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75 साल बाद भी जाति की बुराई अफसोसजनक-सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली | डेस्क: जेलों में जाति-आधारित अलगाव और कार्य विभाजन को समाप्त करने के निर्देश जारी करने वाले अपने ऐतिहासिक फैसले में, सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर दुख व्यक्त किया कि स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी भारत में जातिगत भेदभाव की बुराइयाँ व्याप्त हैं.

भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया, “स्वतंत्रता के 75 वर्ष से अधिक समय के बाद भी हम जातिगत भेदभाव की बुराई को समाप्त नहीं कर पाए हैं. हमें न्याय और समानता के लिए एक राष्ट्रीय दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें सभी नागरिक शामिल हों.”

मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने पत्रकार सुकन्या शांता द्वारा दायर याचिका पर निर्णय सुनाया, जिन्होंने जेलों में जाति-आधारित अलगाव के अस्तित्व को उजागर किया था.

‘द वायर’ की पत्रकार सुकन्या शांता ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि कई राज्यों के जेल मैनुअल जाति के आधार पर भेदभाव को बढ़ावा देते हैं.अपनी याचिका में उन्होंने कहा था कि जाति के आधार पर जेल के अंदर काम बाँटे जाते हैं. साथ ही क़ैदी जिस बैरक में रहते हैं, उसे भी जाति के आधार पर तय किया जाता है.

इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम ने कई राज्यों के जेल मैनुअल के प्रावधानों को असंवैधानिक करार दिया, जिसमें कैदियों की जाति के आधार पर काम आवंटित करने और उन्हें जाति के आधार पर बैरकों में रखने का प्रावधान था. फैसले में कहा गया कि भारत के इतिहास में उत्पीड़ित जातियों के प्रति सदियों से भेदभाव देखने को मिलता रहा है.

निर्णय में कहा गया है कि भारत के भविष्य के बारे में संविधान सभा को अपने अंतिम संबोधन में डॉ. बी.आर. अंबेडकर द्वारा व्यक्त की गई चिंताएँ आज भी सत्य हैं.

अदालत ने कहा, “इसलिए, हमें अपने समाज में विद्यमान असमानताओं और अन्याय के उदाहरणों की पहचान करने के लिए वास्तविक और त्वरित कदम उठाने की आवश्यकता है. बिना कार्रवाई के शब्दों का उत्पीड़ितों के लिए कोई मतलब नहीं रह जाता.”

अदालत ने कहा कि हमें एक संस्थागत दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जहाँ हाशिए पर पड़े समुदायों के लोग अपने भविष्य के बारे में सामूहिक रूप से अपना दर्द और पीड़ा साझा कर सकें. हमें संस्थागत प्रथाओं पर विचार करने और उन्हें दूर करने की आवश्यकता है, जो हाशिए पर पड़े समुदायों के नागरिकों के साथ भेदभाव करते हैं या उनके साथ सहानुभूति के बिना व्यवहार करते हैं. हमें बहिष्कार के पैटर्न को देखकर सभी स्थानों में प्रणालीगत भेदभाव की पहचान करने की आवश्यकता है. आखिरकार, “जाति की सीमाएँ स्टील से बनी हैं” – “कभी-कभी अदृश्य लेकिन लगभग हमेशा अविभाज्य”, लेकिन इतनी मजबूत नहीं कि उन्हें संविधान की शक्ति से तोड़ा न जा सके.

अदालत ने कहा कि “इन समुदायों के प्रति हिंसा, भेदभाव, उत्पीड़न, घृणा, अवमानना ​​और अपमान आम बात थी. जाति व्यवस्था ने इन सामाजिक अन्यायों को समाज में गहराई से जड़ जमा दिया, जिससे ऐसा माहौल बना जहां प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों की खुलेआम अवहेलना की गई. इस पदानुक्रमित व्यवस्था में तटस्थता वस्तुतः अस्तित्वहीन थी, और उत्पीड़ित जातियों के लोगों के प्रति एक अंतर्निहित और व्यापक पूर्वाग्रह था. यह पूर्वाग्रह कई तरीकों से प्रकट हुआ, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अवसरों से बहिष्कार शामिल है. जाति व्यवस्था ने सुनिश्चित किया कि उत्पीड़ित जातियां हाशिए पर रहें और अपने मूल अधिकारों और सम्मान से वंचित रहें.”

कोर्ट ने कहा, “वंचित जातियों के क़ैदियों को शौचालय साफ़ करने या झाड़ू-पोछा लगाने जैसे काम के लिए मजबूर करना, वो भी बिना उनकी पसंद का ध्यान रखे, केवल उनकी जाति के आधार पर, ये एक प्रकार की ज़बरदस्ती को दिखाता है.”

अपने फैसले में कहा कि “जाति द्वारा परिभाषित सामाजिक ढांचे में सभी व्यक्तियों के लिए समानता का मूलभूत सिद्धांत अनुपस्थित था. जाति व्यवस्था एक तंत्र के रूप में संचालित होती थी जो बहुजन समुदायों के श्रम पर पनपती थी, अंततः उनकी पहचान को नष्ट कर देती थी. दूसरे शब्दों में, जाति व्यवस्था की कहानी, इसलिए, अन्याय सहने की कहानी है. यह एक ऐसी कहानी है कि कैसे लाखों भारतीय, सामाजिक सीढ़ी के निचले पायदान पर धकेल दिए गए, लगातार भेदभाव और शोषण का सामना कर रहे थे. निचली जातियों को व्यवस्थित रूप से शिक्षा, भूमि और रोजगार तक पहुँच से वंचित रखा गया, जिससे समाज में उनकी वंचित स्थिति और भी मजबूत हो गई. जाति व्यवस्था ने भेदभाव और अधीनता की भयावह प्रथाओं को जन्म दिया, जो शुद्धता और प्रदूषण की धारणाओं में निहित थी, जहाँ कुछ समुदायों को अशुद्ध माना जाता था, और उनकी उपस्थिति को दूषित माना जाता था.”

निर्णय में वर्ण व्यवस्था पर डॉ. अंबेडकर के लेखन का व्यापक रूप से उल्लेख किया गया.

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