किसान आंदोलन और सरकार
कनक तिवारी
केन्द्रीय निजाम बहुत कड़े और सरकारी प्रतिहिंसा के नए मानक बन रहे सोपानों पर चढ़कर किसान आंदोलन को कुचलने की हरचंद कोशिश करेगा. उसने शुरू कर दिया है. इस निजाम ने तो कोरोना महामारी को भी भुनाकर देश की तमाम प्राकृतिक दौलत, जंगल, खनिज अपने मुंहलगे दो तीन खरबपति कॉरपोरेटियों को दहेज की तरह दे दिया है.
पुलवामा को भी तो अवसर में बदला जा चुका है. अर्णव गोस्वामी के चैट्स को भी आपदा में अवसर समझकर सरकार विरोधियों को कुछ नहीं करने देगा. इस देश की न्याय व्यवस्था पर पूरी तौर पर भले कब्जा नहीं हो, जुगाड़ कर निजाम ने संजीव भट्ट, लालू यादव, भीमा कोरेगांव के मानव कार्यकर्ताओं और केरल से लेकर के दिल्ली तक के ईमानदार पत्रकारों और छात्रों को जेल से नहीं छूटने देने या उनकी गुमशुदगी की रिपोर्ट पर टेसुए बहाकर भी उन छात्रों को ढूंढ़ा तो नहीं है.
वह दिल्ली दंगों के विदूशकों से खलनायक बनाए गए व्यक्तियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का हुक्म देने वाले हाईकोर्ट के जज का आधी रात को तबादला करा ही चुका है. वह सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस पर अपने साथी दल के आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री के जरिए अवमाननायुक्त खुलकर आरोप लगवा कर चुप्पी साधे बैठा है.
गांवों पर आधारित गांधी का हिंदुस्तान जाने कब से भरभरा कर गिर पड़ा है. गांवों पर दैत्याकार महानगर उगाए जा रहे हैं. उन्हें अंगरेजी की चाशनी में ‘स्मार्ट सिटी‘ का खिताब देकर किसानों से उनकी तीन फसली जमीनों को भी लूटकर विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के नाम पर अंबानी, अडानी, वेदांता, जिंदल, मित्तल और न जाने कितने कॉरपोरेटियों को दहेज या नज़राने की तरह तश्तरी पर रखकर हिंदुस्तान को ही दिया जा रहा है. मौजूदा निजाम चतुर कुटिलता का विश्वविद्यालय है.
हिंसा के खुले खेल में ‘जयश्रीराम‘ को बदहवास नारा बनाते विपरीत विचारधाराओं को रावण के वंश का नस्ली बताया जाए. दल बदल का विश्व कीर्तिमान बनाकर सभी दलों से नर पशुओं को खरीदा जाए. ईवीएम की भी मदद से संदिग्ध चुनावों को लोकतंत्र की महाभारत कहा जाए. सदियों से पीड़ित, जुल्म सहती, अशिक्षित, गरीब, पस्तहिम्मत जनता को कई कूढ़मगज बुद्धिजीवियों, मुस्टंडे लेकिन साधु लगते व्यक्तियों से अनैतिक कर्मों में लिप्त कथित धार्मिकों के प्रभामंडल के जरिए वैचारिक इतिहास की मुख्य सड़क से धकेलकर अफवाहों के जंगलों या समझ के हाशिए पर खड़ा कर दिया जाए.
भारत के अतीत से चले आ रहे राम, कृष्ण, बुद्ध, नानक, महावीर, चैतन्य, दादू, कबीर, विवेकानन्द, गांधी, दयानन्द सरस्वती, पेरियार, फुले दंपत्ति, रैदास जैसे असंख्यविचारकों के जनपथ को खोदकर लुटियन की नगरी बताकर अपनी हुकूमत के राजपथ में तब्दील कर दिया जाए. मुगलसराय को दीनदयाल उपाध्याय नगर और औरंगजेब रोड नाम हटाकर या इलाहाबाद को प्रयागराज कहकर सांप्रदायिक नफरत को भारत का नया और पांचवां वेद बना दिया जाए.
कृषि कानूनों में आश्वस्त प्रामाणिकता होती तो अवाम की उम्मीदों को निराश करता लगने वाला सुप्रीम कोर्ट भी कह देता कि शाहीन बाग की घटनाओं की तरह हटाओ अपने आंदोलन का टंटा. कोर्ट ने भी तो आननफानन में सरकारी समर्थकों की ऐसी कमेटी बनाई जो एक सदस्य के इस्तीफा दे देने से चतुर्भुज से त्रिभुज, नहीं नहीं त्रिशंकु की तरह हो गई.
राजसी मुद्रा में खुश होकर चापलूसों को अंगूठी देने वाली हुकूमतों की पारम्परिक मुद्रा में निजाम ने कहा वह इन कानूनों को डेढ़ साल तक स्थगित रखने को तैयार है. निजाम ने यह नहीं बताया कि अडानी जैसे काॅरपोरेट ने न जाने क्यों सैकड़ों बड़े बड़े पक्के गोदाम बनवा रखे हैं. वहां किसानों को कृषि कानूनों के चक्रव्यूह में फंसाकर पूरी उपज को लील लेने का षड़यंत्र किसी बांबी के सांपों की फुफकार की तरह गर्वोन्मत्त होता होगा. कोई जवाब नहीं है सरकार के पास ऐसी नायाब सच्चाइयों के खिलाफ.
कैसा देश है जहां सबसे बड़ी अदालत में किसी भी सरकार विरोधी को अहंकार की भाषा में सरकारी वकीलों द्वारा जुमला खखारती भाषा में आतंकी, अर्बन नक्सल, पाकिस्तानी एजेंट, खालिस्तानी, हिंसक देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही, टुकड़े टुकड़े गैंग का खिताब दिया जाए और शब्दों की बाल की खाल निकालने वाली बल्कि उसके भी रेशे रेशे छील लेने की कूबत वाले सुप्रीम कोर्ट को ऐसे विशषणों का कर्णसुख दिया जाए.
लोकतंत्र में क्या प्रधानमंत्री अंतरिक्ष से आता है जो संविधान की एक एक इबारत को सरकार की स्तुति के सियासी पाठ में तब्दील करने को भी आपदा में अवसर बनाना समझता होगा! सरकारों ने संविधान में किए गए भविष्य वायदों के परखचे तो लगातार उखाड़े हैं.
जनता की कायर अहिंसा अंदर ही अंदर निश्चेष्ट होकर सोचती भर रही कि इसके बावजूद देश के सबसे अमीर आदमी को दुनिया का सबसे अमर आदमी वक्त का फायदा उठाते कैसे बना दिया जा रहा है. एक अपने निहायत अजीज उद्योगपति को इतनी तेज गति से विकसित किया जा रहा है जो गिनीज बुक आफ वल्र्ड रिकॉर्ड में अव्वल नंबर पर दर्ज हो गया है.
इंग्लैंड में मोम के पुतलों की नुमाइश में संविधान पुरुष का आदम कद दुनिया को दिखे. साथ साथ सड़क पर रेंगते मरे हुए कुत्ते का मांस खाकर अपनी जिंदगी बचाने की कोशिश करते, नालियों, मोरियों की दुर्गंध अैर सड़ांध में जीते, लाखों गरीब बच्चे, औरतें, यतीम और जिंदगी से परेशान बूढे बुजुर्ग मौत मांगते भी निजाम के लिए ‘जय हो, जय हो‘ का नारा लगाना नहीं भूलें.
राष्ट्रऋषि तो महान किसान आंदोलन चलते रहने पर भी किसानों से खुट्टी किए बैठे हैं. उसके विपरीत उद्योगपतियों, क्रिकेट खिलाड़ियों, फिल्मी तारिकाओं और न जाने किनसे किनसे दुख सुख में मिलने या हलो हॉय करने की मानवीय स्थितियों की मुद्रा के प्रचारक हुए. दुनिया के पके हुए आंदोलनों से साहस, सीख और प्रेरणा लेकर भारत के किसानों ने इतिहास में एक नई फसल बोई है. वह अमिट स्याही से लिखी है. वह पानी पर पत्थर की लकीर की तरह लिखी है. वह पीढ़ियों की यादों की आंखों में फड़कती रहेगी.
लोग इतिहास पढ़ने से डरते हैं. जिनके पूर्वजों ने इतिहास की उजली इबारतों पर काली स्याही फेर दी है. जो गोडसे के मंदिर में पूजास्तवन करते हैं. उनमें दिमागी वायरस होता है. वह पसीना बहाने वाले किसानों के अहिंसा आंदोलन को काॅरपोरेटियों की तिजोरियों, पुलिस की लाठियों, और मंत्रियों की लफ्फाजी में ढूंढ़ना चाहता है.
मीडिया का बहुलांश भी क्या ऐसा ही नहीं है? वह कॉरपोरेटी और सरकारी जूठन को छप्पन भोग समझता है. उसके पैरों के नीचे से उसके ही अस्तित्व की धरती खिसक गई है. उसका जमीर बिक गया है. उसकी कलम झूठी तस्वीरें खींचने के हुक्मनामे ढोते कैमरे और जीहुजूरी में तब्दील हो गई है.
उसे पांच और सात सितारा होटलों में अय्याशी की आदत हो गई है. वह भारत के इतिहास का नया गुलाम वंश है. उसकी संततियां आगे चलकर कभी अपने पूर्वजों के कलंकित इतिहास के कारण आईने के सामने खड़े होने में शर्माएंगी.
आर्थिक और नैतिक अधोपतन के कारण वे एक बोतल शराब या कुछ रुपयों में अपना जमीर पांच साल के लिए इन्हीं नेताओं की बेईमानी में बंधक बना देते हैं. ये वही नेता हैं जो रेत की नीलामी में प्रति टन की दर से दलाली खा रहे हैं. देश का कोयला, लोहा, खनिज और धरती बेचकर एक ही मुंह से अडानी, अंबानी, जयश्रीराम, जयहिन्द, मेरा भारत महान और इंकलाब जिंदाबाद कर लेते हैं.
शराबखोरी के कैंसर फैलाकर अपनी रातें रंगीन करते दलालों को नगरपिता बना रहे हैं. उनके दोमुंहे सांपों के आचरण को किसान समझता है क्योंकि सांप धरती पर ही तो रेंगते होते हैं. किसान धरती पुत्र ही तो हैं.
धरती के इतिहास में कभी नहीं हुआ कि लोकख्याति के आधार पर हुए चुनाव का सबसे बड़ा जनप्रतिनिधि अवाम से बात नहीं करने की कॉरपोरेटी गलबहियों की जुगाली करता रहे. पिछड़े वर्ग के व्यक्ति ने अपने घर में अपनी बीवी के आचरण को कोसते हुए राजरानी सीता पर कटाक्ष कर दिया गया था. इस बात पर राम ने अपनी गर्भवती पत्नी तक का त्याग कर दिया था.
उसी राम का मंदिर बनाने की चंदाखोरी में मशगूल लोग राम के चित्र को महानायक बना दिए गए प्रधानमंत्री की विराट देह की उंगली पकड़कर बच्चा बनकर जाते हुए देखने पर भी ‘जयश्रीराम‘ का नारा महान विपर्यय के रूप में लगाते रहते हैं.
नहीं गए थे किसान भारत की सुप्रीम कोर्ट में कि न्याय करो. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस द्वारा लाखों रुपए की हार्ले डेविडसन मोटरबाइक पर बैठ कर फोटो खिंचाने पर कटाक्ष करने वाले जनहित याचिकाकारों के पैरोकार वकील प्रशांत भूषण पर अवमानना का मुकदमा देख चुके हैं. कई जज जरूर हैं जिनकी कलम और वाणी से सूझबूझ, निष्कपटता, साहस और न्यायप्रियता से मुनासिब आदेश झरते हैं. कई हाई कोर्ट में भी ऐसे जज हैं. नहीं होते तो न्याय महल भरभरा कर गिर भी जाता.
किसान ही वह लोहारखाना है जहां मनुष्य की नैतिकता के उत्थान के लिए कालजयी हथियार बनते हैं. ये हथियार शोषक नहीं, रक्षक होते हैं.
कहां है देश की संसद? कहां हैं विधानसभाएं? केवल भाजपा नहीं कांग्रेस में भी वही सियासी आचरण है. कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को भाजपाई प्रधानमंत्री की शैली की नकल करने में अच्छा लगता है. एक एक राज्य का भाग्य एक एक खूंटे से बांध दिया गया है. उस खूंटे को मुख्यमंत्री कहते हैं.
जनता तो गाय, बैल, भेड़, बकरी वगैरह का रेवड़ है. उनके संगठित पशु समाज को नहीं है उन्हें राजनीतिक दलाली के विश्वविद्यालय में दाखिला मिलता है. परिपक्व अक्ल और पूरी ईमानदारी के साथ गैरभाजपाई राज्यों में किसान आंदोलन को उसकी भवितव्यता के रास्ते पर चलाया जा सकता था. गैर भाजपाइयों ने भी बेईमानी की है.
भारतीय किसानों के असाधारण आंदोलन को गांधी का नाम जपने वाले सभी लोगों ने भी धोखा दिया है. अब छाती कूटने का क्या मतलब है कि किसानों को गांधी के अहिंसक रास्ते पर चलना चाहिए. कोई समझे, महीनों तक शतप्रतिशत अहिंसक आंदोलन कोई इसलिए करेगा कि वह गणतंत्र दिवस की परेड में शरीक होकर देश के राजपथ पर मार्च करने पर नैतिक दृष्टि से मजबूर या उदात्त आचरण करे?
हर देश में अंधकार का युग आता है. भारत में मिथकों के काल से बार बार आता रहा है. तभी तो दशावतार की परिकल्पना की गई. हर सत्ता सम्राट को हमारे महान विचारकों ने ही राक्षस कहा है. जिनकी छाती से जनसेवा के लिए देवत्व फूटा, वही समाज उद्धारक बना. यह भारतीय किसानों की छाती है जिससे भविष्य का जनसमर्थक इतिहास कभी न कभी फूटने वाला है. मिथकों के युग के बाद भी पस्त भारतीय जनता ने विदेशी हमले झेले हैं. सल्तनतों की गुलामी की है.
जो लोग पंचमांगी, सांप्रदायिक, पूंजीपरस्त, देश के दुश्मन और गरीब के रक्तशोषक हैं, वे नहीं जानते पंजाब की पांचों नदियों में केवल हिमालय का ठंडा पानी नहीं गुरुनानक से लेकर भगतसिंह, ऊधमसिंह, करतार सिंह सराभा और बाद की पीढ़ी का भी गरमागरम लहू बहता रहा है. यह देश गुलामों, पस्तहिम्मतों, बुद्धि-शत्रुओं, नादानों, बहके हुए लोगों और आवारा बनाई जा रही पीढि़यों का मोहताज नहीं है.
बहादुर तो कम ही होते हैं. बुद्धिजीवी भी कम होते हैं. विचारक तो और कम होते हैं. सच्चे साधु संत और भी कम लेकिन वे ही तो मनुष्यता के विकास के अणु और परमाणु होते हैं.
यह अलग बात है कि सत्तामूलक मानसिक बीमारों द्वारा प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया पर चीन के युवान शहर की तरह की उपजी कोई दूसरी वैचारिक महामारी कोविड 19 की जगह कोविड 21 बनकर कॉरपोरेट और निजाम की ताकत के बल पर फैलाई जा रही है. माहौल और इतिहास को प्रदूषित किया जा रहा है. अतीत को पढ़ने की नज़र पर भी रंगीन चश्मा चढ़ाया जा रहा है. लोग बहक रहे हैं. डरपोक हो गए लोग सरकारों से डरते हैं.
ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरह भारत में यूरो अमेरिकी गुलामी का वेस्ट इंडिया बनाने की सरकारी कोशिश है. इसलिए भारतीय नामों के बदले हमें ‘मेक इन इंडिया‘, ‘स्टार्ट इंडिया‘, ‘स्मार्ट सिटी‘, ‘बुलेट ट्रेन‘, ‘स्टार्ट अप‘, अर्बन नक्सल‘, ‘टुकड़े टुकड़ै गैंग‘ जैसे विस्फोटक ककहरे पढ़ाए जा रहे हैं.