चुनाव विशेषछत्तीसगढ़

कांग्रेस: उम्मीदें भी आशंकाएं भी

दिवाकर मुक्तिबोध
छत्तीसगढ़ में दिलों की धड़कनों को तेज करने वाली घड़ी नजदीक आते जा रही है. 8 दिसम्बर को मतगणना शुरू होगी और शाम होने के पहले नई विधानसभा की तस्वीर स्पष्ट हो जाएगी. जनता के बीच कयासों का दौर अभी भी जारी है तथा कांग्रेस एवं भाजपा दोनों सरकार बनाने के प्रति आश्वस्त हैं. क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन यह निश्चित है कि इस दफे का चुनावी युद्घ दोनों पार्टियों खासकर कांग्रेस के लिए ‘निर्णायक’ साबित होगा.

वर्ष 2000 में म.प्र. से अलग होकर छत्तीसगढ़ के नया राज्य बनने एवं उसके बाद कांग्रेस की सत्ता के तीन वर्ष छोड़ दें तो बीते 10 वर्षों में पार्टी की सेहत बेहद गिरी है. पार्टी ने सन् 2003 का चुनाव गंवाया, सन् 2008 में भी वह सत्ता के संघर्ष में पराजित हुई. संगठन का ग्राफ दिनोंदिन नीचे उतरता चला गया.

सार्वजनिक हितों के लिए संघर्ष का रास्ता छोड़कर नेतागण व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं की पूर्ति में इतने मस्त रहे कि उन्होंने पार्टी को बौना बना दिया. इतना बौना कि वह जनता की नजरों से भी उतरती चली गई. संगठन की दुर्दशा का आलम यह था कि निजी आर्थिक एवं राजनीतिक स्वार्थों के लिए अनेक कांग्रेसियों ने भाजपा के साथ गुप्त गठजोड़ करने से भी गुरेज नहीं किया.

रात के अंधेरे में मंत्रियों के बंगले में मुलाकातों का दौर चलता था. इस गठजोड़ का सबूत इस बात से मिलता है कि दस वर्ष के भाजपा शासन में किसी कांग्रेसी का काम नहीं रुका बल्कि उन्हें प्राथमिकता के साथ निपटाया गया. राजधानी में गुप्त गठजोड़ की यह चर्चा इतनी आम थी कि राजनीति में दिलचस्पी रखने वाला हर दूसरा आदमी इस विषय पर बातें करता नजर आता था.

लगभग मुर्दा हो चले संगठन में जान तब पड़ी जब नंदकुमार पटेल को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपी गई. पटेल ने पार्टी में नई ऊर्जा भरने की कोशिश की तथा वे अपने मकसद में कामयाब भी रहे. उन्होंने संगठन को फिर से खड़ा कर दिया. यदि झीरम घाटी नक्सली हमले में उनकी तथा उनके साथ तीन और शीर्ष नेताओं की जान नहीं जाती तो छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की उम्मीदों को और पंख लगते.

आज आम चर्चाओं में कांग्रेसी जीत का दावा तो करते हैं परंतु सशंकित भी नजर आते हैं. यकीनन यदि झीरम घाटी हादसा न हुआ होता तो चुनाव में कांग्रेस अपने आप को और बेहतर स्थिति में पाती.

यह बात भी स्पष्ट है कि झीरम घाटी हादसे के बाद प्रदेश पार्टी ने केन्द्रीय नेतृत्व के निर्देश पर अपने आप को संभाला तथा जिस एकजुटता का परिचय दिया, उसकी वजह से छत्तीसगढ़ राज्य विधानसभा चुनाव में वह भाजपा के साथ बराबरी स्थिति में खड़ी दिखती है. लेकिन अब चुनाव के नतीजों पर उसकी सांसें अटकी हुई हैं.

यदि कांग्रेस सरकार बनाने लायक सीटें जीत लेती है तो बल्ले-बल्ले और यदि ऐसा नहीं हो पाया तो संगठन की मनोदशा का अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है. जाहिर है वह तीसरी हार झेलने की स्थिति में नहीं है. यह कहना ज्यादा उचित होगा कि रमन की हैट्रिक कांग्रेस को ध्वस्त करने की हैट्रिक होगी.

यद्यपि 2018 के राज्य विधानसभा चुनाव पांच वर्ष बाद होंगे किंतु संगठन की दृष्टि से कांग्रेस के लिए ये वर्ष इतने भारी रहेंगे कि टूटे हुए मनोबल से पार्टी को उबार पाना उसके लिए अत्यंत दुष्कर होगा. यानी सन् 2013 के ये चुनाव कांग्रेस के लिए आक्सीजन की तरह है. यदि जीत की आक्सीजन उसे नहीं मिल पाई तो छत्तीसगढ़ से कांग्रेस की उम्मीदें लगभग खत्म हो जाएंगी क्योंकि प्रदेश में उसके पास कोई ऐसा जादुई नेतृत्व नहीं है जो उसके बिखराव को रोकने का सामथ्र्य रखता हो.

फिर वही दृश्य नजर आने लगेंगे जो बीते दशक के दौरान दिखते रहे हैं यानी जनहित के मुद्दों से किनारा, सत्ता पक्ष के साथ गुप्त समझौते, आपसी कलह, अनुशासनहीन आचरण, घृणा की हदों को स्पर्श करने वाली गुटबाजी तथा एक-दूसरे के खिलाफ सार्वजनिक रूप से टीका-टिप्पणियां. चुनाव के आईने में प्रदेश कांग्रेस का आज और कल स्पष्टत: महसूस किया जा सकता है.

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