बुला रहा रेत का लोकसंगीत
जयपुर | एजेसी: पर्यटन के लिहाज से लगभग अछूते राजस्थान के मरुस्थलीय जिले बाड़मेर में ग्रामीण पर्यटन की व्यापक संभावनाएं हैं. यहां का हस्तशिल्प, संस्कृति, परंपरागत खान-पान और रेत का लोकसंगीत के स्वर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को जहां संबल प्रदान कर सकते हैं, वहीं लोगों को मनोरम दृश्य लहरियों का आनंद दे सकती हैं.
पानी की कमी, यातायात के साधनों का अभाव एवं कठोर जीवनशैली के चलते तीन चार दशक पहले भले ही इस क्षेत्र की ओर कोई झांकता तक नहीं था, लेकिन हाल के वर्षो में बिजली, कोयला, पेट्रोलियम संसाधनों की उपलब्धता तथा सौर एवं पवन ऊर्जा ने यहां का कायाकल्प कर दिया है. पानी का संकट भी पहले जैसा अब नहीं है. बालू रेत के सुनहरे टीलों पर जैसलमेर एवं बीकानेर के साथ-साथ बाड़मेर में भी आनंद लिया जा सकता है.
गर्मियों के मौसम में यह स्थान पर्यटन के लिये भले ही आादकारी न हो, लेकिन सर्दियों की छुट्टियां एवं नववर्ष के स्वागत के लिहाज से यह जगह अतिउत्तम कही जा सकती है. दिसंबर में पड़ोसी जिले जैसलमेर में पर्यटकों की भरमार रहती है. विदेशी एवं देशी पर्यटक नया साल मनाने यहां आते हैं. इसके चलते होटलों में ठहरना महंगा हो जाता है.
वहां रेस्तरां में ढंग का खाना भी नहीं मिलता तथा पर्याप्त सुविधाएं भी मुहैया नहीं हो पाती. ऐसे में पर्यटक बाड़मेर में राष्ट्रीय राजमार्ग 15 के समीप हाथीतला में ठहर सकते हैं और रेत के टीलों का आनंद उठा सकते हैं.
लोकसंगीत और नृत्य : देश विदेश में थार के संगीत को प्रसिद्धि दिलाने वाले यहां के लंगा मंगणियार अपनी कला का जादू बिखेर गृह जिले को पर्यटन के मानचित्र पर बखूबी स्थापित करने में सक्षम हैं. कमायचा, रावण हत्था, खड़ताल, मोरचंग जैसे अनेक वाद्ययंत्रों में महारथ प्राप्त कलाकार सुनहरी रेत पर अपने संगीत की स्वरलहरियां बिखेरते हैं, तो अनायास हर किसी के मुंह से वाह-वाह निकल पड़ता है. ऐसा ही आकर्षण भवाई, गेर, तेरहताली नृत्य अपने आप में समेटे हुए हैं, जो दर्शकों को दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर कर देते हैं.
देसी खान-पान : ब्रेकफास्ट, लंच एवं डिनर के लिए जैविक उत्पादों से तैयार खाद्य पदार्थो की यहां कोई कमी नहीं है. यहां के पानी में पकने वाली मूंग की दाल, केर-सांगरी, देसी ग्वारफली, कुमटिया एवं काचरे को मिलाकर तैयार पंचकूटे की सब्जी, देसी बाजरे के खिचड़े का लजीज स्वाद अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा. यदि पर्यटकों की संख्या बढ़ेगी, तो प्राय: लुप्त हो रही देसी बाजरी का बीज भी बच जाएगा.
उल्लेखनीय है कि संकर बाजरे के मुकाबले देसी बाजरी वजन में हल्की होने से प्रति हेक्टेयर उत्पादन कम होने के कारण किसान खुद के खाने के लिए ही इसका उत्पादन करते हैं, जबकि बाजार में बेचने के लिए संकर बाजरे की पैदावार करते हैं. सही मायने में स्वर्णिम रंग वाली देसी बाजरी ही स्वादिष्ट होती है.
हस्तशिल्प : बरसों पूर्व यहां की महिलाएं खाली समय गुजारने के लिए कशीदाकारी और कपड़े पर बंधेज का काम करती थीं. वह आज शहरी एवं ग्रामीण महिलाओं का रोजगार बन गया है. फैशनेबल कांच कशीदा, कुशन कवर, पैचवर्क युक्त बेडशीट की संपन्न लोगों में भारी मांग है. जिले में इस काम में महिला स्वयं सहायता समूह अच्छा कार्य कर रही हैं. जिले के चैहटन, धोरीमना एवं सीमावर्ती छोटे-छोटे गांवों में महिलाएं कपड़े पर कांच लगाकर उत्कृष्ट कला का प्रदर्शन करती हैं.
यहां का नेहरू युवा केंद्र भी कलाकारों एवं शिल्पकारों को आगे लाने में पूरा सहयोग कर रहा है. यहां के कारीगरों की हाथ की छपाई अजरख, मलीर, घाबू, घोणसार आदि आज संपूर्ण देश में बाड़मेर प्रिंट के नाम से प्रसिद्ध है. ऊंट एवं भेड़ों की ऊन से निर्मित दरी, जिरोई, कालीन, शॉल, पट्टू का कोई मुकाबला नहीं. पर्यटकों की आवाजाही से हस्तशिप को बढ़ावा मिल रहा है.
पुरातत्व : इतिहास में रुचि रखने वाले पर्यटकों के लिए बाड़मेर जिला मुख्यालय से 40 किलोमीटर दूर 12वीं शताब्दी में निर्मित जूना व किराडू के मंदिर हैं. हालांकि यह मंदिर जीर्ण अवस्था में है, लेकिन खंभों, दीवारों एवं मेहराबों पर उकेरी मूर्तियां बुलंदी की गाथा स्वयं बयां करती हैं.
बाड़मेर से करीब 90 किलोमीटर दूर देवका में पीले एवं लाल पत्थरों से निर्मित सूर्य मंदिर शानदार नक्काशी और वास्तु कला का अद्भुत नमूना है, जिसके गर्भगृह में उगते सूर्य की पहली किरण पड़ती है. यह खगोलीय ज्ञान का सुंदर उदाहरण है.
आवागमन के लिए दिल्ली से जोधपुर होते हुए एवं गुजरात की ओर से राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 15 से बाड़मेर पहुंचा जा सकता है. शहर में एक दर्जन अच्छे होटल भी हैं. इनमें दो तीन में तीनसितारा होटलों जैसी सुविधाएं भी हैं. कुल मिलाकर सरकार की ग्रामीण पर्यटन को बढ़ावा देने वाली योजनाओं को सफलतापूर्वक क्रियान्वित कर यहां के ग्रामीणों का जीवन स्तर सुधारा जा सकता है.