बाढ़ केवल आपदा भर नहीं है
बाढ़ संभावित इलाकों में इसे सिर्फ आपदा समझकर नहीं निपटा जा सकता.वैसे तो बाढ़ सालाना प्राकृतिक घटना है लेकिन असम में ब्रह्मपुत्र नदी में पानी बढ़ने से निपटने के लिए जो किया जा रहा है, उसमें कुछ प्राकृतिक नहीं है. इस साल मरने वालों की संख्या 77 हो गई है और 12 लाख लोग विस्थापित हुए हैं. 10 जुलाई को असम राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने जो रिपोर्ट जारी की उसमें बताया गया कि 20 जिलों के 2,053 से अधिक गांव और तकरीबन एक लाख एकड़ कृषि जमीन डूबी हुई है. इंसानी दखल से इस प्राकृतिक आपदा का प्रभाव और बढ़ जाता है. इसलिए यह समझने की जरूरत है कि सिर्फ बाढ़ से बचाव के उपायों से बात नहीं बनेगी बल्कि इसके गवर्नेंस के लिए कोशिशें करनी होंगी.
असम और बिहार की बाढ़ गुजरात और राजस्थान की बाढ़ से अलग है. गुजरात और राजस्थान में बाढ़ की वजह भारी बारिश है. इसका सामना त्वरित राहत कार्यों से किया जा सकता है. जबकि असम और बिहार के लिए कइ तरह के ढांचागत हस्तक्षेप, संस्थागत सुधार और व्यापक कदमों की जरूरत है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के महाराजगंज से लेकर असम की बराक घाटी के करीमगंज तक का जो जमीनी विस्तार है उसमें पानी के कई खतरे हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम के इन क्षेत्रों की आबादी बेहद सघन है. देश के क्षेत्रफल के 17 फीसदी पर ये चारो राज्य हैं. लेकिन बाढ़ संभावित क्षेत्र का 43 से 52 फीसदी हिस्सा इस क्षेत्र में है.
बाढ़ प्राकृतिक होने के साथ-साथ इंसानी गतिविधियों की वजह से भी आती है. अगर हिमालय में अधिक वर्षा होगी तो यह स्वाभाविक है कि उसकी नदियों में भारी मात्रा में पानी का बहाव होगा. यह पानी नदियों की वहन क्षमता से अधिक हो जाता है और आस-पास के इलाकों में फैल जाता है. पूर्वी हिमलाय में जंगलों को नष्ट करने का असर यह हुआ कि नदियां जब तक मैदान में पहुंचती हैं उनमें भारी मात्रा में गाद जमा हो जाता है. इससे नदियों की वहन क्षमता और घट जाती है और बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है. अरुणाचल प्रदेश में उपर के क्षेत्रों में बड़े बांध बनाने की योजना इस खतरे को और बढ़ाएगी.
ऐतिहासिक तौर पर तटबंध बाढ़ से बचाव के बेहद उपयोगी साधन रहे हैं. इनकी भूमिका कुछ वैसी है जैसे सिंचाई में नहरो की. दोनों किफायती हैं. लेकिन दोनों अपने लक्ष्यों को पूरी तरह से पाने में नाकाम रहे हैं. नहरों के प्रबंधन पर काफी अध्ययन हुए हैं लेकिन तटबंधों पर यह काम नहीं हुआ. तटबंध रहने के लिए एक सुरक्षित क्षेत्र बनाने के मकसद से बनाए जाते रहे हैं. लेकिन बिहार और असम में इनका लंबा इतिहास होने के बावजूद इनकी स्थिति जटिल है. बड़ी आबादी तटबंध में रहती है.
इसका मतलब यह हुआ कि सुरक्षित क्षेत्र से बाहर उन पर बाढ़ का संकट मंडराता रहता है. हालांकि, जो लोग सुरक्षित क्षेत्र में रहते हैं, उन्हें भी तटबंध टूटने का डर सता रहा होता है. उनका यह डर निराधार भी नहीं है. इस साल असम की बाढ़ और 2008 का कोसी की बाढ़ ने तटबंध टूटने से ही भयावह रूप लिया. वहीं जो तटबंध के अंदर रहते हैं उन्हें अचानक पानी बढ़ने से बाढ़ के खतरे का सामना करना पड़ता है.
बाढ़ से निपटने के लिए सरकार मोटे तौर पर बांध बनाने, नदियों से गाद निकालने और जमीन का कटाव रोकने के उपाय करने जैसे कदम उठाती है. लेकिन यह बात स्थापित हो गई है कि बांधों में भी भारी मात्रा में गाद भर जा रहा है. खास तौर पर पूर्वी हिमालय के बांधों में. बांध को सुरक्षित रखने के लिए पानी छोड़ने की मजबूरी होती है. इससे निचले इलाकों में बाढ़ का खतरा पैदा होता है. यह चीज असम में सालों से चल रही है. नदियों के किनारे से मिट्टी का कटाव रोकने के उपाय भी निष्प्रभावी साबित हुए हैं.
जरूरत इस बात की है कि बाढ़ से बचाव के बजाए इसके गवर्नेंस पर जोर दिया जाए. बाढ़ से बचाव का काम ढांचागत हस्तक्षेपों से शुरू होता और राहत के प्रावधानों के साथ खत्म हो जाता है. जबकि बाढ़ गवर्नेंस में कई स्तर पर अनूठे कदम उठाने होंगे. पूर्वोत्तर हिमालय की सभी परियोजनाओं का रणनीतिक पर्यावरणीय आकलन करना होगा ताकि सही ढंग से नदियों का प्रबंधन हो सके. इसके लिए कुछ ढांचागत बदलाव भी करने होंगे. असम में ब्रह्पुत्र बोर्ड को मजबूत बनाना होगा.
इसमें वैज्ञानिकों और अन्य विशेषज्ञों को शामिल करना होगा. लेकिन सबसे जरूरी कदम यह होगा कि बाढ़ संभावित इलाकों के लोगों में आपदा से लड़ने की क्षमता विकसित की जाए. इसके लिए तीन चीजें जरूरी हैं- जोखिम कम करना, विकास कार्यों से वंचित रहे लोगों की पहुंच इस तक बनाना और जन संसाधनों के समुचित इस्तेमाल के लिए उपयुक्त माहौल बनाना.
1966 से प्रकाशित इकॉनामिक एंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय