दलित शब्द का मतलब
अनिल चमड़िया
मीडिया पर कई शोध हुए हैं, जिनमें तय सामने आया है कि मीड़िया में सरकारी शब्दों और भाषा का चलन लगातार बढ़ा है. दलित शब्द का इस्तेमाल न करने का सुझाव मीडिया में सरकारी दखल का विस्तार है. समाज की तमाम गतिविधियों को चलाने के लिए विभिन्न संस्थाएं होती हैं.
हर संस्था अपने चरित्र के अनुसार अपनी भाषा व शब्दावलियां तैयार करती है. दलित शब्द सरकार का हो ही नहीं सकता. यह राजनीतिक चेतना से लैस अर्थो वाला शब्द है. ब्रिटिश सत्ता के विरोध में जब आंदोलन चल रहा था, तो इस शब्द का इस्तेमाल कांग्रेस करने लगी थी.
महात्मा गांधी ने अछूत शुद्रों के लिए नया शब्द हरिजन तैयार किया था, लेकिन डॉ. अंबेडकर का भारतीय राजनीति पर इतना गहरा प्रभाव हुआ कि कांग्रेस अछूत की जगह दलित शब्द का इस्तेमाल करने को बाध्य हुई.
पार्टी के अध्यक्ष पट्टाभि सीतारमैया द्वारा लिखित कांग्रेस का इतिहास 1935 में छप कर आया तो उसमें दलित शब्द की भरमार थी. इस पुस्तक के परिशिष्ट 9-10 में दलित जातियां शीर्षक से सुरक्षित निर्वाचन के संबंध में कांग्रेस ने अपनी राय जताई है. यहां तक कि दलित जातियों की स्थिति शीर्षक से एक अन्य स्पष्टीकरण में कांग्रेस ने स्त्रियों का भी उल्लेख किया है.
पहली बात कि सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में पिसने वाले हरेक को दलित के व्यापक अर्थो में लिया जाता रहा है.
शुद्र वे भी कहे जाते थे जिन्हें सरकारी शब्दावली में पिछड़ा कहा जाने लगा है. शब्दों में गति होती है, और उनका अर्थ सिमटता भी है, और विस्तृत भी होता है. दलित शब्द एक अर्थ में सिमटा तो दूसरे स्तर पर उसका विस्तार भी हुआ है.
गांधी और हरिजन
मसलन, दलित से अर्थ उन जातियों के समूह से लगाया जाने लगा है, जिन्हें सरकारी दस्तावेज में अनुसूचित जाति माना गया है, और उसका विस्तार इस रूप में है कि उसमें अधिकार का बोध और भविष्य के प्रति सामूहिक चेतना की गति जुड़ी है.
महात्मा गांधी ने जब शुद्रों में अछूतों के लिए हरिजन शब्द का इस्तेमाल किया तो वह हिन्दू पौराणिक कथाओं से प्रेरित भावना थी, जिसमें सबरी के बेर खाने के मिथक को राम की महानता के रूप में स्थापित करने की कोशिश की गई.
गांधी हरिजन शब्द के जरिए डॉ. अंबेडकर के दलितों को सहानुभूति के दायरे में बांधने की कोशिश कर रहे थे. लेकिन ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ आंदोलन और संविधान लागू होने के बाद अपने अधिकारों का बोध और स्वतंत्रता की चेतना का जो विस्फोट हुआ वह दलित के जरिए ही अपना विस्तार कर सकता था.
आज चेतना के नये तेवर और आकांक्षाओं को संबोधित यही शब्द कर सकता है. जिस राजनीतिक दिशा में लोगों को ले जाना होता है, उसका रास्ता शब्दों से ही बना होता है. अध्ययन करें कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने दलित शब्द का इस्तेमाल करना कब से शुरू किया? उसका जोर वंचित शब्द पर होता है, तो इसके क्या निहितार्थ हैं?
वंचित अधिकार बोध और चेतना को संबोधित नहीं करता. जैसे कि भाजपा झारखंड की जगह वनांचल नाम देना चाहती थी. इसलिए समझना मुश्किल नहीं है कि किसी शब्द के इस्तेमाल पर रोक की जरूरत किस तरह की राजनीति को होती है.
शब्द राजनीतिक युद्ध के सबसे महत्त्वपूर्ण औजार होते हैं. इनको बदल दिया जाता है, या अपने अर्थो के अनुकूल ढाल देने की कोशिश की जाती है. लेकिन कोई आंदोलन अपने शब्दों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता है, तो शब्दों को सत्ता दूसरे तरह से अपने अर्थो में ढालने की कोशिश करती है.
उत्तराखंड को जब आंदोलनकारियों ने नहीं छोड़ा तो उत्तराखंड के भीतर समाहित अर्थो को ही उत्तरांचल में तब्दील करने प्रक्रिया देखी गई.
शब्द उनके लिए बेहद महत्त्वपूर्ण होते हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए सत्ता की नींव को मजबूत करना चाहते हैं. इसलिए ऐसी राजनीतिक संस्कृति के पक्षधर चिह्नों, प्रतीकों, रंगों आदि जैसी चीजों पर सबसे ज्यादा अपनी ऊर्जा खर्च करते हैं, और युद्ध भी लड़ने को तैयार होते हैं. दलित शब्द का इस्तेमाल नहीं करने की सलाह को झटपट मानकर केंद्र सरकार द्वारा परिपत्र जारी करने की घटना आश्र्चयजनक नहीं है.
न्यायालय का सम्मान?
यह न्यायालय के प्रति आज्ञाकारिता का उदाहरण नहीं है, बल्कि अपनी राजनीतिक अनुकूलता लागू करने की तत्परता है. न्यायालय से पहले सामाजिक न्याय मंत्रालय भी इस तरह का परिपत्र जारी कर चुका है.
भारतीय राजनीतिक पार्टयिां चूंकि हिन्दूत्व के इर्द गिर्द धूम रही हैं, इसलिए सांस्कृतिक स्तर पर सत्ता द्वारा किए जा रहे बारीक बदलाव के प्रति संवेदनशील नहीं हो सकतीं. लेकिन दलित आंदोलन के लिए बेहद जरूरी है कि सांस्कृतिक स्तर पर अपनी उपलब्धियों पर हमले के प्रति संवेदनशीलता का भी परिचय दे और दृढ़ता का भी प्रदशर्न करे.
भाजपा की सत्ता ने झारखंड की राजधानी रांची में बिरसा मुंडा की चौराहे पर लगी प्रतिमा को बदल दिया. बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश हुकूमत को इसलिए हिलाकर रख दिया था कि वह आदिवासियों के संसाधनों को अपने कब्जे में ले रही थी. उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत को बराबरी की टक्कर दी.
ब्रिटिश से सत्ता हस्तानांतरित होने के बाद बिरसा मुंडा की प्रतिमाएं लगाई गई और उन्हें बेड़ियों से जकड़ी अवस्था में दिखाया गया. लेकिन 2016 में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने निर्देश दिया कि झारखंड में बिरसा मुंडा की जितनी भी प्रतिमाएं लगी हैं, उन्हें बेड़ियों से मुक्त किया जाए क्योंकि ‘‘जंजीरों से जकड़ी बिरसा मुंडा की प्रतिमाएं युवाओं पर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं.’
जबकि झारखंड में युवा इस प्रतिमा से यह अर्थ लगाते हैं कि उनके लिए यह आजादी नाकाफी है, और उन्हें ये बिरसा मुंडा की तरह बलिदान के लिए प्रेरित कर सकती हैं.
झारखंड में क्या ब्रिटिश सत्ता द्वारा आदिवासियों के संसाधनों पर कब्जे का जो सिलसिला चला, वह रु क पाया है? आंदोलन के शब्द, प्रतीक, चिह्न सत्ता को बेहद परेशान करते हैं.
भाजपा भूख से मरने वाले हालात में शाइनिंग इंडिया के प्रचार की सकारात्मक प्रभाव डालने वाले विज्ञापन के रूप में व्याख्या करती है. लिहाजा, वह दलित शब्द और बिरसा मुंडा की बेड़ियों में जकड़ी तस्वीरों को कैसे स्वीकार कर सकती है.
रही बात संवैधानिक संस्थाओं के फैसलों और निर्देशों की तो इस बारे में निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस वक्त न्यायाधीश फैसले सुना रहे हैं, अदालतें फैसले नहीं कर रही हैं. इसका अर्थ होता है कि गैर-बराबरी वाली सामाजिक सत्ता समानता की पक्षधर संवैधानिक संस्थाओं का इस्तेमाल कर रही है.
सामाजिक सत्ता, जिसे संविधान की भावनाओं के जरिए बराबरी के स्तर पर लाना था, की लड़ाई संवैधानिक सत्ता के साथ अभी भी जारी है. यही कारण है जो ऐसे फैसलों के खिलाफ लोगों को संघर्ष के लिए उतरना पड़ता है.