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सुप्रीम कोर्ट, सीबीआई और कोलगेट

जब सीबीआई ने मेरे खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की, मेरे साथीगण, जीवन के अलग-अलग मोड़ पर संपर्क में आए विभिन्न लोग, राज्य एवं केन्द्रीय सेवा के सर्विस एसोसिएशन, सभी से मुझे जबर्दस्त संसर्थन मिला. कुछ पत्र तो बहुत ही मर्मस्पर्शी थे.

लगभग पचास साल पहले जब मैं एनएमडीसी में काम करता था, उस समय के मेरे एक मित्र जिनसे सालों से कोई संपर्क नहीं था, ने एक पत्र लिखा. वह पत्र इस प्रकार था- “प्रधानमंत्री द्वारा हिंडाल्को मुद्दे में ज़िम्मेदारी लेना साफ-साफ दिखाता है कि आपके विरुद्ध सीबीआई के आरोप कितने तुच्छ थे. भ्रष्टाचार से पूरी तरह कलुषित वातावरण में अपने अटूट साहस का परिचय दिया है. इसलिए मैं तुम्हारी खुले मन से प्रशंसा करता हूँ और तुम्हारी बहादुरी की दाद देता हूँ. तुम्हारे टीवी साक्षात्कार अत्यंत ही संक्षिप्त, बुद्धिमत्तापूर्ण और ‘टू द पॉइंट होते थे. सभी की ओर से मिलने वाला सहयोग तुम्हारी सत्यनिष्ठा को दर्शाता है.पारख, दूसरे शब्दों में, अगर तुम भ्रष्ट हो तो भगवान भी भ्रष्ट है.सत्य की हमेशा जीत होती है.”

प्राथमिकी दर्ज करने के बाद, किसी भी राजनैतिक पार्टी ने मेरे ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप नहीँ लगाये. प्रधानमंत्री ने साफ-साफ कहा कि उन्होंने अपने सामने रखे हुए तथ्यों को ध्यान में रखकर निर्णय लिया और वह निर्णय एकदम सही था. मगर जब सीबीआई कोई प्राथमिकी दर्ज करती है तो जन सामान्य के मन में संदेह पैदा होना स्वाभाविक है. चारों तरफ फैले भ्रष्टाचार के माहौल में हर सरकारी निर्णय को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है.

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कोई सोच भी नहीँ सकता था कि देश की सबसे बड़ी जाँच एजेंसी झूठे, अर्द्ध-सत्य और अटकलों के आधार पर केस बना सकती है. श्री रणजीत सिन्हा (सीबीआई निदेशक) को मेरे ऊपर षड़यंत्र और भ्रष्टाचार के आरोप लगाने के पहले अपना होमवर्क ठीक से कर लेना चाहिए था. कम से कम उन्हें कोयला मंत्रालय की उन फ़ाइलों को देख लेना चाहिए था, जिसमें न केवल कोयला मंत्रालय, वरन् सारे कोयला उद्योग में पारदर्शिता लाने के मेरे सारे प्रयासों का लेखा-जोखा था.

कोलगेट मामले में मीडिया के सामने उनके लिए यह कहना आसान था कि अगर कोई ठोस सबूत नहीँ मिला तो केस बंद कर दिया जायेगा. मगर मेरी प्रतिष्ठा जो मैंने जीवन पर्यंत सत्यनिष्ठा के साथ काम करके अर्जित की थी, उसका क्या होगा, क्या उस अपूरणीय क्षति की कोई भरपाई कर सकता है? मि. सिन्हा, मैंने कभी भी अपने कार्यालय का दुरुपयोग नहीँ किया, मगर आपने किया है- कुमार मंगल बिरला और मुझ पर षड्यंत्र और भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर.

मेरी सिफ़ारिशें तो सरकार की घोषित नीतियों की सीमाओं के अंतर्गत थी, मगर आपने जो भी काम किया, कानून, नियम और तथ्यों को बिना ठीक से जाने, शायद सुप्रीम कोर्ट को प्रभावित करने के लिए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट इस केस को मॉनिटर कर रहा है. अतः नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के कस्टोडियन के रूप में यह सुनिश्चित करना इस कोर्ट का कर्त्तव्य बनता है कि प्रोफेशनलिज्म और सक्षमता के अभाव में सीबीआई नागरिकों की प्रतिष्ठा पर कोई आघात नहीं पहुंचाए. सिद्धांत के तौर पर कोर्ट को सीबीआई को यह स्पष्ट निर्देश देना चाहिए कि जब तक कोई केस चार्जशीट फाइल करने की फाइनल स्टेज में नहीँ पहुंचता है, तब तक सीबीआई को अपनी इन्वेस्टीगेशन गोपनीय रखने चाहिए, ताकि भविष्य में सीबीआई द्वारा नागरिकों के चरित्र का हनन न हो सके.

सीबीआई की स्वायत्तता
सीबीआई की स्वायत्तता पर प्रश्न वाचक चिह्न तब लगा, जब सुप्रीमकोर्ट ने उसे पिंजरे का तोता कहा और इस विषय पर पब्लिक डिबेट शुरू हुई. ऑल इंडिया सर्विस के सदस्यों की स्वायत्तता उनके प्रयोग में लाने की इच्छा शक्ति पर निर्भर करती है. इच्छा के अभाव में कानून पर दोष मढ़ना अनावश्यक है. जब तक किसी अधिकारी को सेवानिवृत्ति के बाद नौकरी की इच्छा या सेवाकाल में ट्रांसफर का डर नहीँ है, तो उसे अपने जजमेंट के हिसाब से काम करने से कोई नहीँ रोक सकता है. यह स्वायत्तता नहीँ तो और क्या है?

भारतीय पुलिस सेवा के सदस्य होने के नाते सीबीआई निदेशक को अपनी अंतरात्मा की आवाज के अनुरूप काम करने की स्वायत्तता है. श्री रणजीत सिन्हा पर कोलगेट इन्वेस्टीगेशन की प्रोगेस रिपोर्ट में ‘अंग्रेजी के सही प्रयोग’ हेतु कानून मंत्री को दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं थी. इसी वजह से सीबीआई को ‘पिंजरे का तोता’ कहा गया. अगर श्री सिन्हा को वास्तव में लगा कि हिंडाल्को का केस एक षड़यंत्र था और उनमें उतनी हिम्मत थी तो उस प्राथमिकी में प्रधानमंत्री का नाम भी शामिल करना चाहिए था.

कितने संरक्षण क्यों न दिये जाये, अगर सीबीआई मुखिया का उद्देश्य अगर कुछ दूसरा ही हो और वह अपनी स्वायत्तयीयता का प्रयोग करना न चाहे, तो उसे स्वायत्त कभी नहीँ बनाया जा सकता. निःसंदेह सरकार की पूर्व स्वीकृति के प्रावधान का भ्रष्टाचारी अधिकारियों को बचाने के लिए राजनैतिक गलियारों द्वारा बहुत ज्यादा दुरुपयोग किया गया है. मगर सीबीआई को बिना किसी सुपरविजन और एकाउण्टेबिलिटी के किसी भी अधिकारी पर आपराधिक करवाई शुरू करने का अधिकार देने का अर्थ एक ऐसा इलाज है, जो बीमारी से ज्यादा खराब है. यह देश के अर्थतंत्र और राजनीति के लिए गंभीर चुनौती होगी. सीबीआई की स्वायत्तता के बारे में अपना कोई निर्णय लेने के पहले न्यायपालिका और संसद दोनों को इस खतरे का अहसास होना चाहिए.

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