इसकी रिपोर्टिंग नहीं होगी. गलत रिपोर्टिंग के निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए न तो किसी खबर का हवाला दिया गया और न ही किसी पत्रकार का.

इन दोनों ही मामले में अदालतों ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा सहारा इंडिया रियल एस्टेट काॅरपोरेशन लिमिटेड बनाम सेबी मामले में दिए गए निर्णय की अवहेलना की है. इस मामले में संविधान पीठ ने कहा था कि ऐसे आदेश जारी करते वक्त इसकी जरूरत को समझना बेहद जरूरी है. आदेश देने से पहले अदालतों को खुद को इस बात के लिए आश्वस्त कर लेना चाहिए कि ट्रायल ठीक से चलाने के लिए दूसरा कोई विकल्प नहीं बचा और रिपोर्टिंग रोकना ही एकमात्र विकल्प है. लेकिन इन दोनों मामलों में इस शर्त का पालन नहीं किया गया.

मीडिया का गला घोंटने वाले इन आदेशों के लिए इन दोनों न्यायालयों को पूरी तरह जिम्मेदार ठहराना गलत होगा. ऐसे आदेशों की शुरुआत खुद सर्वोच्च अदालत ने की है. उज्जैन महाकालेश्वर मंदिर की पूजन विधि से संबंधित मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने मौखिक तौर पर पत्रकारों को इस केस की कार्यवाही की रिपोर्टिंग नहीं करने को कहा था. इस निर्णय की गलत व्याख्या हुई. जज सीएस कर्णन के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया को उनके बयानों के कवरेज से रोका था. इसका भी कोई ठोस आधार नहीं था और देश की सबसे बड़ी अदालत ने बगैर किसी ठोस आधार के यह आदेश जारी कर दिया था.

सहारा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि प्रेस की स्वतंत्रता और न्याय देने की प्रक्रिया में संतुलन बनाना आसान काम नहीं है. लेकिन हाल में जिस तरह से मीडिया का गला घोंटने की कोशिश हुई है उसका नकारात्मक असर प्रेस की स्वतंत्रता और न्याय प्रक्रिया दोनों पर पड़ेगा. हाई प्रोफाइल मामलों में इस तरह का आदेश देने से आम लोगों के मन में इन आदेशों के पीछे की नीयत को लेकर संदेह पैदा होगा. न्यायपालिका में लोगों का विश्वास काफी हद तक न्याय देने की प्रक्रिया पर निर्भर करता है. इतने हाई प्रोफाइल मामलों में मीडिया रिपोर्टिंग पर रोक लगाकर अदालतें न सिर्फ अभिव्यक्ति के अधिकार को नुकसान पहुंचा रही हैं बल्कि न्यायपालिका में लोगों में भरोसे को भी कमजोर कर रही हैं.
1960 से प्रकाशित इकॉनामिक एंड पॉलिटिकल विकली के नये अंक का संपादकीय

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