धुएं से होती मौते
नई दिल्ली | एजेंसी: असगर अली सिद्दीकी आज 45 वर्ष की अवस्था में ही चलने फिरने या सीढ़ियां चढ़ने में हांफने लगते हैं. इसका एकमात्र कारण यह है कि 15 वर्ष की अवस्था से ही वह धूम्रपान कर रहे थे.
सिद्दीकी ने 35 वर्ष की अवस्था में चिकित्सकों का परामर्श लिया, जिसमें क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज, सीओपीडी होने का पता चला. उसके बाद उन्होंने धूम्रपान छोड़ दी है, लेकिन उससे उनकी समस्या दूर नहीं हो पाई.
सीओपीडी में सांस लेने में कठिनाई होती है, क्योंकि धूम्रपान के कारण फेफड़े तक का श्वसन मार्ग संक्रमित होकर पतला हो जाता है.
सीओपीडी और अस्थमा जैसी श्वास संबंधी बीमारियों से 2012 में 12.7 लाख लोगों की मौत हुई, जो 1998 के 5.8 लाख मौतों से 119 फीसदी अधिक है.
श्वास संबंधी रोग देश में दूसरी सबसे बड़ी जानलेवा बीमारी है और इन रोगों से शहरों की अपेक्षा गांव में अधिक लोग पीड़ित हैं.
रंजना वहिले ने जब नई दुल्हन के रूप में ससुराल में कदम रखा था, तब उसने लकड़ी के जलावन पर खाना बनाने की तनिक भी फिक्र नहीं की थी. 1980 के दशक में पुणे में जीवनशैली कुछ ऐसी ही थी.
जलावन से उठने वाले धुएं ने उसके फेफड़े को अपना शिकार बनाया और यह उसे 10 साल पहले 45 वर्ष की अवस्था में महसूस हुआ.
अब वह गैस पर खाना बनाती है, लेकिन सीओपीडी बीमारी ने उसके शरीर में जगह बना ली है.
सीओपीडी से पीड़ितों की संख्या शहरों के मुकाबले गांव में तीन गुना अधिक है. 1996 से 2012 के बीच सीओपीडी ग्रामीणों का अनुपात 9.54 फीसदी से बढ़कर 14.19 फीसदी हो गया. इसी दौरान शहरों में यह अनुपात 3.46 फीसदी से बढ़कर 5.15 फीसदी हो गया.
इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च द्वारा कराए गए ‘इंडियन स्टडीज ऑन एपीडेमियोलॉजी ऑफ अस्थमा, रेस्पिरेटरी सिंपटम्स एंड क्रोनिक ब्रांकाइटिस’ के मुताबिक, सीओपीडी गरीबों की बीमारी है.
आईएनएसईएआरसीएच के प्रमुख शोधार्थी और चंडीगढ़ के पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च के डिपार्टमेंट ऑफ पल्मोनरी मेडिसीन के पूर्व प्रमुख सुरिंदर के जिंदल ने कहा, “क्रोनिक ब्रांकाइटिस 62.9 फीसदी मरीज गरीब तबके से थे, जबकि 3.2 फीसदी मरीज अमीर तबके से थे.”
आईएनएसईएआरसीएच के मुताबिक, पुरुषों में सीओपीडी उत्पन्न होने का सबसे बड़ा कारण धूम्रपान होता है.
महिलाओं में सीओपीडी का प्रमुख कारण घरों की हवा का दूषित होना है. यह बात पुणे के पल्मोनोलॉजिस्ट और छाती रोग विशेषज्ञ अरविंद भोमे ने कही.
यातायात से पैदा होने वाला प्रदूषण, पटाखे, औद्योगिक धुएं खदानों से निकलने वाली धूल जैसे घरों से बाहर के प्रदूषण भी सीओपीडी पैदा कर सकते हैं.
उल्लेखनीय यह भी है कि भारतीय की छाती कमजोर होती है, जिससे समस्या और बढ़ जाती है.
सीओपीडी जब एक बार हो जाता है, तो वह ठीक नहीं होता है.
नई दिल्ली के प्रीमियस अस्पताल के चिकित्सक अनुराग सक्सेना ने कहा, “सीओपीडी लाइलाज है और इससे फेफड़े में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है.”
चिकित्सा से कुछ राहत मिल सकती है, जो पूर्ण इलाज नहीं दे सकती. ऑक्सीजन थेरेपी का कुछ बेहतर असर होता है, लेकिन उसकी कीमत गरीब नहीं चुका सकते. बीमारी बढ़ जाने पर सघन देखभाल की जरूरत होती है, जिसकी भी कीमत गरीब नहीं चुका सकते.
इस तरह की बीमारी खास तौर से गरीबों को होना उनकी स्थिति को और भी विकट बना देता है.