आप कहां हैं कामरेड?
अन्वेषा गुप्ता
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की आतिशी जीत से सवाल उठता है कि अपने देश के कामरेड कहां हैं? यह सवाल इसलिये प्रासंगिक हो गया हैं क्योंकि वामपंथी जिस आम आदमी के साथ खड़े होने की बात करते थे, वह आम आदमी कम से कम दिल्ली में एक गैर वामपंथी पार्टी, ‘आप’ के साथ एकजुट दिखाई दे रहा है. वह भी भाजपा तथा कांग्रेस को ठेंगा दिखा कर. जाहिर है, आप ने गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा का विकल्प बनकर दिखाया है, जिसके सपने वामपंथी पार्टिया देखा करती थी.
आम आदमी पार्टी के द्वारा अपने पिछले 49 दिनों के कार्यकाल में किये गये कामों को देखें तो साफ हैं कि उन्होंने वामपंथियों के एजेंडे को ही लागू किया था. जिसकी बदौलत इस बार के दिल्ली विधानसभा के चुनाव में उन्हें भारी सफलता मिली है. दूसरी तरफ, वामपंथ आज राष्ट्रीय राजनीति में किनारे पर खड़ा नजर आ रहा है. जिस बंगाल में वामपंथियों ने तीन दशक से भी ज्यादा शासन किया, वहां पर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस सत्तासीन है तथा वहां पर वामपंथी सैद्धांतिक रुप से, सामाजिक रुप से और कई अवसरों पर तो व्यक्तिगत तौर पर हमले झेल रहे हैं.
आम आदमी पार्टी ने आम जनता से जुड़े मुद्दों पर लड़ाई लड़कर अपने आप को इस लायक बनाया है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में 4 सीटों पर सिमटने वाली तथा दिल्ली के 70 में से 60 सीटों पर भाजपा के पिछड़ जाने के बाद भी उन्होंने 2015 के विधानसभा चुनाव में 70 में से 67 सीटें जीतकर सब को हैरान कर दिया. हैरान तो आम आदमी पार्टी खुद भी है कि उसे इतनी ज्यादा सीटें कैसे मिल गई. जाहिर है, उनके द्वारा उठाये गये मुद्दे तथा साफ-सुथरे चुनाव प्रचार ने आम आदमी को अपनी ओर आकर्षित किया.
‘आप’ की सरकार ने अपने 49 दिनों के शासन में बिजली के बिल कम किये, पानी मुफ्त में दिलाये तथा बिजली वितरण कंपनियों के ऑडिट शुरु करवाये. समाजवाद तथा साम्यवाद की विचारधारा में विश्वास न करने के बावजूद भी आम आदमी पार्टी की सरकार ने देशी पूंजी को ललकार दिया था तथा उसके खिलाफ ताल ठोंककर खड़ी हो गई थी. उसके इस तेवर को दिल्ली की जनता भूल नहीं पाई और इस बार के विधानसभा में ‘आप’ को करीब-करीब पूरा बहुमत दिलवा दिया.
दूसरी तरफ, वामपंथियों के गढ़ में ममता बनर्जी फन उठाकर खड़ी हैं भाजपा के खिलाफ. ऐसे कयास लगाये जा रहें हैं कि 2016 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस का सामना वामपंथियों से नहीं, भाजपा से होने जा रहा है.
वामपंथियों ने भी अपने शासनकाल में किसानों के लिय भूमि सुधार किया था और उन्हें जोतने के लिये जमीन मुहैय्या करवाई थी. वामपंथियों ने 1984 के दंगों के समय कोलकाता के सिक्खों की रक्षा के लिये अपने अनुशासित कार्यकर्ता झोंक दिये थे. पश्चिम बंगाल में वामपंथियों के शासनकाल में दंगे नहीं हुए जो उस समय देश के अन्य हिस्सों में लगातार हो रहे थे. इन सब के बाद भी वामपंथ का अपने गढ़ में ममता बनर्जी से हार जाना कई सवाल खड़े करता है. अफसोस इस बात है कि वामपंथी पार्टियां इस सवाल का जवाब तलाशने की कोई कोशिश करते अभी तक नज़र नहीं आ रही हैं. महज सिद्धांतों के श्रेष्ठ होने का भाव ले कर बंद कमरों में बहस के बजाये जन आंदोलन वामपंथियों के लिये जरुरी था लेकिन अब तक वे ‘सिद्धांत मोड’ में ही नज़र आ रहे हैं.
मई 2014 के लोकसभा चुनावों में ‘आप’ की हार के बाद मुनादी की जा रही थी कि इस आम आदमी पार्टी का खात्मा हो गया है तथा यह अपनी मृत्यु शैय्या पर पड़ी मौत का इंतजार कर रही है. आम आदमी पार्टी ने अपने आप को उस स्थिति से उबार कर इस लायक बनाया कि वे प्रधानमंत्री मोदी के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को रोक सके तो फिर वामपंथी क्यों नहीं फिर से उठ खड़े हो सकते हैं? कॉमरेड आप कहां हैं??