पहाड़ के किसान की हालत भी खराब
पंकज सिंह बिष्ट | नैनीताल: आजकल कर्ज माफी को लेकर देश के कई राज्यों में किसान आंदोलन कर रहे हैं और खेती बाड़ी को छोड़कर शहरों में धरना दिए हुए हैं. पिछले कुछ दिनों में कई किसानों ने अपने जीवन से हाथ धो लिया है और ये सिलसिला अभी भी रुकने का नाम नहीं ले रहा. पिछले महीने भर में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्याओं का एक सिलसिला शुरु हुआ है. नेशनल क्राइम रिसर्च ब्यूरो के आंकड़ों की मानें तो 2014-15 और 2015-16 में देश में किसान और खेतीहर मज़दूरों की आत्महत्याओं के मामले में 40 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है. रोज नये नाम जुड़ते जा रहे हैं और जाहिर है, पहाड़ भी इससे अछूता नहीं है.
उत्तराखंड ज़िला नैनीताल के अंतर्गत आने वाले भीमताल निर्वाचन क्षेत्र का इलाका जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता, फल पट्टी और सब्जियों की पैदावार के लिए प्रसिद्ध हैं. दिल्ली से केवल 315 किलोमीटर की दूरी पर एक पर्यटन स्थल के लिए प्रसिद्ध है. इस इलाके के लोगों की आय का माध्यम खेती-बाड़ी ही है. कुछ दशक पहले इस क्षेत्र में आलू और सेब का अधिक उत्पादन हुआ करता था, लोग नौकरी के बजाय खेती–बाड़ी करना पसंद करते थे. लेकिन समय के साथ स्थिति बदल गई.
उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद इस स्थिति में और भी तेज़ी से परिवर्तन आए हैं. आज यहाँ के किसान खेती–बाड़ी छोड़ कर अपनी ज़मीने बेच रहे हैं. इसका असली कारण उत्पादन का सही मूल्य न मिल पाना और ब्याजखोरी है. एक तरफ जहाँ बाजार में 100 ग्राम आलू 40 रूपये का बिक रहा है, इस हिसाब से 1 किलोग्राम आलू 400 रूपये का हुआ. आप हैरान न हों, मेरी बात पर यकीन न हो रहा हो तो एक आलू की चिप्स का पैकेट खरीद कर देख लें 50 ग्राम पैक में 10 ग्राम अतिरिक्त डाल कर कुलवजन 60 ग्राम का पैक 20 रूपये में आप को बेचा जाता है अब आप खुद ही हिसाब लगा लें.
सरकार किसान के लिए सस्ते कर्ज की व्यवस्था तो कर देती है किन्तु उनकी फसल के लिए बाजारों की तरफ कोई ध्यान नहीं देती. जिसके परिणामस्वरूप किसान को उतना मूल्य भी नहीं मिल पाता कि कर्ज ली गयी राशि को वसूल कर सके. राज्य के गठन के बाद से ही नैनीताल ज़िले के पर्वतीय निर्वाचन क्षेत्र भीमताल के फल एवं सब्जियों की खेती–बाड़ी करने वाले हजारों किसानों की मांग रही है कि उनके उत्पादों का कम से कम समर्थन मूल्य तय कर दिया जाए. इस मुद्दे को लेकर स्थानीय प्रतिनिधियों ने अपनी खूब राजनीति चमकाई और जब जीत हासिल हो गयी तो खास मुद्दे को ही भूल गये. हल्द्वानी में मंडी तो बनवा दी गयी लेकिन मंडी की सारी दुकानें किसानों के बजाये बनियों को दे दी गयी. किसान अपनी फसल को बिना दलाल के बेच नहीं सकता.
दरअसल पूरा खेल ब्याजखोरी का है, किसान आढ़तियों के माध्यम से अपनी फसल को बेचते हैं. जिसमें कमीशन के तौर पर 2 से 5 प्रतिशत चुकाना होता है, इन आढ़तियों द्वारा किसान की फसल को बेचने के बाद कमीशन काट लिया जाता है. चाहे किसान की फसल को 9 में बेचे या 100 में लेकिन इनका कमीशन पक्का है. इन आढ़तियों और पहाड़ी किसानों का रिश्ता काफी पुराना या यूं कहें कि पीढ़ियों से चला आ रहा है. ये जरूरत के समय किसानों के बड़े मददगार साबित होते हैं.
स्थानीय किसान खुश राम सिंह के मुताबिक “बेटी की शादी करनी हो या ठण्ड का राशन लाना हो. लाला जी को एक चिट्ठी लिखने की देर है- लालाजी राम- राम बेटी की शादी के लिए 100000 रुपयों की आवश्यक्ता है. साथ ही 4 बोरा आटा, 2 बोरा चावल, 5 टीन तेल, 10 भेली गुड़ भेजदेना. पैसा कुछ समय बाद भेजूँगा. इसी चिट्ठी को मेरा निमंत्रण समझकर बच्ची की शादी में जरूर आना– आपका राम सिंह.”
लाला भी बिना देर किए अधिकतर सामान खुशी-खुशी दूसरे ही दिन भिजवा देता है. पैसे की कोई चिंता नहीं क्योंकि फसल तो किसान को उसी की मंडी में भेजनी है. वह अधिक सामान और पैसे तो भेजता ही है, साथ ही 2000 का नोट भी निमंत्रण पत्र के बदले भिजवा देता है. किसान भी खुश क्योंकि उसकी बेटी की शादी में सबसे ज्यादा पैसा लिखवाने वाले लाला जी ही तो एक मात्र व्यक्ति हैं. किसान को लाला जो सामान भेजता है, उसकी क़ीमत पर किसान से 1 से लेकर 5 प्रतिशत प्रतिमाह ब्याज वसूलता है. ब्याज की यह दरें किसान की औकात देखकर तय की जाती हैं. औकात को जांचने के लिए साल भर में किसान द्वारा भेजी जाने वाली फसल और किसान के लाला से सबंध हैं.
एक अन्य स्थानीय किसान उपयुक्त बातों का समर्थन करते हुए कहते है कि इस प्रथा ने वास्तव में किसान को एक लत लगा दी है. इसके कारण वह खुद को आत्मनिर्भर नहीं बना पा रहा है. अपने उत्पाद को मंडी में बेचने और ग्रेडिंग करने की जानकारी न होने के कारण किसान अपने उत्पाद को वह कीमत नहीं दिला पाता, जो वास्तव में इसे मिलनी चाहिए. किसान अपने उत्पादन को उचित मूल्य न मिलने के कारण खेतों में ही गलने को छोड़ देते है, क्योंकि अगर वह उसे मंडी भेजता है तो फलों की कीमत तो मिलनी नहीं है, किराया अलग से बोझ बनेगा.
खेती करने वाले किसान महेश गलिया जी कहते हैं- “प्रति व्यक्ति फल की आवश्यकता 140 ग्राम होती है, जबकि एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में प्रति व्यक्ति औसत उपलब्धता केवल 80 ग्राम आंकी गयी है. यही वज़ह है कि फल आम आदमी की पहुँच से बाहर है. उचित मूल्य न मिलने पर किसान अपने फलों को पेड़ो की जड़ो में ही सड़ा कर खाद के रूप में प्रयोग करने पर मजबूर हैं. यह किसानों की वास्तविक पीड़ा है. किसान मेहनत करके अपने फलों को मंडी पहुंचाकर आढ़तियों के हाथ कर देता है. वह किसान की फसलों को कितने में बेच रहा है? और किसान को कितना बता रहा है? यह केवल विश्वास पर निर्भर है.”
इन कारणों ने पहाड़ी किसानों की कमर तोड़ कर रख दी है. उपर से लगातार हो रहे मौसम परिवर्तन के कारण भी फसल का उत्पादन प्रभावित हो रहा है. किसान सरकारी क़र्ज़ के साथ ही ब्याज के बोझ तले दबता जा रहा है. हालात ये है कि फलपट्टी और आलू उत्पादन का प्रमुख क्षेत्र माने जाने वाले गाँवों गागर, रामगढ़, शीतला, सतखोल, मौना, मुक्तेश्वर, सतबुंगा, सूपी, सुनकिया, लोद, गल्ला, कसियालेख, बना, चौखुटा, गजार, परबड़ा, शशबनी, सुंदरखाल, धनाचूली आदि गाँवों में किसानों ने अपनी जमीनों को बेचना शुरू कर दिया है. बिल्डरों द्वारा इन जमीनों को बंजर घोषित करवा कर बड़े- बड़े होटलों, कोठियों का निर्माण कराया जा रहा है.
गजार गाँव के एक बुजर्ग किसान प्रताप सिंह कहते हैं- “यह क्षेत्र प्राकृतिक सुंदरता और ठण्डी जलवायु के लिए भी प्रसिद्ध है, जिसको देखते हुए शहर के लोग यहाँ पर जमीनें खरीदना पसन्द करते हैं. खेती अब होती नहीं. लोग कुछ पैसों के लालच में अपने पुरखों की जमीनों को बेच रहे हैं, आने वाले भविष्य में यहाँ के निवासियों का क्या होगा, भगवान ही मालिक है!”
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