संकट में समाजवादी पार्टी
जेके कर
समाजवादी पार्टी का संकट बढ़ गया है. पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव द्वारा रविवार को बुलाये गये ‘राष्ट्रीय अधिवेशन’ ने अखिलेश यादव को पार्टी को नया राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिया है. इसी के साथ मुलायम सिंह यादव को पार्टी का संरक्षक नियुक्त किया है. ‘राष्ट्रीय अधिवेशन’ ने अमर सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है तथा शिवपाल सिंह यादव को उत्तरप्रदेश के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया है. इस आपातकालीन राष्ट्रीय अधिवेशन में महासचिव रामगोपाल यादव ने प्रस्ताव रखें जिन्हें सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया है. इस ‘राष्ट्रीय अधिवेशन’ से समाजावदी पार्टी का संकट और बढ़ गया है तथा अखिलेश यादव ‘पाइंट ऑफ नो रिटर्न’ की स्थिति में पहुंच गये हैं.
मुलायम सिंह इस ‘राष्ट्रीय अधिवेशन’ से कितने कठोरता से निपटते हैं यह सवाल सबसे महत्वपूर्ण है. मुलायम सिंह इस ‘सोनार की सौ तथा लोहार की एक’ वार के बाद चुपचाप बैठ जायेंगे इसकी संभावना कम ही है. हालांकि, मुलायम सिंह ने शनिवार को अखिलेश यादव तथा रामगोपाल यादव का एक दिन पहले किया गया निलंबन वापस ले लिया था परन्तु उससे भी मामला शांत नहीं हुआ यह रविवार को साबित हो गया.
इसके बाद अखिलेश यादव को दो मोर्चो पर लड़ाई लड़नी पड़ेगी. पहली लड़ाई चुनाव आयोग तथा कानूनी मोर्चे पर लड़नी पड़ेगी. अखिलेश के दावे को युनाव आयोग में साबित करना पड़ेगा कि यही असली समाजवादी पार्टी है. इसके लिये साबित करना पड़ेगा कि पार्टी संविधान के अनुसार ‘राष्ट्रीय अधिवेशन’ नियमानुसार सही है. तभी उन्हें पार्टी का चुनाव चिन्ह मिल सकता है. जानकारों का मानना है कि इसकी संभावना कम ही है. क्योंकि इस अधिवेशन को न तो पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह ने बुलाया था और न ही पार्टी की कार्यकारिणी ने इसके लिये प्रस्ताव पास किया था.
इस पहले मोर्चे पर हार अखिलेश यादव को भारी न भी पड़े तो दूसरे मोर्चे की लड़ाई असल खंदक की लड़ाई साबित होगी. जिसमें समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं तथा सबसे ज्यादा समर्थकों को अपने पाले में लेना होगा. अपने मुख्यमंत्री रहते अखिलेश यादव ने जाहिर तौर पर एक ‘प्रभामंडल’ बनाया है जो आमतौर पर सत्ता पर काबिज होने से बड़ी सहजता से बन जाता है. अब समाजवादी पार्टी के परंपरागत वोटर किसके पाले में जाते हैं यह सबसे बड़ा सवाल है.
कुछ संवैधानिक सवाल भी हैं. जैसे मुलायम सिंह के साथ यदि 25-30 विधायक भी चले जाते हैं तो अखिलेश यादव को विधानसभा में अपना बहुमत सिद्ध करना मुश्किल होगा. इस बात की भी संभावना है कि अखिलेश यादव विधानसभा भंग करके चुनाव कराने की मांग कर बैठे. वैसे जल्द ही उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनाव की घोषणा होनी है.
सवाल राजनैतिक भी है. दूसरे दल, खासकर कांग्रेस जिसके साथ समाजवादी पार्टी के गठबंधन के कयास लगाये जा रहे थे वह किसके साथ वार्ता जारी रखता है मुलायम सिंह के साथ या अखिलेश यादव के साथ? इससे भी अहम सवाल यह है कि चाहे कांग्रेस हो या कोई अन्य पार्टी. सभी मुंडेर पर बैठकर पहले यह देखना चाहेंगे कि किसका पड़ला भारी है बाप का या बेटे का.
बहरहाल, उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी का संकट और गहरा गया है तथा ‘गेम ऑफ यादव’ अपने उफान पर है इससे इंकार नहीं किया जा सकता है. हां, राज्य के तथा देश के राजनीतिक दर्शकों को एक और ‘दंगल’ देखने को मिलेगा यह तय है.