राष्ट्र

कांग्रेस में नई जान फूंकने की कवायद

नई दिल्ली | विशेष संवाददाता: शुक्रवार को जंतर-मंतर में कांग्रेस नेतृत्व ने पहली बार गिरफ्तारी दी. इसे कांग्रेस में नई जान फूंकने की कवायद के रूप में देखा जा रहा है. दिल्ली में जंतर-मंतर पर कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी, उपाध्यक्ष राहुल गांधी तथा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में ‘लोकतंत्र बचाओ’ आंदोलन के तहत यह गिरफ्तारी दी. इसमें दो मत नहीं कि इन दिनों कांग्रेस अपने जीवन के मुश्किलात हालात में से गुजर रही है. ऐसा इंदिरा गांधी के समय भी हो चुका है परन्तु उस समय कांग्रेस के पास इंदिरा गांधी के समान नेतृत्व था जिसकी कमी आज संगठन महसूस कर रहा है.

इंदिरा गांधी के आपातकाल ने कांग्रेस को जितनी क्षति पहुंचाई तथा उससे जनता जितना विमुख हो गई थी उस कमतर नहीं तो ज्यादा नुकसान यूपीए की मनमोहक नीतियों ने पहुंचाया है. इंदिरा गांधी के समय दुनिया में शीत युद्ध जारी था तथा भारत को सोवियत रूस के खेमे में गिना जाता था. सोवियत रूस के टूटने के बाद भारत ने क्रमशः अमरीका खेमे की नीतियों को देश में लागू करना शुरु कर दिया. तत्कालीन प्रधानमंत्री राव द्वारा लाई गई नई आर्थिक नीतियों ने जनता से उसे सामाजिक सुरक्षा को धीरे-धीरे कम करना शुरु कर दिया. बाद की सरकारों ने भी इन्ही नीतियों को आगे बढ़ाया.

नतीजन देश की जनता में बेरोजगारी बढ़ी, महंगाई बढ़ी, शिक्षा तथा चिकित्सा महंगी होने लगी. वास्तव में सरकारों ने जन कल्याणकारी कामों से अपने हाथ पीछे खींच लिये. अर्थव्यवस्था का सारा जोर उत्पादन, रोजगार, क्रय शक्ति बढ़ाने से हटकर वित्तीय निवेश, वैश्विक व्यापार की ओर हो गया. फलतः देश में जहां एक ओर बेरोजगारी बढ़ी वहीं सरकार ऊचे स्तर पर भ्रष्ट्रचार बढ़ने लगा. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में देश में जितने घोटाले हुये वैसा पहले कभी नहीं हुआ था.

टू जी स्पेकट्रम घोटाला, कोल घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, सत्यम घोटाला, अगस्तावेस्टलैंड घोटाला, टाटा ट्रक घोटाला तथा आदर्श घोटाला इनमें प्रमुख है. इन सबसे जनता का कांग्रेस के प्रति मोहभंग हो गया. इसी के चलते जनता ने विकल्प के तौर पर अन्ना हजारे के आंदोलन को अपना समर्थन दिया. जनता को भ्रष्ट्राचार के विकल्प के तौर पर एक नई धारा दिखाई दी. इस बीच कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेतृत्व को उभारने की कोशिश शुरु हुई. परन्तु तब तक माहौल कांग्रेस के इतने खिलाफ़ जा चुका था कि राहुल गांधी की ईमानदार कोशिश परवान न चढ़ सकी.

सबसे गौर करने करने वाली बात यह है कि जिन मनमोहक नीतियों के कारण जनता कांग्रेस से विमुख हुई थी उसकी कांग्रेस नेतृत्व ने न तो खुलकर आलोचना की और न ही वैकल्पिक नीतियां पेश की. कांग्रेस ने केवल गांधी परिवार के वंशज को नेता के तौर पर पेश किया जिसे जनता ने पसंद नहीं किया.

इस बीच गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के रूप में देश के सामने एक विकल्प पेश किया गया. जिसने लोगों को अच्छे दिन वापस लाने का वादा किया, महंगाई कम करने का दंभ भरा, विदेशों से काला धन वापस लाने का दावा किया, रोजगार पैदा करने की बात की. समस्याओँ से जूझ रही जनता के सामने एक विकल्प पेश किया गया.

इस बीच कार्पोरेट घरानों को भी लगने लगा कि उन्हें आर्थिक संकट से उबारने के लिये नये निवेश, नये नीतियां, नये श्रम सुधार लाने के लिये एक शक्तिशाली व्यक्ति की जरूरत है. दूसरी ओर राहुल गांधी किसी तरह से इस सांचे में फिट नहीं बैठ रहे थे. कार्पोरेट मीडिया ने रागा की खिल्ली उड़ाई तथा नमो का गुनगान करना शुरु कर दिया.

साल 2009 के आम चुनाव तथा पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद लेफ्ट भारत में अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रहा था. जनता के सामने एक ही राष्ट्रीय विकल्प था नतीजन भारी बहुमत से 2014 में मोदी सरकार केन्द्र में सत्तारूढ़ हो गई.

मोदी सरकार के दो साल के कार्यकाल में न तो दावे के अनुसार रोजगार बढ़ा, न महंगाई घटी तथा और न ही काला धन वापस आया. वैसे भी काला धन वापस लाना एक चुनावी नौटंकी से ज्यादा कुछ नहीं था. इसके उलट लव जिहाद, बीफ पर राजनीति, विश्वविद्यालयों के छात्र राजनीति में हस्तक्षेप हुआ. जिसे कांग्रेस ने जरूर राहुल गांधी के नेतृत्व में भुनाने की कोशिश की गई परन्तु इससे तुरंत संसद में संख्या बल फिलहाल को बदला नहीं जा सकता. यह सही है कि जिंदा कौमे पांच साल तक इंतजार नहीं करती पर लोकसभा चुनाव पांच सें एक बार ही होता है. हां, राज्यों में भाजपा को जरूर नुकसान हुआ.

इस बीच अगस्ता का भूत ठीक उस तरह से कांग्रेस पर सवार हो गया जैसे विक्रमादित्य के कंधे पर बेताल सवार होता है. यह बेताल भी इसी विक्रमादित्य की ही पैदाइश है इसलिये इससे जल्द छुटकारा मिलना संभव नहीं है. कांग्रेस ने इस बीच लोकतंत्र बचाओं रैली का आयोजन किया. बेशक, लोकतांत्रिक ढ़ंग से चुने गये राज्य सरकारों को कथित तौर पर कमजोर करने की कोशिश हो रही है परन्तु देश की जनता की सहानुभूति अभी भी कांग्रेस के साथ तो नहीं है.

यह सवाल जरूर कांग्रेस नेतृत्व से पूछा जाना चाहिये कि आखिरकार क्यों विजय बहुगुणा के नेतृत्व में हरीश रावत की खिलाफ़त शुरु की गई. संगठन में नई जान फूंकने के लिये केवल आंदोलन करना ही काफी नहीं है. जरूरत इस बात की है कि राज्यों के संगठन में लोकतंत्र बचा रहे.

कांग्रेस ने जरूर पश्चिम बंगाल में लेफ्ट के साथ मिलकर नई पहल की है. उसका क्या नतीजा निकलता है वह 19 मई को ही पता चलेगा.

हम बात कर रहे थे कांग्रेस में नई जान फूंकने की. इसके लिये यह भी जरूरी था कि कांग्रेस की बुरी गत क्यों हुई उसकी भी विवेचना कर ली जाये. कांग्रेस जब तक नई नीतियों के साथ आंदोलन में नहीं उतरती है तब तक उसके लिये जनता का समर्थन मिलना कठिन है. जंतर-मंतर पर कांग्रेस का लोकतंत्र बचाओ आंदोलन अगस्ता के बेताल के खिलाफ है इसे सहज ही समझा जा सकता है.

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