बाहर से आने वाले पैसे में कमी
देश के बाहर से भारत में आने वाले पैसे में गिरावट कई वजहों से चिंताजनक है. देश के बाहर काम करने वाले लोगों द्वारा विकासशील देशों में भेजा जाने वाला पैसा 2015 और 2016 में कम हुआ है. 2015 में 1 प्रतिशत की कमी आई और 2016 में 2.4 प्रतिशत की. लेकिन भारत में बाहर से भेजे जाने वाले पैसे में 9 फीसदी की कमी आई है. फिर भी भारत देश के बाहर से भेजे जाने वाले पैसों के मामलों में शीर्ष पर है. अगर यही स्थिति बरकरार रहती है तो कई तरह के नकारात्मक प्रभाव देखने को मिल सकते हैं.
पहली बात तो यह कि देश का बैलेंस ऑफ पेमेंट नकारात्मक होगा. इसके अलावा केरल जैसे राज्यों पर सबसे बुरा असर होगा. क्योंकि पश्चिम एशिया समेत अन्य देशों में केरल जैसे राज्यों से बड़ी संख्या में लोग काम करने जाते हैं. विदेशी निवेशकों का सरकार स्वागत तो कर रही है लेकिन अपने लोगों द्वारा भेजे जाने वाले पैसों में कमी और आधिकारिक विकास सहयोग यानी ओडीए में ठहराव देश के लिए ठीक नहीं है.
जिन आंकड़ों का जिक्र यहां किया गया है वे अप्रैल में प्रकाशित एक रिपोर्ट ‘माइग्रेशन ऐंड रेमिटेंस’ का हिस्सा हैं और इन्हें तैयार किया है कि ग्लोबल नॉलेज पार्टनरशिप ऑन माइग्रेशन ऐंड डेवलपमेंट नाम की संस्था ने. इसे विश्व बैंक समेत जर्मनी, स्वीडन और स्विटजरलैंड की सरकारों का समर्थन मिला हुआ है.
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 2008 की आर्थिक मंदी के बाद विकासशील देशों में आने वाले पैसों में कमी आई थी लेकिन साल भर में यह स्थिति ठीक हो गई थी. लेकिन पिछले दो सालों से आई कमी की कई वजहें हैं. इनमें तेल की कीमतों का कम होना, खाड़ी देशों की विकास दर में कमी, रूस की मंदी और एक्सचेंज दरों में होने वाले उतार-चढ़ाव शामिल हैं.
इस रिपोर्ट में यह बताया गया है कि उनके और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा किए गए सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि काम दिलाने के लिए मजदूरों से काफी पैसे लिए जा रहे हैं और कई बार तो यह साल भर की आमदनी के बराबर भी होता है. जबकि पैसा वापस अपने देश भेजने के लिए श्रमिकों को कुल रकम का 7.5 फीसदी तक शुल्क के तौर पर चुकाना पड़ता है. कई ऐसी रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई हैं जिनसे यह पता चलता है कि निर्माण कार्य में लगे भारतीय मजदूर कितनी मुश्किल परिस्थितियों में पश्चिम एशियाई देशों में रहते हैं.
बाहर से अपने लोगों द्वारा भेजे जाना वाला पैसा बुरे वक्त में काम आता है. क्योंकि जब अर्थव्यवस्था में मंदी आती है और विदेशी निवेश घटता है तो यही विदेशी मुद्रा का एक अहम स्रोत बन जाता है. विश्व बैंक के मुताबिक हाल के दो सालों में घटने से पहले के 15 सालों में दूसरे देशों से भेजा जाने वाला रकम तीन गुना बढ़ा. 2014 में यह सबसे अधिक था. उस साल भारत में 70 अरब डॉलर आए और चीन में 64 अरब डॉलर.
बाहर से आने वाले पैसे के सकारात्मक असरों में भवन निर्माण कार्यों में तेजी प्रमुख है. लेकिन इसके नकारात्मक प्रभाव भी हैं. जैसे इससे गैरबराबरी बढ़ती है, स्थानीय श्रम बाजार में आपूर्ति कम होती है और लैंगिक विषमता बढ़ती है. विश्व बैंक जैसी संस्थाओं का कहना है जिन्हें बाहर से पैसा मिलता है वे बैंक खाता खोलकर उसमें पैसा रखते हैं और इससे वित्तीय सेवाओं के विस्तार में मदद मिलती है. जबकि कई शोध करने वाले यह मानते हैं कि इससे ढांचागत समस्या दूर नहीं होती बल्कि गरीबों पर बोझ अधिक बढ़ जाता है.
भारत के बैंलेस ऑफ पेमेंट की स्थिति संतुलित नहीं है. हाल के महीनों में निर्यात में तेजी आई है. 2016 के अप्रैल से दिसंबर की अवधि के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने बैलेंस ऑफ पेमेंट के जो आंकड़े दिए हैं उससे पता चलता है कि पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले चालू खाते का घटा और वस्तु व्यापार घाटा कम नहीं हुआ है.
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी बहुत नहीं बढ़ा है. तेल की कीमतें पिछले तीन साल से कम बनी हुई हैं लेकिन अब स्थिति बदलने वाली है. मुनाफा, ब्याज और लाभांश के तौर पर देश से काफी पैसा बाहर जा रहा है. जबकि सॉफ्टवेयर निर्यात में कमी आई है. ये स्थितियां चिंताजनक हैं. अमरीका में जिस तरह का संरक्षणवाद चल रहा है उससे भी सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र पर असर पड़ रहा है और आने वाले दिनों में इस क्षेत्र के निर्यात में और कमी का अंदेशा बना हुआ है. यह बात भी संशय के घेरे में है कि अमरीका, पश्चिमी यूरोप और जापान में भारत का निर्यात बढ़ेगा भी या नहीं.
इन सभी तथ्यों के संदर्भ में भारत में दूसरे देशों में रह रहे अपने लोगों द्वारा भेजे जा रहे पैसे में आई कमी को देखा जाना चाहिए. क्योंकि यह पैसा भारत समेत अन्य विकासशील देशों में अहम भूमिका निभा रहा है. उत्तरी अमरीका में सॉफ्टवेयर इंजीनियर के तौर पर काम कर रहे लोग भी भारत में अच्छा खासा पैसा भेजते हैं. लेकिन एच1बी वीजा पर अंकुश लगाए जाने से इस पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा.
सच्चाई यह है कि बाहर से आने वाले पैसे में कमी पर सरकार का नियंत्रण नहीं है लेकिन यह सरकार के लिए एक चिंता की बात जरूर होनी चाहिए.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद