स्वागतम कोरोना वैक्सीन
जे के कर
रूस के कोरोना वैक्सीन बनाये जाने के तमाम दावों के बीच सवाल उठ रहे हैं. रूस ने इन सवालों का जवाब देते हुये साफ़ कहा है कि हमारे विदेशी साथियों को रूसी दवा के प्रतियोगिता में आगे रहने के फ़ायदे का अंदाज़ा हो गया है और वो ऐसी बातें कर रहे हैं जो कि बिल्कुल ही बेबुनियाद हैं. रूस का दावा है कि इस वैक्सीन की पहली खेप दो हफ़्तों में ही आ जाएगी.
रूस की ही तर्ज पर चीन में बने वैक्सीन का इंडोनेशिया में ट्रायल शुरू किया जा चुका है. भारत में भी कई दावे किये जा रहे हैं. अमरीका भी वैक्सीन बनाने में जुटा हुआ है.
लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि क्या कोरोना की वैक्सीन लंबे समय तक असरकारक होगी? सोशल मीडिया में कोरोना वैक्सीन के दावों पर संदेह के बादल जिनके मन-मस्तिष्क में छाये हुए हैं, उनका पहला सवाल तो यही है कि इबोला, सार्स, मार्स जैसों का टीका तो अब तक वैज्ञानिक तलाश नहीं पाये, भला इसका टीका इतनी जल्दी कहां से बन जायेगा?
देखा जाये तो इबोला से मरने वालों की मृत्युदर 50 फीसदी, एवियन इन्फ्लूएंजा एच5एन1 वायरस से होने वाली मृत्युदर 60 फ़ीसदी, एवियन इन्फ्लूएंजा एच7एन9 की मृत्युदर 39 फ़ीसदी, सार्स कोवी की मृत्युदर 11 फ़ीसदी, मर्स कोव से मृत्युदर 33 फीसदी है. लेकिन इन सभी वायरसों ने जिनका कि वैक्सीन नहीं बनाया जा सका है, दुनियाभर में 10 से 20 हजार लोगों को ही संक्रमित किया था. हां, एचआईवी के कारण तीस साल में 3.2 करोड़ लोगों की जानें जरूर जा चुकी हैं.
उपरोक्त सभी वायरसों के विपरीत दुनिया भर में कोरोना संक्रमितों की संख्या 9 माह में ही 2 करोड़ 3 लाख 86 हज़ार 4 सौ 90 की हो गई है. तथा इससे 7 लाख 41 हज़ार 7 सौ 27 लोगों की जानें जा चुकी है. भारत में कोरोना संक्रमितों की संख्या 23 लाख 25 हज़ार 26 है तथा इससे 46 हज़ार 185 लोगों की जान जा चुकी है. जाहिर तौर पर कोरोना वायरस उपरोक्त सभी वायरसों से ज्यादा जानलेवा है तथा तेजी से संक्रमित कर रहा है इसलिये इससे बचाव के लिये बनने वाले वैक्सीन को, वैक्सीन बनाने के पुराने मानकों से तौलना उचित नहीं होगा.
सौ साल पहले…
करीब सौ साल पहले फैले स्पेनिश फ्लू ने जो 1918 से 1920 तक फैला था दुनिया भर में करीब 1 करोड़ 70 लाख से ज्यादा जानें ले चुका था. फौरी जरूरत है कि कोरोना वायरस को स्पेनिश फ्लू के समान प्रलयकारी-मृत्युकारी बनने से रोका जाये. इसकी तुलना सर्स, मर्स, इबोला या एवियन इन्फ्लूएंजा से करना तर्कसंगत नहीं है.
हां, दवा तथा वैक्सीन कंपनियों द्वारा मुनाफा कमाने के लिये की गई किसी भी तरह की चालबाजी से सावधान रहना होगा. उदाहरण के तौर पर बर्ड फ्लू का हौव्वा फैलाकर दुनिया भर में टैमिफ्लू दवा को बेच कर अरबों के व्यारा-न्यारे किये गये थे. इस दवा टैमिफ्लू को अमरीकी दवा कंपनी गिलेड लाइस साइंसेंस बनाती है, जिसके बड़े शेयरधारक तत्कालीन अमरीकी रक्षामंत्री रम्सफील्ड थे. जानकारों का मानना है कि रम्सफील्ड के जाने के बाद बर्डफ्लू भी चला गया. उस समय दुनिया भर के वाइरोलाजिस्ट चीख-चीखकर बता रहे थे कि बर्डफ्लू, पक्षियों की बीमारी है, इतनी जल्दी मनुष्यों में नहीं फैलेगी. उसके बावजूद टैमिफ्लू को बेचने के लिये कलाबाजी दिखा दी गई थी.
यहां पर इस बात का उल्लेख करना गलत नहीं होगा कि इसी गिलेड लाइस साइंसेंस कंपनी द्वारा इबोला के लिये बनाई गई दवा रेमडेसिविर जिससे कि इबोला का इलाज़ नहीं हो सका, अब कोरोना वायरस के संक्रमितों को दी जा रही है.
कोरोना की काल कथा
याद करें, पिछले सौ सालों में ऐसी और कौन सी दूसरी बीमारी फैली थी जिसके कारण दुनियाभर के देशों ने लॉकडाउन किया. इतना कि इस लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था का भठ्ठा बैठ गया. हमारे देश में ही कोरोड़ों लोग बेरोजगार हुये हैं. करीब 5 करोड़ कामगारों का अपने गांवों की ओर महापलायन हुआ, जहां कोई रोजगार नहीं है.
शिक्षा अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. परीक्षायें ही नहीं हो पा रही हैं, कक्षायें भी नहीं लग पा रही हैं. बच्चों का भविष्य अनिश्चित हो गया है. यहां तक कि विदेशों में उच्च शिक्षा हासिल करने के लिये गये बच्चों को भी वापस देश लौटना पड़ा है. कोरोना के कारण स्वास्थ्य सेवायें भी पंगु सी हो गई है. काफी समय बाद अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में न केवल मांग घटी है वर्ना सप्लाई भी घटी है. यह अपने-आप में अर्थव्यवस्था के लिये अत्यंत घातक है.
कोरोना की भयावहता को महज लेकिन, किंतु, परंतु जैसे सवालों से नहीं टाला जा सकता. कोरोना का मुकाबला को हकीकत के धरातल पर ही किया जा सकता है. दवा कंपनियों की तमाम चालाकियां, साजिश और मुनाफाखोरी से भला कौन इंकार कर सकता है लेकिन कोरोना को महज इन पुराने अनुभवों की कसौटी पर कस कर देखने के बजाये हमारे सामने जो यथार्थ है, उसे देखना समझना होगा. ऐसे में हमें वैज्ञानिकों और चिकित्सकों द्वारा किये जा रहे कोशिशों का समर्थन करना चाहिये.
सवाल दर सवाल
जिन देशों ने कोरोना वैक्सीन बनाने का दवा किया है, उनके दावों पर भी सवाल उठ रहे हैं. लेकिन सबसे विचारणीय सवाल तो यही है कि जब तक वैक्सीन बनाने की कोशिश न की जाये, उसे न बनाया जाये और उसका मानव पर परीक्षण न किया जाये तब कैसे उसके प्रभाव पर सवाल किया जा सकता है.
हालांकि एक सामान्य जिज्ञासा भी है कि क्या यह मानव के लिये सुरक्षित है दूसरा ये कि इसके कारण कोरोना वायरस के खिलाफ रोगप्रतिरोधक क्षमता कितने दिन रह पायेगी.
दूसरे सवाल का जवाब तो यही हो सकता है कि यदि 3 या 4 माह तक ही प्रतिरोधक क्षमता रहती है तो भी हमारे पास तब तक कोई विकल्प नहीं है जब तक कई सालों तक विकसित होने वाली प्रतिरोधक क्षमता वाली वैक्सीन न आ जाये. ऐसे में इसी वैक्सीन को फिलाल बार-बार लगाया जा सकता है.
पहला सवाल इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है. क्या यह वैक्सीन मानव के लिये सुरक्षित है? इसके लिये मानवों पर जो क्लीनिकल ट्रायल्स किया जाता है, उसे एक बार समझना ज़रुरी है.
क्लीनिकल ट्रायल की दुनिया
किसी भी महत्वपूर्ण वैक्सीन के क्लीनिकल ट्रायल के ‘शून्य चरण’ में इसे 10-15 वालेंटियरों को लगाकर देखा जाता है कि क्या इसे मनुष्य सह सकता है. ‘पहले चरण’ में इसे 20 से 80 लोगों को लगाकर देखा जाता है कि वैक्सीन की कितनी खुराक मानव सह सकता है तथा उससे कोई दुष्परिणाम तो सामने नहीं आ रहे हैं.
‘दूसरे चरण’ में इसे कई सौ से लेकर एक हज़ार लोगों को लगाया जाता है. ‘तीसरे चरण’ में इसे 3 हज़ार के करीब लोगों को लगाया जाता है. ‘चौथे चरण’ में इसकी अनुमति देकर हज़ारों लोगों को यह वैक्सीन लगाया जाता है.
क्लीनिकल ट्रायल्स के इन सभी चरणों में कई-कई माह तथा कई बार साल भर तक इन्हें देखा-परखा जाता है कि कहीं कोई दुष्परिणाम तो सामने नहीं आ रहे हैं तथा यह कितना प्रभावकारी है.
यदि कोरोना वायरस को स्पेनिश फ्लू के समान मृत्युकारी बनने से रोकना है तो सवाल नहीं, सावधानी की जरूरत है. कोरोना के खिलाफ़ हर पहलकदमी का हमें स्वागत करना चाहिये. किस देश की कौन-सी कंपनी इसे पहले बना लेती है, उस पर प्रतियोगिता न आयोजित करके इसके प्रभाव को देखना चाहिये कि यह कितने समय तक हमारी कोरोना से रक्षा कर सकता है और इस वैक्सीन के दावे में कितना दम है.