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डीबीटी से बढ़ेगा कुपोषण

केंद्र की कई सरकारों ने रियायती खाद्य योजनाओं की जगह प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण यानी डीबीटी लागू करने की कोशिशें की हैं. 2016-17 की आर्थिक समीक्षा में ऐसी बात की गई है. हाल ही में नीति आयोग ने ऐसी सलाह दी है. एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम के तहत राशन की जगह पैसे देने की सलाह आयोग ने दी है. महिला एवं बाल विकास मंत्रालय इस सलाह पर अमल करने को तैयार दिख रहा है. मंत्रालय की योजना है कि शुरुआत में इसे कुपोषण प्रभावित कुछ जिलों में लागू किया जाए और साल भर बाद पूरे देश में.

मौजूदा सरकार जन धन-आधार-मोबाइल के जरिए नगदी हस्तांतरण के जरिए गरीबी दूर करना चाहती है. कुल आबादी के 67 फीसदी हिस्से को जिस सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत अनाज मिलता है, उसमें भी इसे लागू करने की कोशिश की जा रही है. केंद्र सरकार ने राज्यों को इसी माॅडल पर आगे बढ़ने को कहा है. तीन केंद्र शासित प्रदेशों पुडुचेरी, चंडीगढ़ और दादर नगर हवेली में इसे प्रायोगिक स्तर पर लागू किया जा रहा है. सीधे पैसे देने के पक्ष में लीकेज, खाद्यान्न का खराब स्तर और भ्रष्टाचार को वजह बताया जाता है. हालांकि, इस बात के काफी प्रमाण हैं कि राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ किया जाने वाला प्रशासनिक सुधार इन समस्याओं को दूर कर सकता है.

समीक्षा में ही कहा गया है कि 2004-05 के मुकाबले 2011-12 में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत घरेलू खरीद 117 फीसदी बढ़ गई. इसका मतलब यह हुआ कि पीडीएस का कवरेज सुधरा. इस बीच लीकेज 54 फीसदी से घटकर 35 फीसदी रह गया. इसके 2016 में 20.8 फीसदी रहने की उम्मीद जताई गई. जहां अनाज के जगह पैसे देने की बात हो रही है, वहां भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि पैसे लोगों के हाथ में पहुंच ही जाएं. नीति आयोग के एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि 35 प्रतिशत लाभार्थियों के खाते में पैसा नहीं पहुंच पा रहा है.

आईसीडीएस के तहत गर्भवती मां और नवजात बच्चे को 45 महीने में कुल 7,125 रुपये की मदद मिल सकती है. महीने का 158 रुपये हुआ. यह 2011-12 की कीमतों पर तय किया गया है और इसे संशोधित नहीं किया गया. नीति आयोग ने इसे उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से जोड़कर छह महीने से 72 महीने के बच्चे के लिए हर रोज 8 रुपये और गर्भवती व स्तनपान कराने वाली महिलाओं को हर रोज 9.5 रुपये का प्रावधान करने की सिफारिश की है. लेकिन यह रकम तब पूरी पड़ेगी जब सुविधा सरकार से रियायती कीमतों पर मिले. लेकिन अगर बाजार से सामान लेना पड़े तब तो यह रकम बिल्कुल अपर्याप्त है. प्रत्यक्ष नगद हस्तांतरण से संबंधित बैंक शाखा पर भी बोझ बढ़ता है.

आईसीडीएस के तहत अधिकांश राज्यों में गर्मागर्म खाना मिलता है. कई राज्यों ने इस काम में महिला मंडल और महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों को जोड़ा है. लेकिन फिर भी इस व्यवस्था में काफी भ्रष्टाचार है. 2004 में भ्रष्टाचार के आधार पर ही आईसीडीएस में निजी ठेकेदारों द्वारा आपूर्ति को प्रतिबंधित कर दिया था.

इसके बावजूद कई राज्यों में निजी ठेकेदारों को बनाए रखा गया है. पीडीएस की तरह आईसीडीएस में भी राजनीति और प्रशासनिक सजगता की जरूरत है.

ऐसे में देश में जहां हर तीसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है, कोई भी फैसला जल्दबाजी में नहीं लेना चाहिए. क्योंकि इससे बच्चों की पोषण जरूरतों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा. राष्ट्रीय पोषण मिशन के शुरू होने के बाद आईसीडीएस को और मजबूत करने की जरूरत है. नगदी से कभी यह सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है कि जरूरतमंद बच्चों तक खाना पहुंच जाए. इस सच्चाई को समझ कर ही भविष्य की नीति बनाई जानी चाहिए.
1960 से प्रकाशित इकॉनामिक एंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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