अधिक कर्ज लेने के लिये बाध्य किसान
देविंदर शर्मा
‘मेरा नाम किरनजीत कौर है, मेरे पिता एक किसान थे. उन्होंने दो साल पहले आत्महत्या कर ली थी.’ पूरे कमरे में सन्नाटा छा गया. लगभग बीस साल की यह लड़की किरनजीत अपनी मार्मिक आपबीती चंडीगढ़ में आयोजित एक कार्यक्रम में बयान कर रही थी. इस कार्यक्रम का आयोजन किसान एवं कृषि आत्महत्याओं से पीड़ित परिवारों के लिए गठित समिति ने किया था. इस कार्यक्रम में राजनेता, अर्थशास़्त्री, सिविल सोसायटी के नेता और ऐसे महिला-पुरुष किसान हिस्सा ले रहे थे जिन्होंने पिछले कुछ बरसों में अपने सगे-संबंधियों को खोया था. पंजाब सरकार ने अपने एक आधिकारिक बयान में माना था कि राज्य में सन 2000 से अब तक 16,000 किसान और खेतिहर मजदूर आत्महत्या कर चुके हैं. इस तरह कभी खेती में अगुआ कहलाने वाला पंजाब अब कृषि आत्महत्याओं का गढ़ बन चुका है. शायद ही कोई दिन जाता होगा जब मुझे अखबारों में दो-तीन-चार किसानों की आत्महत्याओं की खबरें न पढ़ने को मिलती हों.
किसान और उनके परिवार अपनी आपबीती सुनाते जाते थे, उनके साथ-साथ विशेषज्ञों की आंखों से भी आंसू बहते जाते थे. उन सबकी बातें सुनकर एक बात समझ आई कि इन आत्महत्याओं में बढ़ते कर्ज का दबाव एक आम कारक था. लेकिन बात इतनी सरल नहीं थी. पिछले कुछ बरसों में मैं देशभर में घूमा और उन किसानों के परिवारों से मिला जिन्होंने जहर खाकर या फांसी लगा कर जान दे दी थी. मैंने उन वजहों को जानने की कोशिश की जिनकी वजह से किसानों की ऋणग्रस्तता बढ़ रही है. यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि पिछले कुछ वर्षों में खेती अलाभकर बनाई जा चुकी है, किसानों को कर्ज के दुष्चक्र में फंसाकर मजबूर किया जाता है कि वे अधिक से अधिक कर्ज लें. कर्ज पर कर्ज और फिर इस कर्ज को चुकाने के लिए एक और कर्ज लेना अब आम बात बन चुकी है.
1987 में मैं पहली बार कृषि आत्महत्या से पीड़ित किसी किसान परिवार से मिलने और इन आत्महत्याओं की वजह जानने गया था. उस साल आंध्र प्रदेश के वारंगल जिले में 37 किसानों ने आत्महत्या की थी. मैंने पाया कि किस तरह एक छोटे से कीट पिंक बॉलवर्म पर कीटनाशक रसायन बेअसर साबित हो रहे थे और खेतों में खड़ी कपास की पूरी की पूरी फसल बर्बाद हो रही थी. इसके बाद से, बुंदेलखंड से विदर्भ तक, कर्नाटक से पंजाब तक मैंने पूरे देश का दौरा किया और यह जानने की कोशिश की कि आत्महत्याओं की इस महामारी के पीछे कौन सी वजहें जिम्मेदार हैं.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो {एनसीआरबी} के मुताबिक, पिछले 22 वर्षों में देश भर में 3.18 लाख किसानों ने आत्महत्या की है. इतने सारे किसानों ने आत्महत्या को गले लगाया तो इसके पीछे वाजिब वजहें भी होनी चाहिए. यह तो तय बात है कि स्थानीय स्थितियां जो भी हों पर ये किसान बहुत अधिक दबाव में थे. एक-एक करके इन वजहों की तह में जाने पर यह निष्कर्ष निकला कि अंततः किसानों को उनकी वाजिब आमदनी से वंचित रखा गया. लगभग एक दशक हो गया है किसानों की वास्तिविक आय जहां की तहां है. जी हां, आपने ठीक सुना. नीति आयोग के मुताबिक, किसानों की वास्तविक आय 2015-16 तक पांच साल की अवधि में हर साल महज 0.44 प्रतिशत की दर से बढ़ी है. दूसरे शब्दों में, खेती की आय स्थिर है. इसके बाद किसानों पर 2016 में हुई नोटबंदी की मार भी पड़ी. उपज की जो भी कीमत मिले उसी पर बेचने के दबाव में किसानों ने अपनी फसल औने-पौने दाम में बेची और कीमतें धाराशायी हो गईं, स्थिति यह हो गई कि देश भर में किसान अपनी फसल को सड़कों पर फेंकने पर मजबूर हो गए.
किसानों को जानबूझकर गरीब बनाकर रखा गया है. उन्हें उनकी उपज की वाजिब कीमत ना देकर उन्हें बैंकों और साहूकारों की दया पर छोड़ दिया गया है. हरित क्रांति के 50 वर्षों के बाद भी अगर देश के 17 राज्यों यानि लगभग आधे देश के कृषक परिवारों की औसत सालाना आय 20,000 हजार रुपये {आर्थिक सर्वेक्षण 2016 के मुताबिक} हो तो इससे पता चलता है कि देश में सत्ता पर काबिज सरकारों ने खेती को कितनी अहमियत दी है. खाद्य पदार्थों की कीमतें काबू में रखने के लिए किसानों को लाभकारी मूल्य से वंचित रखा गया है . इस तरह बरसों-बरस औसत कृषि आय अवरुद्ध रही, यहां तक कि कृषि मूल्यों में वार्षिक वृद्धि मुद्रास्फीति दर की भी बराबरी नहीं कर पाई.
अब एक और किसान की आपबीती सुनिए, इस बार विदेश के एक महिला किसान ने कहा, ‘ हम अन्न उगाते हैं, लेकिन उसे खरीद सकें हमारी इतनी क्षमता नहीं. हम एक हफ्ते में 80 घंटे काम करते हैं, लेकिन डॉक्टर तो दूर किसी डेंटिस्ट के पास जाने की भी हमारी हैसियत नहीं है. मुझे मुसीबतों से भरे वे दिन याद हैं जब बेमौसम सर्दी की वजह से हमारी फसलें बर्बाद हो गई थीं, रोज पैसों को लेकर झगड़े होते थे, सुबह तो होती थी लेकिन बिस्तर से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं होती थी.’ ये कहना था गिनी पीटर्स का. गिनी अमेरिकी किसान हैं, उनके पति ने पिछले साल खुदकुशी कर ली थी. सवाल उठता है कि अमेरिका, जहां किसानों को भारी-भरकम सब्सिडी दी जाती है वहां किसान क्यों आत्महत्या कर रहे हैं?
इसका साधारण सा जवाब है कि अमेरिका की 80 फीसदी कृषि सब्सिडी का लाभ एग्री बिजनेस करने वाली कंपनियां और अमीर किसान उठाते हैं. दूध के गिरते दामों की वजह से अमेरिका भर में दूध की डेयरी बंद होती जा रही हैं. वहां आत्महत्या की एक भयानक घटना ने मुझे स्तब्ध कर दिया. न्यूयॉर्क प्रांत के 59 वर्षीय डेयरी कृषक डीन पीयर्सन ने पहले अपनी 51 गायों की गोली मार कर हत्या कर दी इसके बाद गोली मारकर खुदकुशी कर ली. डॉ. माइकल रोसमैन अमेरिका के एक किसान हैं, वह एक मनोवैज्ञानिक भी हैं. बिहेवियरल हेल्थकेयर नामके एक जर्नल में प्रकाशित अपने लेख में उन्होंने लिखा है, ” खेती हमेशा से तनाव भरा व्यवसाय रहा है क्योंकि खेती को प्रभावित करने वाले तमाम ऐसे कारक हैं जो उत्पादकों के नियंत्रण के बाहर हैं. इनमें से सबसे बड़ा कारक है फसलों के बिक्री मूल्य का किसानों के नियंत्रण के बाहर होना.”
महंगाई कम करने के लिए पूरा बोझा बड़े आराम से निसहाय किसानों के ऊपर लाद दिया जाता है. मार्गरेट मेटेनियर फ्रांस की एक किसान हैं, उनके पति ने एक साल पहले खुद को गोली मार कर जान दे दी थी. उन्होंने सुबकते हुए कहा, ” आज कोई भी किसान क्यों बनना चाहेगा? हर समय कर्ज में डूबे रहने और बिना कारण मेहनत करने का क्या तुक है? उपभोक्ताओं को कम कीमत चुकानी पड़ें और वह खुश रहें इसलिए हमेशा हमारी बलि चढ़ाई जाती है.”
यह घटना मुझे पंजाब के जसवंत सिंह की याद दिलाती है जिसने अपनी कमर में अपने 5 साल के बेटे को बांधकर नहर में छलांग लगा दी थी. वह अपने पीछे एक सुसाइड नोट छोड़ गए थे जिसमें लिखा था, ” मुझे मालूम है कि इस तरह अपने बेटे के साथ जलसमाधि लेना सही नहीं है पर मैं जानता हूं कि मेरा बेटा जीवन भर 10 लाख रुपयों का वह कर्ज नहीं चुका पाएगा जो मैंने लिया था.” चाहे पंजाब हो या अमेरिका, जानबूझकर खेती को अलाभकारी बनाकर रखा गया है. भोजन के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने के लिए किरनजीत अभी बहुत छोटी है. उसे अहसास नहीं है कि उसके पिता की मृत्यु इसलिए नहीं हुई है कि खेती एक नुकसान का सौदा है बल्कि इसलिए हुई है कि उपभोक्ताओं को खुश करने के लिए खाद्यान्न की कीमत कम रखी जाती है. उसे इस बात का भी अहसास नहीं है कि हर बार जब कोई किसान फसल बोता है तो वह घाटे की उपज काटने की तैयारी कर रहा होता है.