भोजन और खेती का यह दोराहा
देविंदर शर्मा
भोजन और कृषि का भविष्य, संभवतः तकनीकी और कृषि पारिस्थितिकीय दृष्टिकोणों के संयोजन पर आधारित होगा. हालाँकि, प्रत्येक दृष्टिकोण पर कितना जोर दिया जाएगा, यह विभिन्न कारकों पर निर्भर करेगा, जिनमें सरकारी नीतियां, उपभोक्ता की प्राथमिकताएं, और संसाधनों की उपलब्धता शामिल हैं. भविष्य में भोजन और खेती के सही रास्ते का चयन करने का संघर्ष, शेक्सपियरियन दुविधा- ‘होना या न होना’ पर निर्भर करता है.
पिछले कुछ दशकों से यह विभाजन अधिक स्पष्ट होता जा रहा है. जब मैं विभाजन की बात करता हूँ, विशेष रूप से उस समय में जब जलवायु परिवर्तन ने, वैश्विक तापमान से लेकर वैश्विक उबाल (Global Boiling) की स्थिति को और बदत्तर कर दिया है, भोजन के भविष्य पर भी बहस इसी दिशा में चल रही है और यह स्पष्ट रूप से दो धड़ों में विभाजित हो गई है.जहाँ एक ओर उद्योग तकनीक-समर्थित जलवायु-स्मार्ट खेती के असीमित संभावनाओं के दावे को मजबूत कर रहा है, वहीं दूसरी ओर नागरिक समाज समय-परीक्षित पारिस्थितिक खेती (या इसे प्रकृति-समर्थक तकनीकों का अनब्रांडेड संस्करण कहें) की असीम संभावनाओं को प्रदर्शित कर रहा है, जो न केवल जलवायु-प्रतिरोधी हैं बल्कि पर्यावरण के लिए सुरक्षित और स्वास्थ्यवर्धक भी हैं.
इसलिए बहस स्पष्ट रूप से इस बात पर बंटी हुई है कि भविष्य की खेती किस रास्ते पर जानी चाहिए. एक ओर नीति निर्माताओं का बड़ा हिस्सा इस डर से डिजिटलाइजेशन के मार्ग को अपनाए हुए है कि कहीं वे इस प्रवृत्ति से पीछे न छूट जाएं, जो आने वाले वर्षों में खेती पर कॉर्पोरेट नियंत्रण को मजबूत करेगी. वहीं दूसरी ओर, कृषि पारिस्थितिकी (AE) की असीम संभावनाएँ हैं जो जलवायु परिवर्तन के शमन, खाद्य संप्रभुता को बढ़ाने और समावेशी आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकती हैं.
अतः, यह स्पष्ट है कि हमारे सामने चुनाव की स्थिति है.
यह मानना कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता, उपग्रह इमेजरी, ड्रोन, रोबोटिक्स और सटीक खेती पर जोर, एक अनिवार्य कदम है, और इसलिए राष्ट्र “कृषि क्रांति 4.0” से पीछे नहीं रह सकता, दरअसल ‘अज्ञात का डर’ से उत्पन्न हुआ विचार है. यह निस्संदेह प्रमुख विचारधाराओं में से एक है. इसे बड़े मीडिया का समर्थन प्राप्त है, जो बड़े कृषि उद्योग के हाथों में है. मीडिया द्वारा आयोजित प्रत्येक कॉन्क्लेव या नेतृत्व शिखर सम्मेलन अंततः उभरती हुई तकनीकों द्वारा प्रदान किए जाने वाले संभावित अवसरों को दिखाता है. यह जानबूझकर उन पारंपरिक खेती के तरीकों की अपार संभावनाओं को नजरअंदाज कर देता है, जिसे दुनिया को अपनाने के लिए, एक सार्थक बहस शुरू कर सकते हैं.
इस बीच, एरिज़ोना विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत एक चौंकाने वाले प्रस्ताव में सुझाव दिया गया है कि चंद्रमा पर एक “प्रलयकालीन वॉल्ट” बनाया जाए, जिसमें पृथ्वी की प्रजातियों के लाखों बीज, बीजाणु, शुक्राणु और अंडाणु के नमूने रखे जाएं, जो चंद्रमा की एक नेटवर्क प्रणाली में छिपाए जाएं ताकि प्रलय जैसी स्थिति में पृथ्वी की आनुवंशिक संरचना का बैकअप सुरक्षित रहे.
सीएनएन की एक रिपोर्ट में उद्धृत वैज्ञानिकों का मानना है कि उनका यह विचार, पृथ्वी पर जीवन को नष्ट होने की स्थिति में, संरक्षित कर सकता है.
वैज्ञानिक और इंजीनियर चंद्रमा पर “प्रलयकालीन वॉल्ट” कैसे बनाएंगे यह तकनीकी विवरण का विषय है, लेकिन यह विचार ही कि पृथ्वी एक अस्थिर वातावरण है और इसलिए निकट भविष्य में हमें इसके लिए तैयार रहना चाहिए; मुझे लगता है कि हमें अभी से उपयुक्त निवारक कदम उठाने चाहिए, ताकि हम इस ग्रह को रहने योग्य बनाए रखने के प्रयास कर सकें.
यह निश्चित रूप से कई कॉन्क्लेव और सम्मेलनों के लिए एक अच्छा विषय है, लेकिन पहले कृषि के उस बदलाव की ओर ध्यान दें, जिसे हम अभी भी समझने की कोशिश कर रहे हैं.
क्या हमें पारिस्थितिक रोडमैप को अपनाकर टिकाऊ भोजन और खेती प्रणालियों की ओर परिवर्तन करना चाहिए, या उस तकनीकी प्रभुत्व को स्वीकार करना चाहिए, जिसमें कृषि उद्योग ने दावा किया है कि वह 2050 तक बढ़ी हुई खाद्य आवश्यकता को पूरा कर सकता है?
जैसा कि मैंने पहले कहा था, शेक्सपियरियन दुविधा बनी हुई है.
फिर भी, जलवायु आपदा के खतरे को देखते हुए, और यह जानते हुए कि लगभग 34 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कृषि प्रणालियों से हो रहा है, जोर इस बात पर है कि कृषि, विशेष रूप से पशुधन से उत्सर्जन को कैसे कम किया जाए. संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (FAO) ने भी कृषि पारिस्थितिकी के 10 तत्वों को प्रस्तुत किया है, जो विज्ञान को पारंपरिक, व्यावहारिक और स्थानीय उत्पादकों के ज्ञान के साथ जोड़ सकते हैं.
हाल के समय में वैज्ञानिक, आर्थिक और राजनीतिक विमर्श में कृषि पारिस्थितिकी को, भविष्य का रास्ता मानने पर जोर देने में जबरदस्त वृद्धि हुई है. मैं निश्चित रूप से उस टिकाऊ कृषि प्रणाली के पक्ष में अपना मत दूँगा, जो न्यूनतम नकारात्मक बाहरी प्रभावों के साथ आती है. खेती का नियंत्रण उत्पादकों के हाथ में होना चाहिए और इसे कभी भी कुछ खाद्य उद्योगपतियों के हाथों में नहीं जाने देना चाहिए.
आइए मैं इसे स्पष्ट करता हूँ.
विश्व के कुल दूध उत्पादन का 24.64 प्रतिशत योगदान देने वाले भारत को दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश माना जाता है. आज की तारीख़ में 221 मिलियन टन दूध उत्पादन के साथ, भारत ने 5 से 6 प्रतिशत की प्रभावशाली वार्षिक वृद्धि दर हासिल की है, जो कि विश्व औसत से दोगुनी है.
लगभग 80 मिलियन किसान (जिनमें से अधिकांश महिलाएं हैं) डेयरी उत्पादन में लगे हुए हैं, और इसमें 300 मिलियन मवेशी और पशुधन शामिल हैं. ऐसे में, ध्यान इस बात पर होना चाहिए कि जोखिमों को कैसे कम किया जाए और डेयरी क्षेत्र को आर्थिक रूप से कैसे व्यवहार्य बनाया जाए.
इसके विपरीत, मैं हैरान हूँ जब नीति-निर्माता डेयरी को नई नीति, बायोई-3 (BioE3) के तहत लाने के लिए अत्यधिक उत्साहित दिखते हैं, जो रोजगार सृजन और आर्थिक विकास के नाम पर एक अलग तकनीकी मार्ग अपनाता है.
हमें बताया जाता है कि बेंगलुरु में एक स्टार्टअप ने कृत्रिम रूप से तैयार किया गया पौध-आधारित दूध सफलतापूर्वक बेचना शुरू कर दिया है, और अब यह निर्यात भी कर रहा है. हालाँकि, हमें स्वास्थ्य पर इसके परिणामों का पता लगाने में अभी समय लगेगा, लेकिन मैं यह समझने में असमर्थ हूँ कि कृत्रिम दूध उत्पादन कैसे रोजगार सृजन में योगदान कर सकता है?
सरकारी नीति से समर्थित पौध-आधारित दूध को बढ़ावा देना निश्चित रूप से डेयरी क्षेत्र में मौजूदा रोजगार की कीमत पर होगा. जैसा कि सामान्य रूप से देखा गया है, जल्द या देर से, इस तरह के स्टार्टअप्स को उन कंपनियों द्वारा अधिग्रहित कर लिया जाता है, जो मुनाफे की संभावना देखती हैं. क्या यह वही विकास मार्ग है जिसका भारत को समर्थन करना चाहिए? इस समय जब देश, बढ़ती हुई बेरोजगारी के संकट का सामना कर रहा है, डेयरी आजीविकाओं को इस प्रक्रिया में नष्ट करना आर्थिक दृष्टि से समझदारी नहीं है.
मैं यहां जो कहना चाह रहा हूं, वह यह है कि समाज को इन स्पष्ट बदलावों पर विचार करना चाहिए, खास कर जब इसमें बड़े सामाजिक और आर्थिक खर्च शामिल हैं.
कंपनियों के बोर्ड रूम में बैठे कुछ लोगों को ऐसे निर्णय लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती जो लोगों और पर्यावरण पर असर डालते हैं. जैसा कि ‘नेचर सस्टेनेबिलिटी’ जर्नल में, एक लेख में कहा गया है, कृषि पारिस्थितिकी मानवता के लिए एक ‘सुरक्षित संचालन स्थान’ प्रदान करती है. हालाँकि, पूरे विमर्श में जो चीज गायब है, वह यह है कि कृषि पारिस्थितिकी या डिजिटलाइजेशन में लगे किसानों को अधिक आय कैसे प्रदान की जाए.
इसे बाजार की शक्तियों के भरोसे छोड़ना, जैसा कि हाल ही में नई दिल्ली में एक सम्मेलन में कहा गया, यह दर्शाता है कि नीति-निर्माताओं और उद्योग के नेताओं को अब भी उस कमी का अहसास नहीं है कि किसानों को सुनिश्चित आय प्रदान करने की आवश्यकता है.
यह कहना कि प्रस्तावित तकनीकी नवाचार किसानों की आय बढ़ाएंगे, वास्तव में आजीविका के वास्तविक मुद्दों को टालने का एक बहुत ही चालाक तरीका है. सभी तकनीकें जो इन वर्षों में कृषि में लाई गई हैं, उनके साथ हमेशा किसानों की आय बढ़ाने का वादा किया गया है.
लेकिन यदि ऐसा वास्तव में हुआ होता, तो किसानों की आय पिरामिड के सबसे निचले स्तर पर नहीं होती. जबकि आपूर्ति श्रृंखला में इनपुट प्रदाताओं और आउटपुट खरीदारों को लाभ होता है, किसान इस बीच में ही छूट जाते हैं. कृषि में कोई भी बदलाव किसानों को जीविका योग्य आय सुनिश्चित किए बिना नहीं हो सकता.