अवाम की औकात का खसरा पांच साला
कनक तिवारी | फेसबुक : पांच राज्यों के चुनाव हो गए हैं. बस परिणाम आने बाकी हैं. सरकारें बनेंगी. आदरणीय मंत्रिगण का इंसानी दिखता हुकूमतशाही का कोलाज़ संविधान के नए पृष्ठों पर पांच साला इबारत बनकर छितरा जाएगा.
कौन जीतेगा या कौन हारेगा यह अवाम के लिए सूचनाओं का संग्रहालय बनकर चुनाव आयोग की पुस्तिकाओं में कभी न पढ़े जाने वाले उपेक्षित इतिहास की तरह दर्ज हो जाएगा.
विजयी परिवारों के वंशज पूर्वजों की सफलता के किस्से परिचितों, परिवारों, विरोधियों को सुनाने के लिए चटखारे लेते रहेंगे. लोकसेवकों की खाल ओढ़े भी लोग जीतेंगे. उनकी तहजीब में शाइस्तगी, शराफत और इंसानियत तक की दस्तकें लगाने के संविधान में गुर नहीं गूंथे गए. संसद और विधानसभाओं का जनता के लिए सरंजाम करने वाले वे इस धरती के लोग नहीं लगते थे.
उनके जेहन में देश के लिए कुछ कर गुजरने का सैलाब हिलोरें मारता था. वे लोकतांत्रिक विरोध को बगलगीर बनाकर कुटिलता को अपने आचरण का रसायन नहीं बनाते थे. वे लेकिन अपनी संवैधानिक औलादों को अपने ही संस्कारों से रच नहीं सके.
तब देश में निरक्षर, अधिकारविहीन, कुचले गए गरीबों का करोड़ों का जमावड़ा था. शिक्षा, संचार, स्वास्थ्य, तकनीकी, विज्ञान और विदेशी संबंधों को लेकर जनमानस अधिकारसम्मत नहीं था. 70 वर्षों में इन सब इलाकों में मुकम्मिल तो नहीं लेकिन मुनासिब तरक्की करने की असफल कोशिशें की तो गई हैं.
सांसदों और विधायकों के सिर पर सत्ता के अहंकार का मुकुट अवाम को दिखाई देता है. जिसके मुकुट में कलगी लग जाती है उसे चुनाव अधिकारी द्वारा दिया गया प्रमाण पत्र और मंत्री के रूप में राज्यपाल के रुक्के का मतलब समझ लिया जाता है. कलगी की ज़िंदगी एक बार में पांच बरस से ज़्यादा नहीं होती. उसकी अकड़ लेकिन 50 वर्षों तक भूचाल लाने के ताव की मूछें मरोड़ती है.
जो जीतता है. मंत्री बनता है. खुद को सिकंदर कहता है. भूल जाता है युद्ध से लौटते समय अपने वतन पहुंचने के पहले सिकंदर कई बददुआओं और बीमारियों के कारण अकाल मौत मर गया था.
नया घर बनता है. एक एक कमरे, बरामदे, आंगन, दुछत्ते, सीढ़ियों और खुली जगह तक पर भी घर के अलग अलग सदस्य अपना अपना मालिकाना हक और कब्ज़ा जताने लगते हैं. धीरे धीरे पुरखौती के चेहरे पर झुर्रियों की परत चढ़ती जाती है. बच्चे, नौजवानों में तब्दील होते दिखाई पड़ते हैं. बूढ़ी होती पीढ़ी यादों में चली जाती है.
लोकतंत्र इंसानी जीवन का ऐसा ही बाइस्कोप है. जनता की नजर हटी तो सांसद विधायक के जीतने की दुर्घटना घटी. ऐसा नहीं है कि चावल या गेहूं में घुन ज्यादा होते हैं. यह भी नहीं होता कि दूध में पानी ही पानी है. प्रधानमंत्री की कुर्सी पर लाल गुलाब खोंसे अपनी ज़िंदगी के कांटों में उलझा जो इस देश में आजीवन चुनाव जीतता रहा वह अब भी अपनी कलगी में जीवित है.
दलितों के लिए जिसकी आत्मा में करुणा की सुनामी थी वह बौद्ध धर्म में जाकर आधुनिक बुद्ध की तरह मूर्तिभंजक हो गया. इनके साथ ही लोकतांत्रिक मूल्यों का ऐसा मसीहा इसी देश में था. उसकी आत्मा की लय के सामने अंगरेजी आॅर्केस्ट्रा के शोर मुंहबंद होने लगते थे.
पता नहीं आज के नौजवान अजय देवगन और सनी देओल के चरित्रों में सच्चे भगतसिंह को ढूंढ़ पाते हैं या नहीं. मुस्टंडे, निठल्ले, मधुमेह से पीड़ित, चेहरे पर चाशनी चढ़ाए, शरीर में नमक घटाते जे़हन में नफरत ठूंसे साधु और मौलवी कहलाते लोग गणेशशंकर विद्यार्थी की शहादत के इतिहास को कभी पढ़ते नहीं होंगे.
संसद में आधे से ज्यादा सदस्य छोटे बड़े अपराधों के अभियुक्त हैं. यही हाल विधानसभाओं का है. देश मुफलिसों का मीनाबाज़ार बन रहा है. जो करोड़पति नहीं हैं उनके विधायक बनने की इच्छा तक कुचल दी जाती है.
अरबपति और खरबपति वोट और पार्टियों के ज़मीर खरीदकर सांसद, मंत्री बनते हैं. फिर विजय माल्या नाम धरे देश से भगोड़े बनकर सरकार को इंग्लैंड की धरती पर मुकदमे में पराजित करते हैं.
तिलिस्मी कॉरपोरेटी अनिल अंबानी और गौतम अदानी तो आकाश में टंके नवग्रह के अतिरिक्त दो अतिरिक्त नक्षत्र हैं. कभी कभी लगता है वे किसी संवैधानिक कुर्सी पर बैठने की जिद करें तो नेता तो उस कुर्सी के पाए बनने में भी अपनी किस्मत को सलाम बजाएंगे.
जिन विषयों में विधायकों को कानून बनाना होता है बहुतेरे उसकी इबारत तक नहीं पढ़ते. अवर सचिव पहले फाइल ऊपर सरकाते हैं. संयुक्त, अतिरिक्त और मुख्य सचिव क्रमश: ज़्यादा से ज़्यादा अस्पष्ट चिड़ियों की तरह हस्ताक्षर उगाते हैं. मंत्री जी पढ़ते नहीं लेकिन माननीय मंत्री जी की हैसियत में मुस्कराहट का हस्ताक्षर करते हैं.
देश है कानूनों के जंगल की बेशर्म झाड़ियों में मनुष्य की औकात को डसने वाले सांपों की बांबी में फंस गया है. पता नहीं बहुत कुचले जाने पर भी भारतीय मरते क्यों नहीं हैं. उनकी आत्मा कचोटती रहती है. वे उठकर लेकिन मुकाबला नहीं करते. वे उस बूढ़े मसीहा को भूल गए हैं जिसने उन्हें जमीन पर सपाट रेंगने वाली भीड़ न समझकर अंगरेजों की संगीनों के सामने अपनी नंगी छाती अड़ाने को कहा था.
गली गली, गांव गांव, घर घर माननीय विधायकों और मंत्रियों और उसके छह महीने बाद माननीय सांसदों के स्वागत समारोह, अभिनंदन के ठनगन और वायदों की बरसात के बादल छितरायेंगे.
हर विधायक और सांसद की पेशवाई और किसी किसी की सूबेदारी में भूगोल को आरियों से चीरकर उनकी निजी मिल्कियत में बदल दिया जाता है. अपने संवैधानिक और कानूनी अधिकारों के रहते भी लोग रियाया की तरह गिड़गिड़ाते हैं.
यही तो वे अंगरेजों के ज़माने में कर रहे थे. तो क्या गोरे अंगरेज़ों की चमड़ी फकत गेहुंए रंग में बदल गई है. हुकूमत की तासीर नहीं बदली.
पानी के बुलबुलों की तरह उम्मीदें टूट जाती हैं. फिर गुब्बारे आसमान में उछाले जाते हैं. आओ हम पर भरोसा करो. हम उड़नखटोले हैं. तुम्हें तुम्हारी उम्मीदों की मंज़िलेमकसूद तक ले जाएंगे. लोग यकबयक उससे गिर पड़ते हैं. उनका सपना टूट जाता है.
यथार्थ की कड़ियल धरती पर पेट्रोल, डीज़ल, दवाइयों, बच्चों की फीस, बेटी की दवा और बेटे की बेरोज़गारी के नामालूम कीड़े मकोड़े उन्हें काटने लगते हैं.
उन्हें लगता है वे कब तक मुक्तिबोध की कविता के संदेश की तरह गर्म टीन की सतह पर नंगे पांव चलते रहेंगे. फिर भी आईन है कि उस पर अब भी हर पस्तहिम्मत, उम्मीदजदा और नामालूम इंसान का भरोसा तो कायम है.