FAKE NEWS की धुंध
डॉ. विक्रम सिंघल
सूचना क्रांति के युग में सूचना, धन और शक्ति दोनों का पर्याय बन गया है. पर जिस तरह धन के कई रंग होते हैं और वह सफ़ेद से काले तक के वर्णक्रम में विस्तृत है, वैसे ही सूचना भी केवल वस्तुस्थिति का भाषाकृत संज्ञान मात्र नहीं है. यह भी ज्ञान, भ्रम, मिथ्या और असत्य तक फैली हुई है.
इस युग में हमने सूचना के समानांतरता को लेकर कई सिद्धांत देखे हैं. जैसे कि जॉन डोरसे की सूचना-उर्जा सिद्धांत कि ‘सूचना उर्जा का स्थान ले सकती है और अधिक सूचना के प्रयोग या निवेश से उर्जा कि खपत कम कि जा सकती है.’
यह सिद्धांत वैसे तो वनस्पति विज्ञान से प्रेरित है पर इसका मूर्त रूप हमने सूचना क्रांति में देखा है कि कैसे इंटरनेट के जरिये दूरियां समाप्त हो गईं और बिना यात्रा किये दूरस्त लोगों से संवाद कर पाते हैं और उर्जा की बचत होती है.
इसी तरह सूचना-धन सिद्धांत का उदाहरण बहुचर्चित बिटक्वाइन प्रणाली के रुप में हमारे सामने है. ब्लॉक चैन तकनीक के प्रयोग से किसी सूचना को संरक्षित करके उसकी मान्यता और हस्तांतरण को मुद्रा के स्तर तक पहुंचा दिया गया और वह आज एक समानांतर अर्थव्यवस्था है. हाल ही में नोटबंदी के बाद हमारे सामने गुजरात का बहुचर्चित 88000 करोड़ का बिटक्वाइन घोटाला सामने आया था.
लेकिन सूचना को जीवन के विभिन्न अनुभवों तक भी सिमित करना असंभव हो गया है. यदि अपने सवाल के दायरे को थोड़ा बढ़ाएं तो यह बात तो बहुत साफ है कि यदि सूचना सत्यापित न हो सके तो अनुभव किसी सूचना का संज्ञान है. उदाहरण के लिये मैंने एक ध्वनि सुनी लेकिन वह ध्वनि वास्तव में थी; यह सत्यापित नहीं किया जा सकता. इसके लिए व्यक्तिक या यांत्रिक साक्ष्य जुटाएं जा सकते हैं पर वह भी भ्रम के इस जाल से बाहर नहीं हो सकते. यानी जिस सूचना का हमने संज्ञान लिया, वह यदि वास्तविक है तो उसमे अर्थ है अन्यथा वह निरर्थक है और निरार्थक सूचना का अनुभव उतना कठिन नहीं है.
सहानुभूति को हम सब श्रेयस्कर मानते हैं लेकिन यह बिना अनुभूति का संज्ञान है. इस विषय में विशेष खोज हुई “मिरर नयूरोंस” की यानी ऐसे स्नायु तंतु जो स्व अनुभूति पर ही नहीं, बाह्य सूचना से भी प्रस्फुटित होते हैं. यानि बिना स्वयं अनुभव किये सिर्फ सूचना मात्र से हम वही अनुभूति कर पाएंगे. यह ठीक वैसा ही है कि किसी खास गायक की खबर सुनने भर से हमें उसके संगीत को सुनने का अनुभव हो सकता है. यह अनुभव-संवेदना-संज्ञान के पूरे क्रम को पलट देता है. यह क्रम अब बदल कर संज्ञान-संवेदना-अनुभव हो जाता है.
इस बदले हुये क्रम के अपने खतरे हैं. इसे हम जघन्य अपराधों को लेकर होने वाले रोमांच से समझ सकते हैं. हत्या और बलात्कार जैसे अपराध की सूचना जब रोमांच देने लग जायें और यदि मीडिया इसे रोज आपके घर इसकी प्रस्तुति करे तो इसकी गंभीरता को समझा जा सकता है.
इस के साथ ही हमें न्यूरोलिंगुइस्तिक प्रोग्रामिंग के विकास को भी देखना चाहिये. हालाँकि इसका विकास एक चिकित्सा पद्दति के रूप में हुआ लेकिन इसका प्रयोग इसी मिथ्या की रचना में अधिक हुआ और हम ISIS के प्रोपगंडा में इसका भरपूर इस्तेमाल देख पाते हैं. इस तकनीक के मुख्य हिस्से हैं “शब्दावली” (एंकरिंग) जो नए अर्थों के साथ उसे इन्द्रिगत संवेदनाओं से जोड़े, “भविष्य प्रक्षेपण” (फ्यूचर पेसिंग) जो कल्पना को यथार्थ तुल्य दृश्य दे सके और इन दोनों से मिलकर विशेष तथ्यों से “राग/विराग” (एसोसिएशन/डीसएसोसिएशन).
अब इसका ही प्रयोग देखिये, यह कैसे आपके मस्तिष्क में दृश्य, ध्वनि, गंध और स्वाद उत्पन्न कर सकता है. इसे अच्छे दिन के साथ मिलकर प्रभुत्व, वर्चस्व और शक्ति से; राग और लोकतंत्र, सौहाद्र और प्रेम से विराग के लिए प्रयोग किया जा सकता है .
अब एक बड़ी मुश्किल परिस्थिति बनती है, यदि हम लोक विवेक और स्वेच्छा को आधार मानकर सारे सामाजिक और राजनीतिक पहलु तय करेंगे तो यहां लोक विवेक और स्वेच्छा को कैसे शुद्ध बनाये रखा जाये. सूचना दुनिया को करीब लाती है, लेकिन इससे हमारी विभेद की क्षमता कम हो जाती है. इसे कैमरा की भाषा में कहें तो रेंज बढ़ाने के साथ ही रेसोल्युशन कम हो जाता है. इसी विभेद से हम विवेकशील बनते है और सही गलत का निर्णय करते हैं. इससे ही नैतिक मूल्यों का प्रसार होता है और स्वेच्छा का निर्धारण होता है. ऐसे में सूचना पर नियंत्रण जन विवेक, नैतिकता, भावना और इच्छा बन जाता है.
यहाँ रेने गिरार्ड का नक़ल सिद्धांत उल्लेखनीय है. इसकी शुरुआत तो विज्ञापन उद्योग के पुराधाओं ने की थी लेकिन बाज़ार जब समाज और राजनीति दोनों पर हावी हो जाये तो वह राजनीति और समाज पर नियंत्रण के लिए उन्हीं औजारों का प्रयोग करती है. मीडिया शायद इसीलिए लोकतंत्र का स्तम्भ माना गया है. पर जब सूचना और उसका जनक मीडिया पूरे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था और मान्यताओं का निर्माण करते हों तो उस सूचना की सुचिता को सुनिश्चित करना बहुत ज़रूरी हो जाता है. यदि मीडिया इस श्रेष्ठतम होने को अस्वीकार कर स्वयं इस दौड़ में शामिल हो जाये तो ऐसा हित संघर्ष निर्मित होता है जिससे की पूरी व्यवस्था का आधार ‘सूचना’ की शुचिता नष्ट हो जाती है. इससे सारा निगमित मात्र प्रपंच रह जाता है और उसमें से अर्थ लोप हो जाता है.
इसी कड़ी में हमें ‘पोस्ट ट्रुथ’ की भूमिका भी समझनी होगी. उत्तर आधुनिकतावाद के दौर में सापेक्षिक सत्य को मान्यता मिलने लगी और अनेक सत्यों के बीच व्यक्तिगत और विचारधारात्मक सत्य भी स्थापित होने लगे. इससे यह बात बाज़ार, सिने जगत से होते हुए राजनीति तक पहुँच गयी. जहां राजनीति को “शोबिज ऑफ़ दी उगली” कहा जाने लगा. यहाँ यह महत्वपूर्ण नहीं रहा कि सच क्या है, बल्कि यहां यह बात महत्वपूर्ण हो गई कि क्या सच माना जा सकता है.
यहाँ जर्मनी के नाजी प्रोपगंडा सिद्धांत को भी ध्यान में रखने की जरुरत है. प्रोपगंडा लोगों के पूर्वाग्रहों को दूर करने के लिये नहीं बल्कि सत्यापित करने की प्रक्रिया है. अब ख़बरों को इस तरह लिखा जाने लगा कि जनता किस बात पर यकीन कर लेगी.
जब दुनिया भर में टेलीविज़न न्यूज़ का आरंभ हुआ था तो सबने बड़ी राहत ली कि अब वीडियो न्यूज़ से फेक न्यूज़ बंद हो जायेगा लेकिन इसने तो वीडियो की विश्वसनीयता को भी औजार बना लिया. फिर आया सोशल मीडिया का दौर. लोगों ने कहा कि अब खबर कुछ स्थापित हितों के शिकंजे से निकल कर जनता के हाथों में आ जाएगी. लेकिन इसने तो झूठ को पंख दे दिए.
आखिर व्यक्ति ताउम्र अपने पूर्वाग्रहों के लिए जिस गवाही का इंतज़ार करता रहा, वह तो उसके पड़ोस में ही मौजूद था. हम देखते हैं कि फेक न्यूज़ प्रसारित करने से पहले उसके लिए फेक रिफरेन्स तैयार किया जाता है. अनगिनत वेबसाइट खड़े हो जाते हैं जो खबर के लिए पुष्टि का काम करें. जाहिर है, फेक न्यूज का यह दौर अब नीर-क्षीर विवेक के दौर से भी कहीं आगे निकल चुका है और अभी तो सब तरफ धुंध ही धुंध नज़र आ रही है.