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गठबंधन की गांठ

2019 के आम चुनाव से पहले किस तरह की राजनीतिक गोलबंदी होगी, यह अभी कहना मुश्किल है. महीने भर पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की चुनावी मशीन अपराजेय लग रही थी. भाजपा ने त्रिपुरा में माकपा को हरा दिया और गठबंधन बनाकर मेघालय और नगालैंड में सरकार बनाने में कामयाब हो गई. लेकिन कुछ ही हफ्तों में हवाओं ने रुख बदला और उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा उम्मीदवार की हार हो गई. ये दोनों सीटें क्रमशः मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री ने खाली की थीं. राजनीतिक जानकारों ने कहा कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के साथ आने से जो समीकरण बने, उससे भाजपा हार गई. इस जीत ने विपक्ष में एक नई ऊर्जा का संचार किया है. लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में भाजपा और उसके सहयोगियों के रिश्तों पर इसका क्या असर पड़ेगा. यह भी देखना अभी बाकी है किसी नए-पुराने गठबंधन में कांग्रेस की कोई भूमिका रहती है या नहीं.

एक बात स्पष्ट है कि विपक्ष के लिए कई नए विकल्प खुले हैं. एक विकल्प है गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेस मोर्चा बनाना. भाजपा इससे परेशान नहीं है. उसे लगता है कि इससे कांग्रेस के वोटों का बंटवारा होगा. लेकिन कांग्रेस भाजपा की अकेली परेशानी नहीं है. कर्नाटक में अप्रैल-मई में चुनाव होने वाले हैं. लेकिन प्रदेश के दक्षिणी क्षेत्र में अब भी वह पैर जमाने के लिए संघर्ष कर रही है. इन क्षेत्रों में जनता दल सेकुलर मजबूत है. कांग्रेस के बड़े नेता रहे एस.एम. कृष्णा को पार्टी में लाने के बावजूद भाजपा वोकालिगा समाज को अपने पाले में लाने में कामयाब नहीं हुई है.

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस बुरी हालत में है. यहां भाजपा कांग्रेस को लेकर चिंतित नहीं है. लेकिन उसे असल चिंता सपा-बसपा गठबंधन की है. इससे जातिगत समीकरण कुछ ऐसा बनता है कि भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडे पर यह भारी पड़ सकता है. इसी एजेंडे का फायदा भाजपा ने 2014 और 2017 के चुनावों में उठाया था.

अब यह स्पष्ट हो रहा है कि कांग्रेस की अगुवाई में कोई धर्मनिरपेक्ष मोर्चा नहीं बन रहा है. संभव है कि गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा मोर्चा बन जाए. गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक को छोड़कर कांग्रेस अन्य राज्यों में कमजोर स्थिति में है. सीटों के मामले में उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे बड़े राज्यों को देखा जाए तो कांग्रेस सिर्फ महाराष्ट्र में ठीक-ठाक स्थिति में है. वह भी अपनी सहयोगी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर.

ऐसे में कांग्रेस का क्या भविष्य है? एक विकल्प है जिसे कांग्रेस आसानी से स्वीकार नहीं करेगी. कांग्रेस को यह मानना चाहिए कि उसका प्रभाव घटा है और उसे गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेस मोर्चे का साथ देना चाहिए. तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने संघीय मोर्चे की बात कही है. इस बारे में उन्होंने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात भी की. वे कांग्रेस के बजाए भाजपा के अधिक करीब दिखे हैं.

लोक सभा में अहम विधायी मसलों पर उनकी पार्टी ने भाजपा का साथ दिया है. टीआरएस और कांग्रेस का वोट बैंक एक ही है. तेलंगाना के मुस्लिम मतदाताओं को अपने साथ बनाए रखने के लिए टीआरएस कांग्रेस से संघर्ष करती है. उत्तर प्रदेश में भी सपा-बसपा कांग्रेस से बातचीत के मूड में नहीं दिखते. ये पार्टियां कांग्रेस की राजनीतिक पूंजी पर सवाल उठाती हैं. यह सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस इस स्थिति में है कि वह 2019 में भाजपा को हराकर सबसे बड़ी पार्टी बन जाए? अगर नहीं तो किसी आधार पर यह वैकल्पिक मोर्चे का नेतृत्व करने का दावा पेश कर सकती है? यह स्थिति बदल सकती है अगर कांग्रेस कर्नाटक जीत जाए और इस साल के अंत में चार राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम में होने वाले विधानसभा चुनावों में से कम से कम दो राज्यों में चुनाव जीत जाए.

अभी भले ही विपक्ष साथ आने की प्रक्रिया में हो लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार के उपचुनावों के नतीजे यह बताते हैं कि भाजपा अपराजेय नहीं है. गोरखपुर और फूलपुर जैसे महत्वपूर्ण चुनाव हारने के बावजूद नरेंद्र मोदी ने राजग दलों के बीच समन्वय के लिए स्टीयरिंग कमेटी नहीं बनाई है. यह समिति अटल बिहारी वाजपेयी के सत्ता के दिनों में होती थी. इसका नतीजा यह हुआ कि राजग बिखर रहा है. तेलगूदेशम पार्टी अलग हो गई है और दूसरे दल भी हल्ला मचा रहे हैं. इनमें से कोई भी पार्टी संसद के अंदर भाजपा को संख्या के मामले में चुनौती देने की स्थिति में नहीं है लेकिन अगर भविष्य में अगर संख्या कम होती है तो इनकी अहम भूमिका होगी.

ऐसे में भविष्य के गठबंधन की रूपरेखा अगले कुछ विधानसभा चुनावों के नतीजों पर निर्भर करेगी. ये चुनाव न सिर्फ केंद्र सरकार के कामकाज पर अप्रत्यक्ष जनादेश होंगे बल्कि इनमें मोदी की लोकप्रियता की भी परीक्षा होगी. क्योंकि भाजपा ने यह स्पष्ट कर दिया है कि ये चुनाव क्षेत्रीय नेताओं के नेतृत्व में नहीं बल्कि मोदी के नेतृत्व में लड़े जाएंगे और चुनाव प्रबंधन का काम अमित शाह करेंगे. राजनीतिक तौर पर कहें तो भविष्य अनिश्चित लगता है.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय

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