एक जज की मौत
जज लोया के मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश भारत की न्यायपालिका के लिए ठीक नहीं है. 19 अप्रैल को उच्चतम न्यायालय ने न्यायाधीश बीएच लोया की 1 दिसंबर, 2014 को हुई मौत के मामले में निर्णय दिया. उच्चतम न्यायालय ने माना कि सत्र न्यायालय के जज की मौत प्राकृतिक वजहों से हुई थी. इस मामले पर जितने सवाल उठे थे, उन्हें देखते हुए इस निर्णय पर कई सवाल खड़े होते हैं.
12 जनवरी, 2018 को पहली बार यह मामला भारत के मुख्य न्यायाधीश के सामने आया. उसी दिन सर्वोच्च अदालत के चार वरिष्ठ जजों ने मामले के आवंटन को लेकर अभूतपूर्व कदम उठाते हुए प्रेस वार्ता की. उस वार्ता में जब पूछा गया कि प्रेस वार्ता करने को निर्णय देने की आखिरी वजह लोया मामला है, न्यायमूर्ति गोगोई ने इसका जवाब हां में दिया.
ऐसी स्थिति में पारदर्शिता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए यह जरूरी था कि मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा खुद इस मामले की सुनवाई नहीं करते. इस मामले की सुनवाई मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने की. इसमें एएम खानविलकर और डीवाई चंद्रचूड़ भी थे. अपने निर्णय के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने खुफिया विभाग की जांच रिपोर्ट और लोया के साथ जा रहे चार जजों के बयानों को आधार बनाया. इस जांच का आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने नहीं दिया था बल्कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने दिया था. याचिका दाखिल करने वालों के वकीलों ने यह मांग की थी कि इस मामले की नए सिरे से निष्पक्ष जांच हो. हालांकि, याचिकाकर्ताओं और उनके वकीलों के प्रति उच्चतम न्यायालय का रवैया हैरान करने वाला था. संभावित हस्तेक्षप और न्यायपालिका पर हमले को रोकने की कोशिश के तौर पर अदालत ने उन्हें ही अवमानना के कटघरे में लाने की कोशिश की.
लोया का मामला दिसंबर, 2005 के सोहराबुद्दीन शेख और कौसर बी की मुठभेड़ में हुई मौत के मामले से जुड़ता है. शेख की भाई की याचिका पर सर्वोच्च अदालत ने मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी थी. उस समय गुजरात के गृह मंत्री रहे अमित शाह की गिरफ्तारी और बाद में मिली जमानत के बावजूद उच्चतम न्यायालय ने यह मामला मुंबई स्थानांतरित कर दिया और आदेश दिया कि सत्र न्यायालय के एक जज इसकी सुनवाई करेंगे. उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा था कि शुरू से अंत तक एक ही जज द्वारा सुनवाई की जाएगी. जाहिर है कि अदालत ने गुजरात में संभावित राजनीतिक हस्तक्षेप को देखते हुए यह निर्णय लिया होगा. सोहराबुद्दीन मामले में गवाह तुलसीराम प्रजापति की भी मुठभेड़ में हुई मौत की जांच का काम सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई को सौंप दिया. अदालत ने दोनों मामलों को जोड़ दिया और बांबे उच्च न्यायालय को सुनवाई करने को कहा. यह साफ है कि विभिन्न जजों ने समय-समय पर पूरे मामले को बेहद संवेदनशील माना और यह भी माना कि पूरी जांच ठीक से नहीं हुई है.
मुंबई में मामले की सुनवाई का काम सबसे पहले जज जेटी उत्पत को सौंपा गया. जब शाह ने हर सुनवाई में खुद के शामिल नहीं होने की अनुमति मांगी तो जज ने एक सीमा से अधिक छूट देने से मना कर दिया और उन्हें अदालत में मौजूद रहने का निर्देश दिया. यह होता उसके पहले ही उच्च न्यायालय की समिति के एक आदेश के जरिए जज उत्पत को हटाकर जज लोया को लाया गया. पहला सवाल जिसका जवाब सुप्रीम कोर्ट ने नहीं मांगा, वो यह कि जब उसने आदेश दिया था कि मामले की सुनवाई शुरू से अंत तक एक ही जज के द्वारा होगी तो फिर जज बदलने में उसकी अनुमति क्यों नहीं ली गई?
एक बार जब जज लोया ने कार्यभार संभाला तो शाह के वकील यह चाहते थे कि जल्दी से जल्दी अमित शाह को बरी किए जाने की याचिका पर सुनवाई हो जाए. लेकिन जज लोया ने निष्पक्ष ढंग से काम जारी रखा. इसी बीच वे अपने एक सहकर्मी की शादी में शामिल होने नागपुर गए और वहां उनकी मौत हो गई. इसके बाद जज गोसावी को नियुक्त किया गया और महीने भर के अंदर अमित शाह बरी हो गए. जिस सीबीआई ने कभी अमित शाह को अभियुक्त माना था और उन्हें गिरफ्तार किया था, उसने इस आदेश को चुनौती तक नहीं दी. शेख के भाई ने पहले चुनौती दी लेकिन बाद में याचिका वापस ले ली. अब अमित शाह बिल्कुल मुक्त हो गए.
जितना विवाद इस मामले में हुआ, उसे देखते हुए यह जरूरी था कि अदालत इस मामले की निष्पक्ष जांच कराए. ऐसी जांच में संबंधियों को भरोसे में लेकर उनसे बात करने की जरूरत थी, जजों को इस मामले को और स्पष्ट करने को कहा जाता और पोस्टमार्टम रिपोर्ट की स्वतंत्र विशेषज्ञ से जांच कराई गई होती. लेकिन अदालत ने खुफिया ब्यूरो की रिपोर्ट के आधार पर आदेश दे दिया. जिसे जांच का आदेश उसी राजनीतिक दल की सरकार ने दिया था जिसके अध्यक्ष अमित शाह हैं. अगर सुप्रीम कोर्ट इस मामले को विस्तार से समझना चाहती तो मामले की पड़ताल करके रिपोर्ट लिखने वाले पत्रकार, जज लोया के संबंधियों और चार जजों को बुलाती और निष्पक्ष जांच करती. अदालत को अलग-अलग लोगों के काॅल रिकाॅर्ड की जांच करनी चाहिए थी और स्वतंत्र लोगों को अस्पताल और अतिथि गृह में भेजना चाहिए था.
सुप्रीम कोर्ट का रवैया ठीक नहीं रहा. खास तौर पर ऐसे मामले में जो न्यायापलिका की स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ था और जिसे लेकर चार जजों ने सवाल खड़े किए थे. अगर सर्वोच्च न्यायालय ने मामले की जांच के आदेश दे दिए होते तो कोई पूर्वाग्रह नहीं दिखता. संभव है कि इस जांच में भी कुछ नहीं निकलता. लेकिन कम से कम न्यायपालिक का सिर तो उठा रहता.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय