शिक्षा का मतलब
संदीप पांडेय
प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में विद्यालय जाने वाले बच्चों को यह गुर सिखाए कि बोर्ड की परीक्षा को अच्छे अंकों से कैसे उत्तीर्ण करें. दूसरी तरफ जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में कक्षा में उपस्थिति को अनिवार्य करने का निर्णय लिया जा रहा है. इन बातों का शिक्षा से क्या मतलब है?
अब दुनिया भर के शिक्षाविद् यह मानने लगे हैं कि यदि शिक्षा सीखने की प्रकिया है तो सामूहिक लिखित परीक्षा लेकर यह मूल्यांकन नहीं हो सकता कि बच्चे ने कितना सीखा है. किसी विषय के बारे में सीखना इस अर्थ में कि विद्यार्थी ज्ञानी बन जाएं और परीक्षा में अच्छे अंक लाना दोनों अलग अलग बातें हैं. जिस देश में बच्चे और शिक्षक भी पढ़ाई से ज्यादा ध्यान ट्यूशन और कोचिंग पर देते हैं वहां तो सिखाया ही यही जा रहा है कि अच्छे अंक कैसे लाएं. नरेन्द्र मोदी से ज्यादा अच्छे विशेषज्ञ हैं जो बच्चों को यह बात आसानी से समझा सकते हैं. परन्तु दिक्कत यह है कि शिक्षा का मतलब अब इस देश में सिर्फ परीक्षा में अच्छे अंक कैसे लाए जाएं वहीं तक सीमित हो गया है. नरेन्द्र मोदी भी जाने-अनजाने इसी धारणा को मतबूत कर रहे हैं.
शिक्षा का मतलब होता है जिस विषय का अध्ययन किया जा रहा उसकी समझ विकसित करना. बच्चे अपनी रूचि के अनुसार विषय का चयन कर अपने तरीके से अपनी गति से सीखते हैं. शिक्षक की भूमिका सहयोगी की ही होनी चाहिए. अगर हम बच्चे के साथ जबरदस्ती करेंगे तो हो सकता है कि वह किसी दबाव में अंक तो अच्छे ले लाए लेकिन उसे न तो विषय से लगाव होगा न ही वह कुछ ऐसा सीख पाएगा जिसका वास्तविक जीवन में उपयोग हो सके.
शिक्षा हमेशा सामाजिक सरोकारों से जुड़ी होनी चाहिए. बच्चे का सर्वांगीण विकास होना चाहिए. उसे अपनी रूचि के अनुसार ज्ञान, कौशल व अनुभव हासिल करने चाहिए जो उसे लगे कि उसकी जीवन में मदद करेंगे. यदि बच्चों के लक्ष्य बड़े लोग तय करेंगे और वही बताएंगे भी कैसे उन लक्ष्यों को हासिल किया जाए तो शिक्षा की औपचारिक प्रक्रिया तो पूरी हो सकती है लेकिन उसकी सार्थकता समाप्त हो जाएगी.
कक्षा में उपस्थिति अनिवार्य करने से शिक्षा बोझिल हो जाती है. शिक्षण की गुणवत्ता ऐसी होनी चाहिए कि छात्र कक्षा की तरफ खिंचा चला आए. जाहिर है इसके लिए शिक्षक काबिल होना चाहिए. जब शिक्षक काबिल नहीं होते और प्रशासकों को अपने व छात्रों पर भरोसा नहीं होता तभी वे कक्षा में उपस्थिति को अनिवार्य करने की बात करते हैं. छात्र कक्षा में शारीरिक रूप से मौजूद होते हुए भी यदि सीख नहीं रहा तो इससे तो अच्छा है कि वह पुस्तकालय जाकर अथवा शिक्षक या अन्य छात्रों से अतिरिक्त समय में विषय को समझने की कोशिश करे.मूल्यांकन सिर्फ इस बात का होना चाहिए कि छात्र ने विषय को कितनी अच्छी तरह से समझ लिया है. यदि छात्र ने विषय नहीं समझा है तो उसे दोबारा मौका मिलना चाहिए. दोबारा भी नहीं समझा तो तिबारा और तब तक मौके मिलने चाहिए जब तक वह समझ नहीं जाता. इससे पहले मूल्यांकन पूरा करने का कोई औचित्य नहीं है. कोई व्यक्ति एक बार पढ़ने में ही कोई चीज समझ जाता है और किसी को कई बार पढ़ना पड़ता है. मुख्य बात समझना है न कि आपने कितना समय लिया. इसलिए परीक्षा को एक ही मौके पर व वह भी निश्चित समय में पूरा कर लेना इसका कोई अर्थ नहीं है और वह भी प्रतिस्पर्धा वाले माहौल में. पता नहीं क्यों पढ़े-लिखे लोग अनावश्यक कृत्रिम प्रतियोगी माहौल निर्मित करते हैं जैसे वास्तविक जीवन में कभी होता नहीं?
कोई भी बच्चा उनुत्तीर्ण नहीं होना चाहिए. यदि बच्चा असफल है तो यह असफलता शिक्षक की मानी जानी चाहिए क्योंकि बच्चा तो शिक्षक के सामने अज्ञानी के रूप में ही प्रस्तुत हुआ है. उसे ज्ञानी बनाना शिक्षक का काम है. यदि शिक्षक छात्र को ज्ञानी नहीं बना पा रहा तो इसका मतलब यही होगा कि शिक्षक को नहीं मालूम कि छात्र को कैसे ज्ञान दिया जाए?
फिर सबसे बड़ा सवाल है कि शिक्षा ग्रहण कर हमारी क्या भूमिका है? यदि हम अपनी शिक्षा का इस्तेमाल सिर्फ अपने या अपने परिवार के निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिए कर रहे हैं, भ्रष्टाचार करने के लिए कर हैं, पर्यावरण या अन्य मनुष्यों को नुकसान पहुंचाने या उनका अपमान करने के लिए कर रहे हैं तो ऐसी पढ़ाई-लिखाई से क्या फायदा?
हाल ही में मुझे राष्ट्रीय स्तर के विधि विश्वविद्यालय नलसार, हैदराबाद में ’विकास अध्ययन’ पर एक आठ दिनों की अवधि का लघु कोर्स पढ़ाने का मौका मिला. कक्षा में चर्चा के साथ छात्रों को यह काम दिया गया कि समीप की आंगनबाड़ी में जाएं व प्रत्येक छात्र एक छोटे बच्चे का वजन व लम्बाई मापे तथा यह देखे कि बच्चा या बच्ची कुपोषित तो नहीं? यह जानने के लिए कि बच्चे की स्थिति के क्या कारण हो सकते हैं उन्हें निम्न आय वर्ग के उनके परिवारों में जाकर इस बात का अध्ययन करना था कि ये परिवार सीमित आए में कैसे अपना गुजारा करते हैं? आंगनबाड़ी, शौचालय, पीने के जल, आदि किसी भी विषय पर सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत सरकार से कोई सवाल पूछना था और उन आठ दिनों में जब तक कोर्स चला अखबारों का अध्ययन कर यह देखना था कि विकास सम्बंधी जिन विषयों पर कक्षा में चर्चा हुई, जो सब आम इंसान के जीवन से जुड़े विषय हैं, उन्हें अखबार कितनी जगह देते हैं?
यह सारा काम कर अन्य छात्रों के सामने अंतिम कक्षा में प्रस्तुतिकरण करना था व उसी प्रस्तुतिकरण को एक आख्या के रूप में जमा करना था. इस मूल्यांकन विधि में चूंकि सबको अलग बच्चे व परिवार से मिलना था, अलग विषय पर सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करना था व अपनी पसंद के अखबार का अध्ययन करना था तो प्रतियोगिता का माहौल खत्म हो गया. कुछ छात्रों ने पूछा कि क्या उपर्युक्त काम मिल कर कर सकते हैं तो उसमें उनको यह छूट दी गई कि एक से ज्यादा लोग मिलकर कर सकते हैं बर्शते काम भी उतना गुना हो. जैसे दो छात्र मिलकर कर रहे हैं तो वे दो बच्चों व परिवारों का अध्ययन करेंगे. प्रस्तुतिकरण सबको अपना अपना ही करना था. अपने प्रस्तुितकरण की तैयारी में ही छात्रों को जितनी सामग्री का अध्ययन करना था वह उन्होंने किया.
उपर्युक्त विधि के बारे में कल्पना कर इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि छात्र किस प्रक्रिया में ज्यादा सीखेंगे- सिर्फ पुस्तकों का अध्ययन कर परीक्षा देने से अथवा जीवन के अनुभवों से जिसमें पूरी आजादी हो और कोई आपकी निगरानी करने के लिए न खड़ा हो और न ही कक्षाओं में जेलों में बंद कैदियों की जैसे हाजिरी ली जाती है वैसी हाजिरी ली जा रही हो.