Columnist

दलित-पर्यटन के खिलाफ कोर्ट जाएं

सुनील कुमार
उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एक दलित बस्ती में जाने वाले थेतो एक दिन पहले अफसरों ने वहां पहुंचकर गरीब दलितों में साबुन-शैम्पू बांटे और हिदायत दी कि कल जब मुख्यमंत्री पहुंचें तो वे नहा-धोकर साफ-सुथरे रहें. अफसरों की फिक्र सही हो सकती है क्योंकि भारत में गरीब प्रदेशों में भी मुख्यमंत्री को जिस तरह के राजसी घेरे में रखा जाता है, उससे उन्हें गरीबी को देखने की आदत छूट ही जाती होगी.

खैर, मीडिया से लोगों ने बताया कि वे तो वैसे भी रोज अपने खरीदे साबुन से नहाते हैं और दो बट्टी साबुन और शैम्पू की पुडिय़ा उनके कितने दिन काम आएगी?

लोगों को याद होगा कि कुछ हफ्ते ही हुए हैं, जब देश की सरहद पर शहीद हुए एक सैनिक के घर पर योगी आदित्यनाथ पहुंचने वाले थे, और एक दिन पहले अफसरों ने वहां पहुंचकर कालीन बिछा दी थी, सोफे सजा दिए थे, और तो और घर के बाहर बांस का ढांचा बनाकर उस पर चढ़ाकर एयरकंडीशनर भी लगा दिया था ताकि योगी को कुछ मिनटों वहां रहने पर भी गर्मी न लगे, उनके पांव फर्श पर न पड़ें.

अब इसी भाजपा के कुछ मुख्यमंत्री दूसरे प्रदेशों में राजपरिवार से आए हुए भी हैं, जैसे कि राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया, और योगी आदित्यनाथ तो स्वघोषित योगी हैं जिनसे यह उम्मीद की जाती है कि वे जमीन से जुड़े रहेंगे, ठाठ-बाट से दूर रहेंगे.

लेकिन होता यह है कि सत्ता पर बैठे लोग तो एक बार सादगी की सोच भी लें, उनके आसपास का चापलूस मुसाहिबों का दायरा उनके पांव जमीन पर पडऩे नहीं देता, और फिल्म पाकीजा में अभिनेता राजकुमार के कहे हुए एक डायलॉग की तरह उन्हें याद दिलाते रहता है कि आपके पांव बहुत हसीन हैं उन्हें जमीन पर मत रखिएगा, मैले हो जाएंगे.

जो लोग मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री, या कि मंत्री बनने के पहले तक साधारण जिंदगी जीते थे, उन्हें एकाएक सुख के ऐसे बुलबुले के भीतर बिठा दिया जाता है कि उनके आसपास के चापलूस भी उसी बुलबुले के सुख को पाते रह सकें, और वे जब बाहर अपने लिए जनता के पैसों से सुख के अलग बुलबुले भी बनाएं तो भी वे उनके राजनीतिक मालिक को न खटकें. इसलिए गाड़ी, बंगला, दफ्तर, दूसरे खर्च, इन सबको इतना बढ़वा दिया जाता है कि उसका फायदा नीचे तक सबको मिलने लगे.

दलित पर्यटन
दलित पर्यटन

लेकिन दलितों को साबुन-शैम्पू बांटने का मामला कुछ अलग ही है. पिछले दिनों कर्नाटक से यह खबर आई कि भाजपा के मुख्यमंत्री रह चुके, और पार्टी के बाहर निकाले जाकर वापिस पार्टी में लाए गए येदियुरप्पा ने अभी एक दलित के घर जाकर खाना खाया, तो वह खाना उनके लिए होटल से लाया गया था. तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.चन्द्रशेखर राव ने यह सार्वजनिक बयान दिया है कि भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं के दलितों के घर जाने पर खाना होटल से ही बुलवाया जाता है.

जहां तक हमें याद पड़ता है, जब पिछले कुछ बरसों में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी उत्तरप्रदेश में दलितों के घर खाने गए, तो विरोधियों की तरफ से भी ऐसी कोई तोहमत सामने नहीं आई थी कि उन दलितों को नहाने के लिए कांग्रेस ने साबुन-शैम्पू दिए थे, उन दलितों के घर पर जाकर किसी कांग्रेसी ने कालीन-सोफा बिछाए थे, या कि राहुल के खाने के लिए खाना किसी होटल से लाकर दलित घर में खिलाया गया था. हालांकि मायावती ने जरूर यह आरोप लगाया था कि यह खाना बाहर से लाया गया था, लेकिन वह आरोप टिका नहीं. उस वक्त राहुल गांधी के खिलाफ खूब अभियान चला कि वे दलित-पर्यटन कर रहे हैं.

हिन्दुस्तान में दलितों को लेकर एक सवर्ण तबके में छुआछूत की भावना खत्म हुई नहीं है. अभी तक देश के कई मंदिरों में दलितों को घुसने नहीं मिलता, और लोग अपने घरों में भी काम करने वाले दलितों को कहीं रसोई से बाहर रखते हैं, तो कहीं उन्हें चाय देने के लिए भी अलग बर्तन का इस्तेमाल करते हैं जो कि अलग रखे जाते हैं.

ऐसे में दलितों के राजनीतिक उपयोग के बारे में भी सोचने की जरूरत है कि इसका किस हद तक विरोध करना चाहिए, और क्या इसे एक ओछी राजनीति मानना चाहिए या नहीं? दूसरी बात यह कि जब दलित-पर्यटन पर नेता निकलें, तो अगर दलितों को साफ-सुथरा बनाने, या उनके घर बाहर से खाना पहुंचाने का काम अगर किया जाता है, तो उस काम को दलित के अपमान के कानून के तहत जुर्म मानना चाहिए, और ऐसे लोगों पर मुकदमे चलाने चाहिए.

भारत की राजनीति लोगों से कई किस्म के ओछे काम करवाती है. हमने बलात्कार के शिकार महिलाओं को मुआवजे के चेक देते हुए मंत्रियों को फोटो खिंचवाते देखा है जो कि उनकी सरकारी मशीनरी मीडिया तक पहुंचा भी देती है. ऐसे लोगों के खिलाफ भी मुकदमे चलने चाहिए, और दो-चार लोग जब जेल चले जाएंगे, तो ही बाकी लोगों के लिए एक मिसाल बन पाएगी.

इसी तरह जब फौज या पुलिस के जवान जख्मी होकर अस्पतालों में रहते हैं, या कि किसी बड़े हादसे में घायल होकर लोग बड़ी संख्या में अस्पतालों में रहते हैं, तो ऐसे जख्मी लोगों के पास पहुंचकर भी राजनीतिक दलों के नेता और सत्तारूढ़ मंत्री जिस तरह से मिजाजपुर्सी करते हैं, जिस तरह से हमदर्दी जाहिर करते हैं, उसके खिलाफ भी अदालती आदेश निकलना चाहिए.

ऑपरेशन के बाद जब लोग संक्रमण का खतरा झेलते हुए अस्पताल में रहते हैं, तब उनके पास डॉक्टरों या नर्सों के अलावा और किसी को जाने की इजाजत नहीं रहनी चाहिए. लेकिन जब मंत्रियों की भीड़ अस्पतालों के ऐसे वार्ड में पहुंचती है, तो खबरों की सुर्खी दिलाने वाले ऐसे जख्मियों के अलावा भी उन वार्डों में जो लोग भर्ती रहते हैं, उन सबकी जिंदगी को एक खतरा ऐसे नेताओं से खड़ा होता है. यह सिलसिला थमना चाहिए. हमदर्दी-पर्यटन को अदालती हुक्म से रोकना चाहिए.

पिछले तीन बरसों में देश भर में लगातार कहीं गोमांस पर रोक के नाम पर, तो कहीं ऊंची कही जाने वाली ताकतवर बाहुबलि जातियों द्वारा गरीब और कमजोर जातियों पर होने वाले बलात्कार को लेकर देश के दलित आज विचलित हैं. हैदराबाद विश्वविद्यालय से लेकर जेएनयू तक, और उत्तरप्रदेश के गांव-गांव तक, हरियाणा के गांव-कस्बे तक जगह-जगह दलित आज हिंसा के खिलाफ खड़े हो रहे हैं.

ऐसे में दलित समाज के ही लोगों को सामने आकर राजनीतिक दलों और सत्ता के दलित-पर्यटन के खिलाफ एक माहौल बनाना चाहिए. यह लड़ाई दलितों के बीच से ही उठनी चाहिए, सड़कों पर भी लड़ी जानी चाहिए, और कुछ लोगों को अदालत भी जाना चाहिए कि दलितों का ऐसा इस्तेमाल, उन्हें साफ करने की कोशिश, उनके घर के खाने को अछूत मानने का काम, इन सबके खिलाफ दलित प्रताडऩा विरोधी कानून के तहत कार्रवाई करवानी चाहिए.

अभी हम देश के सोशल मीडिया में दलितों को लगातार अधिक सक्रिय होते देख रहे हैं, और यह सिलसिला तेज होते भी दिख रहा है. राजनीतिक फायदे के लिए, या कि शोहरत के लिए दलितों का इस्तेमाल करना, और अपने लोगों को दलितों से बलात्कार करने देना, उन बलात्कारियों को बचाना, यह सिलसिला नहीं चलने देना चाहिए. इसके साथ-साथ यह बात भी समझने की जरूरत है कि इस देश में गरीब मुस्लिमों की बहुतायत की हालत समाज में दलितों जैसी ही है, और कुछ ताकतें उत्तरप्रदेश में पिछले कुछ समय से दलितों और मुस्लिमों के बीच एक खाई खोदने की कोशिश में लगी हैं.

इसके कोई सुबूत तो जुट नहीं सकते, लेकिन दलितों को यह याद रखना चाहिए कि महज हिन्दू समाज के भीतर के दलित देश में एक बड़ी लड़ाई नहीं लड़ सकते, इसके लिए दलितों जैसी सामाजिक स्थिति वाले दूसरे धार्मिक समुदायों के लोगों को भी साथ जोडऩा होगा, वरना अलग-अलग टापुओं में बसे हुए लोगों की टुकड़ा-टुकड़ा फौज कोई जंग नहीं जीत सकती.

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शाम के अखबार छत्तीसगढ़ के संपादक हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!