चुनाव में किसान कहां हैं?
देविंदर शर्मा
सुपर स्टार अमिताभ बच्चन अपने कानों पर विश्वास नहीं कर सके.कौन बनेगा करोड़पति शो में हॉट सीट पर उनके सामने महाराष्ट्र के एक छोटे किसान बैठे थे, जो चार एकड़ जमीन पर खेती करते हैं.
जब उनसे पूछा गया कि वह साल भर में कितना कमा लेते होंगे, तो अनंत कुमार नामक किसान ने कुछ इस तरह जवाब दिया, ‘साल में पचास-साठ हजार से ज्यादा नहीं और उसमें से आधा वह बीज खरीदने पर खर्च कर देते हैं और अपने परिवार को केवल एक ही शाम खाना खिला सकते हैं.’
यह सवाल फिर दोहराया गया. अन्नदाताओं की दुर्दशा सुनकर अमिताभ बच्चन ने राष्ट्र से अपील की कि वे आगे बढ़कर किसानों की मदद करें. भले ही मैं प्रतिष्ठित फिल्म स्टार द्वारा दर्शाई गई चिंता की सराहना करता हूं, लेकिन तब उनकी प्रतिक्रिया कितनी हैरानी भरी होगी, जब उन्हें पता चलेगा कि अनंत कुमार कोई अपवाद नहीं हैं.
उन्होंने जो कहा, वह भारतीय कृषि के लिए काफी हद तक सच है. कई अध्ययनों से पता चला है कि 58 फीसदी से अधिक किसान हर रात भूखे सोते हैं. क्या विडंबना है कि देश के लिए अन्न उपजाने वाले लोग भूखे सो रहे हैं.
वर्ष 2016 के आर्थिक सर्वे के मुताबिक, भारत के 17 राज्यों में (लगभग आधे देश में) खेतिहर परिवारों की औसत आमदनी सालाना 20 हजार रुपये से कम है. नीति आयोग ने बताया कि वर्ष 2010 से 2015 के बीच देश भर में किसानों की वास्तविक आय में वार्षिक वृद्धि दर आधा प्रतिशत से कम (वास्तव में 0.44 प्रतिशत) रही. और अगर मुद्रास्फीति से समायोजित करें, तो पिछले चालीस वर्षों में किसानों की आय स्थिर रही है. जाहिर है, कृषि क्षेत्र का संकट भीषण है.
मुख्यतः इसी कारण किसानों का गुस्सा सड़कों पर उतरता है. शायद ही ऐसा कोई सप्ताह हो, जब देश के किसी न किसी हिस्से में किसानों का विरोध प्रदर्शन न देखा जाता हो.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, वर्ष 2014 में 687 विरोध प्रदर्शन हुए थे, जो बढ़कर 2015 में 2,683 और 2016 में 4,837 हो गए. यानी पिछले तीन वर्षों में किसानों के विरोध प्रदर्शन में सात गुना वृद्धि हुई है, जो किसानों के बढ़ते गुस्से को प्रतिबिंबित करता है. नासिक से मुंबई तक लांग मार्च और हाल ही में हरिद्वार से नई दिल्ली तक किसान यात्रा के बाद कुछ और बड़े विरोध प्रदर्शन की योजना बनाई गई है, जिनमें आदिवासियों और भूमिहीनों का एक बड़ा मार्च भी शामिल है.
नाराज किसानों का विरोध लगातार बढ़ ही रहा है. किसानों के बड़े विरोध प्रदर्शन तीन साल से फसलों की कीमत घटने के चलते किसानों के गुस्से की परिणति हैं.
2019 के लोकसभा चुनाव से पहले पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव भी होने वाले हैं. इनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य शामिल हैं, जहां ग्रामीण मतदाताओं की हिस्सेदारी ज्यादा है. कुछ वैसे राज्य भी हैं, जहां किसानों के विरोध प्रदर्शन नियमित होते हैं और सुर्खियों में रहते हैं-महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में किसानों ने शहरी क्षेत्रों में सब्जियों और दूध की आपूर्ति रोकी, जिसके कारण पुलिस गोलीबारी में पांच किसानों की मौत भी हो गई.
लेकिन जब किसानों का गुस्सा स्पष्ट रूप से दिख रहा है, तो सवाल उठता है कि क्या यह राजनीतिक दलों को अपने चुनावी एजेंडे को फिर से परिभाषित करने के लिए मजबूर करेगा, जिससे कृषि आर्थिक विकास का मुख्य आधार बन सके. ऐसा क्यों है कि जब चुनाव आते हैं, तब सभी राजनीतिक दल किसानों से उनकी सभी मांगें पूरी करने का वायदा करते हैं? पर एक बार जब चुनाव खत्म हो जाता है, तब किसान आर्थिक रडार से गायब हो जाते हैं और त्याग दिए जाते हैं.
मैं पिछले कम कम से कम तीस साल से ऐसा होते देख रहा हूं. योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश में किसानों के सभी बकाया ऋण माफ करने का वायदा किया था, लेकिन वास्तव में हर छोटे किसान के अधिकतम एक लाख रुपये के कर्ज माफ किए गए.
पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह ने किसानों के सभी कर्जे (निजी व सार्वजनिक बैंकों से लिए) माफ करने का वायदा किया था, लेकिन सत्ता में आने के बाद उन्होंने अब तक केवल 900 करोड़ रुपये का कर्ज माफ किया है. जबकि कुल बकाया ऋण 86,000 करोड़ रुपये से ज्यादा है. महाराष्ट्र में कुल 16,000 करोड़ रुपये के कर्ज माफ किए गए, जो कि 34,000 करोड़ रुपये के कुल वायदे के आधे से भी कम है.
यह सच है कि किसान आंदोलन बदलाव लाने, धारणाओं व आर्थिक नीतियों को बदलने में नाकाम रहे हैं. उन्होंने काफी संघर्ष किया है, लेकिन आंदोलन अभी दो प्रमुख मांगों के आसपास अटका हुआ है-सभी कृषि ऋणों की माफी और स्वामीनाथन आयोग के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि, जो निश्चित रूप से जरूरी है.
लेकिन जब तक किसान संगठन समाज के अन्य वर्ग को प्रदान किए जाने वाले सभी निवेश और वित्तीय सहायता के बारे में अध्ययन, विश्लेषण और तुलना करने में सक्षम नहीं होंगे, तब तक यह स्पष्ट करना आसान नहीं होगा कि कृषि संकट कैसे गलत नीतियों का नतीजा है.
आर्थिक नीतियों को जान-बूझकर इस तरह तैयार किया गया है कि खेती आर्थिक रूप से व्यावहारिक न हो. यही वह पैमाना है, जिसे हमेशा सरकारों ने लागू किया है. मध्य प्रदेश में भावांतर योजना और फसलों को खरीदने का कोई प्रावधान किए बिना उच्च एमएसपी की घोषणा जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर कोई भी संरचनात्मक बदलाव नहीं आया है.
यह रोग बहुत गहरा है और कृषि क्षेत्र में खुशहाली लाने के लिए नीतियों को पूरी तरह दुरुस्त किए जाने की जरूरत है. वास्तव में जिस तरह की नीतियां बनाई जा रही हैं, वे स्पष्ट रूप से कॉरपोरेट कृषि की दिशा में झुकी हुई हैं. इसमें सबसे शीर्ष पर भूमि कानूनों में सुविधाजनक संशोधन है, ताकि उद्योगों की इच्छाशक्ति पर कृषि भूमि का उपयोग करना आसान हो सके. आर्थिक सुधारों को जीवित रखने के लिए वास्तव में कृषि का त्याग किया जा रहा है. क्या 2019 का चुनाव बदलाव लाएगा? मुझे ऐसा नहीं लगता.
जब तक किसानों को यह एहसास नहीं होगा कि बस बहुत हो चुका, तब तक कुछ नहीं बदलने वाला. सत्तर वर्षों से उन्हें सभी पार्टियों के राजनीतिक दलों ने हल्के में लिया है. जिस दिन किसान जाति, धर्म और राजनीतिक विचारधारा से ऊपर उठकर किसान के रूप में वोट करेंगे, उसी दिन राजनीतिक परिदृश्य बदलेगा. फिर आर्थिक नीतियां भी बदल जाएंगी.