यादें दिलीप कुमार के बहाने
कनक तिवारी
साइंस कॉलेज विद्यार्थी जीवन में बीमारी के कारण रायपुर के डी.के. अस्पताल के जनरल वॉर्ड का आतिथ्य ग्रहण करने कई दिनों तक रहना पड़ा. बगल के बिस्तर पर रामा नाम का भिखारी मेरे टिफिन बॉक्स में रोज़ बच गए भोजन का बड़ा कब्जेदार हो गया था. लजीज़ खाना दोस्त कुलराज जग्गी लेकर आता था. रामा व्यावहारिक ज्ञान का मेरा पहला गुरु बना.
वह मेरा टिफिन हड़पता हुआ कहता, ‘जो रोज़ कतल न कराए, वह थानेदार क्या. जो गांव में किसानों को गुलाम न बनाए, वह ज़मींदार क्या. जो बीमारी में ढाई सेर न खाए, वह बीमार क्या.‘ खाने में मेरी अचानक अरुचि के कारण टिफिन का तीन चैथाई हिस्सा गड़प करने के बाद चोटिल पड़े अर्जुन को आधुनिक गीता का सन्देश यह टिफिनखाऊ कृष्ण देता था. देह पर क्रिकेट की गेंद लगने से चोट के कारण पीठ में मवाद बन गया था. ऑपरेशन किया गया था.
रामा को नहीं मालूम था कि उन्हीं दिनों ‘देवदास‘, ‘अंदाज़‘, ‘जुगनू‘, ‘फुटपाथ‘, ‘दीदार‘, ‘शहीद‘, ‘‘आन‘, ‘मुसाफिर‘, ‘यहूदी‘, ‘दाग‘, ‘शिकस्त‘ और ‘मुगले आज़म‘ देखने के बाद इन फिल्मों के नायक की पराजय, हीनता, एकाकीपन और अंतर्मुखी होने के कारण मेरे दिमाग को उनके कीड़े ने काट खाया था. मेरे रूमानी अस्तित्व में दिलीप कुमार की दुखान्त अदाकारी का ज़हर भरा था. मैं दिलीप साहब की तरह स्वगत में रामा को गुरुदक्षिणा देने का प्रयास करता, ‘जो दिलीप कुमार के डायलॉग न सुनाए, वह ससुरा अदाकार क्या.’
उम्र की उद्दाम ख्वाहिशों पर जो असर ‘देवदास‘ ने हमउम्र दोस्तों पर डाला, वह अब भी हमारी धरोहर है. बाद में मालूम हुआ कि लगातार त्रासदियों में काम करने के कारण इस महानायक को उदासी, खामोशी और नकारात्मकता के दलदल में फंसते जाने का बोध हुआ. उसने इंग्लैंड के दो मशहूर डॉक्टरों निकोलस और वुल्फ सहित भारत के भी मनोचिकित्सक डा0 रमणीकलाल पटेल से इलाज कराया. सबने उसे त्रासदियों से हटकर हल्की फुल्की कॉमेडी फिल्मों में काम करने की सलाह दी और कुछ तेज़ गति से संघर्ष करती स्टंटनुमा फिल्मों में भी.
‘आज़ाद‘, ‘कोहिनूर‘, ‘नया दौर‘, ‘मधुमती‘, ‘पैगाम‘ वगैरह ऐसी सलाह का ही परिणाम हैं. हमारा दिलीप कुमार तो त्रासद फिल्मों के नुकीले पत्थरों पर चलकर ‘देवदास‘ के पड़ाव तक पहुंचा था. हम उसके आंसुओं के आशिक थे. बालिग होने की दहलीज़ आने पर हम गदहपचीसी में थे. हमारी हर संभावित नायिका ने हर दिलीपनुमा नायक को अपने हर अताउल्लाहखान पिता के कारण ससुरा निराश ही तो किया था. हम देवदासों के पिताओं ने भी अलग अलग पारो को रिजेक्ट किया था. हमने बीसियों बार ‘देवदास‘ देखी. हॉस्टल के कमरों, दालानों और डायनिंग हॉल से उठकर कॉलेज के गलियारों और कक्षाओं में हर लड़का अपने दम पर दिलीप कुमार बना घूमता था.
प्राध्यापकों की नजरों से बचता अपनी अपनी पारो को कल्पना में ढूंढ़ता रहता. दिलीप कुमार को अपने अभिनय पर कभी संतोष शायद नहीं हुआ. अन्यथा लगातार तरक्की कैसे करते रहते! हमें दिलीप कुमार वाले अपने अभिनय पर संतोष नहीं गर्व होता. हम सोचते दिलीप कुमार को भी हमारे अभिनय जैसा कुछ करना तो आता है.
एक प्राध्यापक का ज़िक्र ज़रूरी है. रोज़ अपने हज्जाम को सिनेमा हॉल की बाल्कनी में अपने साथ बिठाकर ‘देवदास‘ दिखाते. दिलीप कुमार के बालों की लटें, उनका बार बार माथे को चूमना, उनमें नदी की लहरें उठना, शास्त्रीय नर्तकी की तरह उन लटों का थिरकना, चम्पाकली और अनारकली जैसी कमनीयता के साथ उनका मौन भाषा में नायिका से फुसफुसाना. यह सब उस उस नापितकुलकमलदिवाकर को दूसरे दिन गुरुजी की खोपड़ी में उगाना पड़ता. यथार्थ में रूमान कहां होता है! लेकिन रूमान में ही तो यथार्थ होता है! दिलीप कुमार के रूमान में हमारे लिए कितना यथार्थ था. (अब भी है). ‘सर‘ के सर के यथार्थ में रूमान ला देना उस नाई के लिए संभव नहीं हो रहा था.
वह बेचारा अमिय चक्रवर्ती, विमल रॉय, महबूब खान, रमेश सहगल वगैरह कहां था. वह तो दिलीप कुमार के हेयर डेªसर से भी नहीं मिला था. उसकी दूकान की कैंची सेंसर बोर्ड की कैंची की तरह देवदास बनते प्रोफेसर साहब की लटों को कहीं भी काट देती. केश कांटछांट के कारण देखने लायक नहीं होते. वे नाई को चपत मारना चाहते.
ट्रेजेडी के महानायक ने अपनी गलतियों के कारण किसी आम आदमी को मारना कहां सिखाया था. टेªजेडी का नायक वह महान वीर था जो अपनी निर्वीर्य कुंठा के कारण पारो के माथे पर मछली पकड़ने वाली बंसी की चोट से निशान भर बना देता है. अद्भुत उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने शायद संकेतित नहीं किया. यह तो निर्देशक बिमलदा का कमाल था.
उन्होंने नदी किनारे नायक देवदास से चोट खाती पारो बनी सुचित्रा सेन में एक तड़पती हुई मछली के जीवन की अमरता भर दी. प्रोफेसर साहब के लिए हम कई बिमलरॉय थे. उनकी लटों को जानबूझकर नाई की कैंची की गलती के कारण ऊलजलूल ही बताते. नाई को दिलीप कुमार के कारण ऐसा ग्राहक अलबत्ता मिल गया था. वह केशकर्तन के अतिरिक्त उसे मनोरंजन की बांग्ला दुनिया में रोज़ ले जाता. नाई हमसे कहता, ‘भइया, इनके बाल सुधारते काटते हमको अपने घर में यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि हमारी पारो है या चंद्रमुखी.‘
उन्हीं दिनों भिलाई के एक सिनेमा हॉल में दिलीप कुमार की ‘कोहिनूर‘ फिल्म देखने मित्र रामानुज शर्मा के साथ जा रहा था. रामानुज से बड़ा दिलीप कुमार का भक्त यदि कोई उसे मालूम होता, तो मित्र उस बेचारे की हत्या कर देता. ठीक हमारे आगे एक लड़का देवदास के अंदाज़ में चल रहा था. फिर ठीक उसके भी आगे दो लड़के बतियाते जा रहे थे.
लक्ष्य सबका फिल्म में उसे देखना था जिसे बाद में सायरा बानो ने अपना कोहिनूर कहा. सबसे आगे वाले लड़के ने अपने दोस्त से कहा ‘यार, यह फिल्म नहीं देखते. बहुत बोर है.‘ हमारे आगे चल रहे देवदास ने कटाक्ष करने वाले के मुंह पर जोरदार थप्पड़ रसीद किया. बोला, ‘साले, दिलीप कुमार की फिल्म को बोर कहता है.‘ मेरे दोस्त रामानुज का पौरुष जाग उठा. दिलीप कुमार के भक्तों जैसा वह पौरुष तो बाद में दिलीप कुमार में भी ‘विधाता‘, ‘क्रांति‘, ‘मशाल‘ वगैरह में जागना ही था.
रामानुज ने आक्रमणकारी से कहा, ‘दिलीप कुमार की फिल्म को बोर कहने वाले को तुमने केवल एक तमाचा मारा है. तुमको शर्म नहीं आती.‘ आक्रमणकारी को शह देने वाला हर व्यक्ति उसे शुभचिंतक लगता है और पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर जमानतदार भी. फिल्म को बोर कहने वाले लड़के पर थप्पड़ों की बरसात हो गई. बेचारा जहां भी होगा, दिलीप कुमार का ठांेका पीटा भक्त हो ही गया होगा.