कोरोना काल में कोल ब्लॉक की नीलामी का सबब
प्रियांशु गुप्ता | आलोक शुक्ला : कोरोना के इस आपदा को क्या खनन कंपनियों के लिये अवसर में बदलने की तैयारी चल रही है? कम से कम कोल ब्लॉक को लेकर केंद्र सरकार जो कुछ करने जा रही है, उससे तो ऐसा ही लग रहा है.
आत्मनिर्भरता की भावना से ओतप्रोत, केन्द्रीय कोयला एवं खान मंत्री प्रह्लाद जोशी ने एक ट्वीट के जरिए घोषणा कि जिसका शीर्षक है “UNLEASHING COAL, New Hope for Aatmnirbhar Bharat”. इस घोषणा के अनुसार देश के 80 कोल ब्लॉकों को व्यावसायिक उपयोग के लिए 18 जून से नीलाम किया जायेगा.
कोविड के इस संकट में जब विश्व की अर्थव्यवस्था लगभग मृतप्राय हो, कॉर्पोरेट अपने लिय आर्थिक पैकेज की मांग कर रहे हैं, उस स्थिति में देश की सबसे बहुमूल्य खनिज संपदा की नीलामी थोड़ा चौंका देती हैं. ऐसे में सवाल बहुत साफ हैं- किसकी आत्मनिर्भरता ? कौन सी उम्मीद ? और किसके लिये अवसर ?
We are launching first-ever commercial coal auctions in country on 18th June. Event will be graced by PM @NarendraModi ji. It is his vision & guidance to make #AatmanirbharBharat in coal. I am proud that we are well on our way to achieve it.#Vocal4LocalCoal#CoalOpen4Investment pic.twitter.com/sxCVmngA5m
— Pralhad Joshi (@JoshiPralhad) June 11, 2020
निश्चित ही कोल ब्लॉक की नीलामी में आदिवासी समुदाय की तो आत्मनिर्भरता की चिंता इसमें नहीं है क्योंकि इस नीलामी के बाद तो उन्हें विस्थापन का दंश झेलना होगा और कहीं न कहीं उनकी मुश्किलें और बढ़ जायेंगी. इसके अलावा यह कथित आत्मनिर्भरता, भारत की कोयला जरूरतों से भी जुड़ी हुई नहीं है क्योंकि ये खदानें तो कमर्शियल माइनिंग के लिए दी जा रही हैं, जिनका देश की जरूरतों से कोई लेना-देना नहीं है.
सरकारी आंकड़ों और कोल इंडिया लिमिटेड के vision – 2030 अभिलेख के अनुसार, भारत की अगले 10 साल तक की कोयला जरूरतों की आपूर्ति के लिए, कोल इंडिया लिमिटेड (CIL) और वर्तमान में आवंटित खदानें पहले से ही सक्षम हैं. कोल इंडिया लिमिटेड के कर्मचारी संगठन व्यावसायिक कंपनियों के लिये कोल ब्लॉक को दिये जाने का पहले से ही विरोध कर रहे हैं. उनका तर्क है कि इससे सार्वजनिक उपक्रम पर गंभीर संकट उत्पन्न होगा. वहीं नए भारत की उम्मीद भी इसमें ढूंढ पाना मुश्किल है क्योंकि इन खदानों में खनन, देश के घने जंगलों और बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा के अंधाधुंध दोहन की ओर इशारा कर रही हैं.
ऐसे क्षेत्रों को आने वाले पीढ़ीयों के लिए सुरक्षित रखने तथा किसी आपदा के लिए “Strategic Reserve” बनाए रखने की बात पहले ही की जा चुकी है. इनको सरकार के अपने दस्तावेज़ों में “Inviolate” माना गया है, यानि की किसी भी अवस्था में इन क्षेत्रों का विनाश नहीं किया जा सकता.
कोल खदानों के इस व्यावसायिक आवंटन को राज्यों के विकास के लिए भी अवसर के रूप में नहीं देखा जा सकता है क्योंकि राज्य सरकारों की इसमें कोई भूमिका ही नहीं है. झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन इसका पहले ही विरोध कर चुके हैं. काँग्रेस शासित राज्यों ने भी इस पर चिंता जताई है. इस स्थिति में प्राकृतिक आपदा के बीच वर्तमान नीलामी का औचित्य समझ पाना कठिन लगता है.
आपदा का पूंजीवाद
अमरीका की रटगर्ज़ विश्वविद्यालय में कार्यरत प्रोफेसर नाओमी क्लीन द्वारा ने “Disaster capitalism” की संकल्पना की थी, जिसके अनुसार सरकारें आपदा के अवसर का उपयोग कर कठिन नीतियां पारित करती हैं जिससे बाज़ारवाद को बढ़ावा मिले.
हालांकि कोयला ब्लॉकों की नीलामी शायद इससे भी परे है क्योंकि इसका उद्देश्य दीर्घ-कालीन उदारीकरण नीतियां नहीं, बल्कि खराब बाज़ारी हालतों के बीच आज तक की सबसे अधिक खदानों की, बंदरबांट है.
इसको समझने के लिए नई शब्दावली की ज़रूरत है. जिसे “Disaster Cronyism” कहना शायद ज़्यादा उचित होगा, क्योंकि इस प्रकरण से बड़े पैमाने पर भारत की बहुमूल्य संपदा को, सामुदायिक हित की चिंता के बिना, केंद्र सरकार अपने चुनिन्दा कॉर्पोरेट घरानों को कम दामों पर देना चाहती है.
शायद आपदा का यह “अवसर” इन ही कंपनियों की “उम्मीद” का साधन बनेगा, जो कि राजनीतिक दलों के चुनावी खर्च की “आत्मनिर्भरता” का आधार हो सकता है.
असफल नीलामी
जब नीलामी की बात हो, तो पुराने अनुभवों को याद करना आवश्यक है. 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने पुराने सारे कोल ब्लॉक के आवंटन रद्द कर दिये थे. तब भारतीय जनता पार्टी ने इन खदानों की नीलामी कर के अरबों रुपये कमाने के दावे किये थे. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 2015 के बाद से केंद्र सरकार समय-समय पर कोयला खदानों की नीलामी का प्रयास कर रही है. लेकिन वह इसमें पूरी तरह से विफल साबित हुई है.
भारत सरकार के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 5 वर्षों में अलग अलग समय पर 80 से अधिक खदानों को नीलामी के लिए प्रस्तुत किया गया है, लेकिन इनमें केवल 31 खदानों का ही आवंटन हो पाया है. हालत ये है कि चौंथे से आठवें चरण की नीलामी लगभग पूरी तरह विफल रही क्योंकि न्यूनतम बोलीदार नहीं मिल सके.
इस विफलता का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि नीलाम की गई 31 खदानों में से भी 8 खदानों को आवंटन के बाद रद्द करना पड़ा क्योंकि इनके खदान मालिकों ने हाथ खड़े कर दिये. बची 23 खदानों में से भी आज पाँच वर्ष बाद भी केवल 12 खदानों में ही खनन चालू हो पाया है. इन 12 में से 10 वही खदाने हैं, जो 2014 से पहले से ही परिचालित थीं.
क्यों विफल हुई नीलामी
नीलामी प्रक्रिया के विफलताओं के अनेक कारण हैं. पहला तो ये कि देश में इतने पैमाने पर कोयले की ज़रूरत ही नहीं है जिसका ज़िक्र CEA, कोल इंडिया लिमिटेड vision-2030, तथा अन्य विश्लेषको ने किया है.
दूसरा क्षेत्र की अधिकांश कंपनियाँ या तो दीवालिया हो चुकी हैं या आर्थिक संकट से जूझ रही हैं.
तीसरा ये कि नीलामी में रखी ज़्यादातर खदानों के पास पर्यावरण तथा वन स्वीकृतियाँ नहीं थीं, जिससे बोली लगाने वालों को अधिक जोखिम उठाना पड़ रहा था.
चौंथा नीलामी प्रक्रियाओं में भी गड़बड़ियाँ थी, जिससे कुछ ब्लॉकों के आवंटन को रद्द करना पड़ा क्योंकि कंपनियों ने मिलीभगत से बोलिया लगाई थी जैसे छत्तीसगढ़ के तारा, गारे पेलमा–IV/2 व 3, इत्यादि.
नीलामी की विफलता का एक कारण यह भी था कि सरकार ने MDO के जरिये चुनिन्दा कंपनियों के लिए पिछले दरवाज़े का रास्ता खोला जिसमें जोखिम कम और मुनाफा अधिक था. लेकिन इस रास्ते से हो रहे आवंटन पर भी बड़े सवाल किए जा रहे हैं . दिलचस्प ये है कि इस माध्यम से आवंटित 58 खदानों में से भी केवल 9 खदानें ही शुरू हो पायी हैं, जिनमें 4 खदाने 2014 के पहले से ही परिचालित थी.
इस पूरी नीति के जरिये केंद्र सरकार द्वारा कहा गया था कि राज्य सरकारों को फायदा होगा. दावा यह था कि 3.35 लाख करोड़ के राजस्व की प्राप्ति होगी परंतु आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार 2019 तक इन खदानों से 3.35 लाख करोड़ के मुकाबले केवल 5.68 हज़ार करोड़ ही मिल पाये क्योंकि जब खदान चालू ही नहीं हुये तो राजस्व कैसे आएगा .
ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्यों सरकार का ध्यान उन 60 खदानों (11-नीलामी के जरिये और 49 – आवंटन-MDO के रास्ते) पर नहीं है, जोकि पहले से ही आवंटित हैं लेकिन चालू नहीं हो सकी हैं ? नए खदानों की नीलामी की ज़रुरत क्यों है, जब पहले की ही कई खदाने चालू नहीं हैं?
इसका पूरा गणित देश में कोयला जरूरतों और इस क्षेत्र की क्षमताओं से है. वास्तव में सवाल अंत-उपयोग के प्रावधान से जुड़ा है, जिसमें खनन केवल निर्धारित अंत-उपयोग परियोजनाओं के लिए ही किया जा सकता था. जब ज़रूरत ही नहीं, तो अंत उपयोग परियोजनाओं की क्या आवश्यकता और खदानों को चालू करने या नई नीलामी की क्या ज़रूरत ?
कमर्शियल माइनिंग नीति कार्पोरेट के लिए अवसर तो नहीं?
पिछले 5 वर्षो में कोल ब्लॉकों की नीलामी में विफल रही मोदी सरकार अचानक 80 कोल ब्लॉकों की नीलामी किन परिस्थितियों में करना चाहती है? ऐसे कौन से कार्पोरेट हैं, जो इस संकट की घड़ी में भी नीलामी के जरिये कोल ब्लॉक खरीदने का माद्दा रखते हैं ? या आत्मनिर्भर भारत के नाम पर देश की इस बहुमूल्य संपदा को कहीं कौड़ियों के भाव कार्पोरेट को सुपुर्द करने की कोशिश तो नहीं की जा रही है?
इन सवालों का जवाब खोजने के लिए थोड़ा पहले जाना होगा. ऐसा नही है कि जब विश्व में कोविड संकट महामारी का रूप ले रहा था, तब नमस्ते ट्रंप और मध्यप्रदेश में सत्ता गिराने का ही खेल चल रहा था. बल्कि कार्पोरेट को लाभ पहुंचाने का एक रास्ता भी तैयार किया जा रहा था.
लॉक डाउन के पूर्व मोदी सरकार ने “खनिज विधि (संशोधन) अधिनियम 2020” बनाकर कानून के जरिये कार्पोरेट के लिए आसानी के कोल ब्लॉको को हासिल करने का रास्ता तैयार कर दिया था. जब बिल संसद में आया तो दोनों सदनों में बिना चर्चा के ही पारित हो गया या इसके प्रावधानों को शायद विपक्ष गंभीरता से देख नही पाया.
इस संशोधन के जरिये केंद्र सरकार ने चार महत्वपूर्ण प्रावधान किये. पहला ये कि कोयले के सिर्फ राष्ट्रीय हित में उपयोग की बाध्यता को ख़त्म कर दिया गया. इससे व्यावसायिक उपयोग हेतु कार्पोरेट के मुनाफे के लिए कोल ब्लॉक उपलब्ध करवा दिए गए. दूसरा, नीलामी की प्रक्रिया में न्यूनतम बोलीदारों की संख्या 4 से घटाकर 2 कर दी गई. इससे कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा घटेगी और न्यूनतम दर पर कम्पनियाँ कोल ब्लॉक हासिल कर पाएंगी.
तीसरा, नीलामी में प्रति टन बेस प्राइस को बदलकर राजस्व शेयर का 4 प्रतिशत बेस प्राइस बनाया गया है, जो न सिर्फ बहुत कम हैं बल्कि इसका आंकलन ही बहुत कठिन है. चौंथा, अन्य खनिज की तरह प्रौस्पेक्टिंग-कम-माइनिंग लाइसेंस का प्रावधान एवं नीलामी/ आवंटन प्रक्रिया में राज्य सरकारों के अधिकारों की समाप्ति कर दी गई है. इसे विस्तार से यहां भी पढ़ा जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना
इन संशोधनो के जरिये बहुत ही सपष्ट है कि पिछले 5 वर्षो में जिन कम्पनियों ने नीलामी के लिए रूचि नही दिखाई थी, उनके लिये कोल ब्लॉक हासिल करने का यह सुनहरा अवसर है. कोल ब्लॉक हासिल करने के बाद अंधाधुंध मुनाफ़ाखोरी का रास्ता भी इस संशोधन ने खोल दिया है.
इसके अलावा MDO-आवंटन के घोटाले को कानूनी प्रक्रिया का अमली-जामा पहनाने का भी यह सुनहरा अवसर है. इस नीति में खनन प्रक्रियाओं में भी बड़ी ढील दी गयी है ताकि कंपनियाँ कोयला निर्यात कर सकें, मनमाने ढंग से उत्पादन कर सकें तथा ज़रूरत ना होने पर उत्पादन रोक कोयले की जमाखोरी कर सकें.
ज़ाहिर है, यह वर्तमान नीति और नीलामी प्रक्रिया, सुप्रीम कोर्ट के कोलगेट कांड में दिए गए आदेश की मूल भावना के पूर्णतया विपरीत है. हालांकि 2015 में लाये गए कोयला खान (विशेष उपबंध) अधिनियम में भी इस निर्देश को उलट देने का प्रयास किया गया था, जिसका उस समय भी संसद के भीतर और बाहर व्यापक विरोध किया गया. अब इस नई नीति में पूरी प्रक्रिया सम्पन्न कर ऐसी नीति बना दी गयी है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के आदेश का अंश तक नहीं बचा.
कोलगेट मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश-2014 | कोयला खान (विशेष उपबंध) अधिनियम-2015 | वर्तमान नीति |
खनन केवल देश-हित में निर्धारित अंत-उद्देश्य के लिए किया जाएगा | सार्वजनिक क्षेत्र में कमर्शियल माइनिंग को स्वीकृति, निजी क्षेत्र में अंत-उपयोग ज़रूरत की सीमाओं में लचीलापन | निजी क्षेत्र में भी कमर्शियल माइनिंग, खनन में कोई पाबंदी नहीं. |
खदान आवंटन की मूल ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों की है. | आवंटन प्रक्रिया का केन्द्रीकरण– लेकिन राज्यों की ऊर्जा जरूरतों को प्राथमिकता देते हुए आवंटन प्रक्रिया | राज्यों से बिना परामर्श बल्कि विरोध के बावजूद नीलामी, राज्य सरकार अब केवल स्वीकृतियाँ पारित कराएगा. |
आवंटन के लिए स्पष्ट एवं निष्पक्ष मापदंड बनाए जाएँ जिससे देश-हित सुनिश्चित हो ना कि निजी मुनाफा. | नीलामी की रकम ही एकमात्र मापदंड– अन्य सभी मुद्दे जैसे पर्यावरण या सामाजिक प्रभाव का कोई ज़िक्र नहीं. | अधिक राजस्व प्राप्ति भी अब उद्देश्य नहीं रहा- नीलामी प्रक्रिया में मात्र 2 बोलीदार, कम न्यूनतम रॉयल्टी (4%) दर, एक साथ गलत समय पर नीलामी. |
घने वन क्षेत्रों का विनाश एवं आदिवासियों का विस्थापन
स्पष्ट है कि नई नीति और नीलामी प्रक्रिया में भारत-निर्माण तथा जन-हित जैसे उद्देश्य पूरी तरह दरकिनार किए जा चुके हैं. ऐसे में सबसे ज़्यादा दुष्प्रभाव सघन वन क्षेत्रों के पर्यावरण तथा आदिवासी समुदायों पर पड़ेगा.
नीलामी में शामिल किए गए खदान भारत के सबसे घने जंगलों और पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्रों में स्थित हैं. साथ ही इनमें से अधिकांश खदानें आदिवासी बहुल पाँचवी अनुसूची क्षेत्रों में हैं, जहां पेसा कानून 1996 तथा वनाधिकार कानून 2006 के तहत जन-समुदाय को विशेष अधिकार प्राप्त हैं. लेकिन पुराने अनुभवों को देखें तो नीलामी के बाद इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर विनाश तय है.
छत्तीसगढ़ के संदर्भ में हसदेव अरण्य क्षेत्र के उदाहरण से इस मुद्दे को बेहतर समझा जा सकता है. यह क्षेत्र छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि पूरे मध्य भारत में सबसे सघन, जैव विविधता से परिपूर्ण, हाथी का आवास क्षेत्र है. 2010 में इस पूरे क्षेत्र को “नो गो एरिया” घोषित किया गया था. यह इलाका पूरे देश के कोल क्षेत्रों का 10 प्रतिशत से भी कम है.
वर्तमान सरकार की inviolate नीति के दस्तावेज़ों को देखें तो इस क्षेत्र के अधिकांश कोल ब्लॉक (20 में से 18) अभी भी “inviolate” माने गए हैं. देश के सभी कोलफ़ील्ड में से सबसे ज़्यादा ऐसे ब्लॉक हसदेव अरण्य में ही हैं. फिर भी नीलामी की सूची में यहाँ के 6 कोल ब्लॉकों को शामिल किया गया है, जबकि 7 का आवंटन पहले ही सार्वजनिक कंपनियों को किया जा चुका है.
ऐसे में निश्चित है कि “छत्तीसगढ़ का फेफड़ा” कहा जाने वाला इलाका हमेशा-हमेशा के लिये इस तरह बर्बाद हो जायेगा, जिसकी भरपाई किसी भी रुप में संभव नहीं है. इन इलाकों की पंचायतें, किसान और आदिवासी पिछले कई सालों से इन जंगलों को बचाने की कोशिश में जुटे हुये हैं. ग्राम सभायें विरोध में प्रस्ताव पारित कर रही हैं. आदिवासी अनशन कर रहे हैं. लेकिन क्या जंगल की आवाज़ सुनने के लिये कोई तैयार है?