विविध

इन गरीबों का मज़ाक

कनक तिवारी
छत्तीसगढ़ वॉच और असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स यानी एडीआर की साझा रिपोर्ट आई है. वह छत्तीसगढ़ के मौजूदा विधायकों की आर्थिक और अपराधिक हालत का कच्चा चिट्ठा खोलने जैसा दावा करती है. रिपोर्ट शोधपत्र नहीं है. वह विधायकों द्वारा 2008 के विधानसभा चुनाव के वक्त चुनाव आयोग को दिए गए हलफनामों की जांच है. सुप्रीम कोर्ट ने 2002-2003 के फैसलों के ज़रिए संसद और विधानसभाओं के उम्मीदवारों के लिए वित्तीय, शैक्षणिक और आर्थिक मुद्दों संबंधी सूचनाएं चुनाव आयोग को देना लाज़िमी कर दिया था. वे मुकदमे एडीआर की पहल पर ही लड़े गए थे. इस संस्था का चुनाव सुधारों को लेकर योगदान है. रिपोर्ट से कुछ निष्कर्ष तो उभरकर आते ही हैं.

रिपोर्ट चटखारे लेती है कि 35 प्रतिशत अर्थात 30 विधायक स्वघोषित करोड़पति हैं. 20 विधायकों की चल अचल संपत्ति 25 लाख रुपए से कम है. पांच विधायकों ने अपनी संपत्तियों का कोई ब्यौरा नहीं दिया. 14 विधायक कर्ज़ में भी डूबे हैं. इनमें परेश अग्रवाल (बागबहरा) की देनदारी 59.51 करोड़, जयसिंह अग्रवाल (कोरबा) की देनदारी 58.77 लाख और अमरजीत भगत (सीतापुर) की देनदारी 29.47 लाख है. सबसे गरीब विधायक गुजराम बौद्ध (पामगढ़) धनहीन है. जागेश्वर राम भगत (जशपुर) के पास महज़ दो लाख रुपयों की संपत्ति है. महंत रामसुंदर दास (जैजैपुर) की संपत्ति 2.56 लाख की है. सबसे अमीर विधायक स्व. नंदकुमार पटेल (खरसिया) के पास 37.02 करोड़, रामकमल सिंघानिया (कसडोल) के पास 10.17 करोड़ और गुरमुख सिंह होरा (धमतरी) के पास फकत 6.02 करोड़ की चल अचल संपत्तियां हैं.

यह दुखद तथा आश्चर्यजनक है कि जनधारणा जिन्हें अमीर मानती है, उन बेचारों के पास गर्व करने लायक संपत्तियां ही नहीं हैं. प्रसिद्ध वैश्य मंत्री-तिकड़ी बृजमोहन अग्रवाल (रु. 81 लाख), अमर अग्रवाल (एक करोड़ इक्यासी लाख अठहत्तर हज़ार एक सौ तिरालीस रुपए) तथा राजेश मूणत (रुपए बयासी लाख चैसठ हजार चार सौ इनक्यानबे) की चल अचल संपत्तियां हैं. जनविश्वास नेताओं के स्वघोषित शपथपूर्वक बयानों से मेल क्यों नहीं खाता? लोकतंत्र जन अफवाहों पर भी निर्भर होता है, लेकिन अविश्वासी जनता को नेताओं के शपथपत्रों पर भरोसा करना पड़ता है. शपथपत्र पर झूठे बयान नहीं किए जा सकते-ऐसा मानना पड़ता है. अन्यथा भारतीय दंड विधान के अंतर्गत अपराधिक मुकदमे चलाए जा सकते हैं. यह अलग बात है कि परिवारजनों को असली हालत का पता रहता है. परिवारों में शादी ब्याह तय होने पर मालधनी होने की बात सामने आ जाती है. गरीब मंत्री मतदाताआंें को भी बुरा लगता है. इतनी कम वित्तीय क्षमता के बावजूद उनके आत्मप्रचार का बजट लगातार कुलबुलाता क्यों रहता है.

रिपोर्ट में पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी और उनकी पत्नी डॉ. रेणु जोगी दोनों के संपत्ति संबंधी आंकड़े बिल्कुल एक जैसे कैसे हो सकते हैं. जो बताते हैं कि उनके पास अलग अलग चार करोड़ उन्तीस लाख पचहत्तर हज़ार रुपयों की संपत्ति है. आंकड़ों में कुछ तो फर्क होना चाहिए था. पहले दस अमीरों में आदिवासी वर्ग के दो, ब्राह्मण वर्ग के दो विधायक भी शामिल हैं. इनमें दलित कोई नहीं है. पिछड़े वर्ग के विधायक ने सूची में प्रथम स्थान पाया है. दुर्भाग्यवश उनकी हत्या हो गई. अन्यथा उनकी नेतृत्व क्षमता का यह अंर्तनिहित कारण भी कभी अवश्य रेखांकित होता.

महाराष्ट्र में लगभग सभी विधायक करोड़पति हैं. हर मुद्दे पर प्रथम रहने का दावा करने वाले छत्तीसगढ़ को अभी बहुत अधिक विकास करना होगा. विधायक खुद ही करोड़पति से अरबपति बनने की ओर आगे नहीं बढ़ पाएंगे, तो जनता का आर्थिक स्तर कैसे सुधरेगा? कई विधायकों के निजी सचिव तक करोड़पति हो गए हैं. यह तथ्य भी जनसाधारण को मालूम है. इसके बावजूद विधायकों का लखपति बने रहना संदेह और दुख का कारण बनता है.

गरीबी स्तर के नीचे की जनता दो रुपए किलो का चावल और मुफ्त सरकारी नमक खाकर खुद को करोड़पति समझती हुई वफादार बनी रहती है. नमक वह अहसान पत्र है जिसका कर्ज़ चुकाना पड़ता है. अरबों रुपयों की वन और खनिज संपत्ति, देसी विदेसी देश भर में उद्योगपति लूटे चले जा रहे हैं. एक हज़ार रुपए महीना कमा लेने वाले व्यक्ति और परिवार को भारत का योजना आयोग गरीब नहीं मानता, इसलिए उन्होंने गरीबों की तरह खेत खलिहानों और कारखानों में काम करना भी बंद कर दिया है. वे गरीबी के विरुद्ध सरकार की दानशीलता की शराब पीकर उन्मत्त भी रहते हैं. महिलाओं को घर और बाहर काम करना तथा शराबखोरी के विरुद्ध आंदोलन करने के नए अवसर मिले हैं. इससे छत्तीसगढ़ में सशक्त नारी आंदोलन की बड़ी राष्ट्रीय भूमिका बन रही है.

खुशी की बात है कि लगभग कोई भी मंत्री कर्ज़दार नहीं है. प्रमुख आदिवासी मंत्री ननकीराम कंवर और रामविचार नेताम करोड़पति हैं. दलित मंत्री दयालदास बघेल उद्योगमंत्री रहकर भी करोड़पति नहीं बन पाए. उनका विभाग बदल दिया गया. बस्तर संभाग के आदिवासी मंत्री केदार कश्यप, विक्रम उसेंडी और लता उसेंडी नक्सलवादी इलाकों के प्रतिनिधि हैं. वहां नक्सलवादी उन्हीं करोड़पतियों को अपने इलाके में जीने देते हैं जो उनका हफ्ता या महीना बांध देता है. यह बेहद चैंकाने वाला सच है कि 90 सदस्यीय विधानसभा के पहले 9 ज़्यादा अमीर कांग्रेसी विधायक ही हैं. 2003 से प्रदेश में भाजपा की सरकार है. फिर भी कांग्रेसी करोड़पति ही पहले नवरत्न हैं. यह कैसा राजनीतिक न्याय है? उसके बाद लगातार उतने ही भाजपाई करोड़पति हैं. अमर अग्रवाल और रजनी त्रिपाठी को छोड़कर बाकी सब पिछड़े वर्गों के प्रतिनिधि हैं.

यह सामाजिक समरसता का बड़ा प्रमाण है कि भाजपा के बाकी सवर्ण विधायकों ने आर्थिक क्षमता के मामले में अकिंचन वर्गों को अपने ऊपर तरज़ीह दी है. लगातार सक्रिय विधायक का पुरस्कार पाने वाले विधायकों का करोड़पतियों की सूची में अता पता नहीं है. अकिंचन व्यक्ति ही सामाजिक रूप से वाचाल होता है. ऐसी समझ कार्ल माक्र्स ने भी विकसित की है. महंत रामसुंदर दास की गरीबी देखकर मतदाताओं की श्रद्धा साधु संतों के प्रति बढ़ जाती है. बीच में आसाराम बापू और रामदेव बाबा क्यों आ जाते हैं. इस पूरी सूची में मुख्यमंत्री सबसे गरीब करोड़पति हैं और तीसवें नंबर पर हैं. गरीबों और करोड़पतियों के बीच स्थित रहने से उन्होंने सत्ता संतुलन की चाबी अपने पास रखने का मर्म समझ लिया है.

अपराधिक मामलों को लेकर कहीं नहीं लिखा है कि ये मामले पिछले 10 वर्षों से ज़्यादा समय से लंबित होने के बावजूद निपटते क्यों नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा फैसले के मुताबिक यदि इन मामलों में दो वर्ष या अधिक की सज़ा हो गई तो छत्तीसगढ़ में भी उथपुथल हो सकती है. बेचारे लालू यादव और अन्य दो सांसद सुरीली कुर्सी की दौड़ में सुप्रीम कोर्ट की रेफरी वाली सीटी के ज़रिए आउट कर दिए गए. मानहानि, धमकी और गाली गलौज संबंधी छोटे छोटे मामलों में दो वर्ष की सज़ा तो होती ही नहीं है. ये अपराध नहीं पौरुष के लक्षण हैं. इनकी जानकारी भला चुनाव आयोग क्यों लेता है? उन मामलों की जानकारी क्यों नहीं लेता जब विधायक किसी दूसरे व्यक्ति पर मुकदमा दायर करते हैं. वह भी तो विधायकों के निष्कपट होने का प्राथमिक सबूत है.

पुराने आंकड़ों पर आधारित नई रिपोर्ट आगामी चुनावों के पहले राजनीतिक स्थिति को खंगालने की अच्छी कोशिश है. छत्तीसगढ़ में गरीबी तो शैक्षिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक जे़हन में है. मंत्रियों के मुगलिया दरबार में जीहुजूरियों की जमात बैठी होती है. राष्ट्रीय ख्याति के प्रकल्प छत्तीसगढ़ में उपजते ही नहीं हैं. सबसे बड़ा नेता कबीरपंथी है और कबीर के आत्मज्ञान का पहला केन्द्र छत्तीसगढ़ ही है. फिर भी कबीर के सेक्युलरिज़्म पर आधारित कोई बड़ा प्रोजेक्ट कबीरपंथी मंत्री ने भी नहीं सुझाया. सेक्युलरिज़्म संविधान का मकसद है. कबीर भारतीय इतिहास में सबसे पहले सेक्युलरिस्ट हैं. विवेकानन्द के 150 वें जन्मवर्ष में उनका भगवा चोला बहुत बिक रहा है.

विवेकानन्द का वसुधैव कुटुम्बकम का शिकागो में दिया गया नारा छत्तीसगढ़ में वैचारिक वटवृक्ष नहीं बन रहा है. यहां विवेकानन्द दो वर्ष से अधिक समय तक अपनी मातृभूमि के अतिरिक्त रहे थे. यहीं उन्हें आध्यात्मिक चेतना का इलहाम हुआ था. कबीर के आध्यात्मिक वंशज और दलितों के मसीहा गुरु घासीदास ने छत्तीसगढ़ की धरती से सतनाम अर्थात सत्य का विश्वव्यापी जयघोष किया. उनके नाम पर छत्तीसगढ़िया सवर्ण नेताओं को सबक सिखाने की मुद्रा में बिलासपुर के सरकारी विश्वविद्यालय का नाम गुरु घासीदास विश्वविद्यालय कर दिया गया. गुरु घासीदास तो फक्कड़ थे. करोड़पति विधायकों ने क्यों नहीं सोचा कि उनके नाम पर दुनिया का पहला सत्य विश्वविद्यालय खोला जाए. इससे गुरु घासीदास का लोकयश उस जैत खंभ की तरह हो जो कुतुबमीनार से ऊंचा बताए जाने के बदले इतिहास की सबसे ऊंची मीनार बन जाए.

गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने गांधी के नाम पर गोधरा के बावजूद अहिंसा विश्वविद्यालय बनाने का शिगूफा छेड़ा था. अहिंसा संघ परिवार के चरित्र का गुण नहीं है. यवन संस्कृति के लिए अहिंसा का प्रयोग हिन्दू राष्ट्रवाद कैसे कर सकता है. बाद में नरेन्द्र मोदी को सांप सूंघ गया. अब देश के हर शहर, गांव से लोहा इकट्ठा कर सरदार पटेल की विश्व में सबसे बड़ी लौहमूर्ति बनाने का शिगूफा चल रहा है.

गुजरात के रोल मॉडल गांधी नहीं सरदार पटेल होंगे-ऐसा मौलिक शोध करने वाला प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कर रहा है. बापू बेचारे प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति कहां बन पाते. वे राष्ट्रपिता बनकर ही खुश रहें. वे करोड़पति बन सकते थे लेकिन भिखारी ही बने रहे. जन्म से वैश्य, बुद्धि में ब्राह्मण, साहस में क्षत्रिय और कर्म में दलित उद्धारक बने रहने से वे उस गुजरात के लायक कहां हैं जहां सात सितारा संस्कृति का हिंसक सपना हिन्दू होने का पर्याय बनाया जा रहा हो.

राजनीतिक पार्टियों ने केन्द्रीय सूचना आयोग का लोकप्राधिकारी कहलाने का आदेश मान लिया होता, तो जनता अपने गरीब करोड़पति विधायकों की एक एक फितरत का सवाल पूछती. चुनाव आयोग तथा इन्कम टैक्स विभाग को सावधानी से दिए गए विवरण किताब नहीं हैं. केवल पुस्तकों की जिल्द हैं. वे ऐसा खत भी नहीं हैं जिसका मजमून लिफाफे को देखकर पढ़ा जा सकता है.

खत का मजमून तो मोहनलाल बाकलीवाल, पंढरीराव कृदत्त, मदन तिवारी, मोहन भैया, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, रामचंद्र सिंहदेव, प्रकाश राय, कुंजबिहारी लाल अग्निहोत्री, बैरिस्टर छेदीलाल सिंह, रेशमलाल जांगड़े, मिनीमाता, विश्राम सिंह ठाकुर, लालश्याम शाह, प्रवीरचंद्र भंजदेव, माधवराव सप्रे, नरसिंह प्रसाद अग्रवाल, सुंदरलाल शर्मा, यति यतन दास जैसे सूरमाओं के व्यक्तित्वों में है. राजनीतिक पार्टियां लिफाफा हैं. उन पर प्रेषक मतदाताओं का नाम लिखा होता है. पाने वाले सांसदों और विधायकों का नाम भी लिखा होता है. गंतव्य भी लिखा होता है. मौज़ूदा विधायकों और सांसदों तक इन ईमानदार और फक्कड़ नामों का मजमून कभी नहीं पहुंचता. राजनीति अब सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का मजमून पढ़ने वाली है जिससे मतदाता सभी उम्मीदवारों को खारिज़ कर दे.

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