हादसों से सबक नहीं लेने का सबब
विशेष टिप्पणी | सुरेश महापात्र: नक्सलियों ने एक बार फिर साबित किया है कि वे पुलिस से बेहतर रणनीति बनाने में माहिर है. अपनी रणनीतियों का क्रियान्वयन भी वे बेहतर तरीके से कर सकते हैं. सुकमा जिले के पिड़मेल में हुई शनिवार की वारदात प्रदेश के खुफिया तंत्र कमजोरी का नतीजा है. जिससे सरकार की नक्सल उन्मूलन की कोशिशों पर करारा झटका लगा है. इस घटना के बाद जो बातें सामने आ रही हैं वे बेहद चौंकाने वाली हैं. मसलन, क्या फोर्स बिना किसी रणनीति के तहत जंगल के भीतर भेज दी जाती हैं. अगर यह सही है तो गंभीर चिंता का सबब है.
पीड़मेल में हुई शहादत को रणनीतिक कमजोरी के रूप में देखना होगा. बीते मई-जून से बस्तर में नक्सलियों के खिलाफ एक सुनियोजित अभियान चलाकर माहौल बदलने की कोशिश शुरू की गई. जिसका परिणाम यह रहा कि नक्सलियों के बड़े कैडर के आत्म समर्पण जैसी कई खबरों ने विश्वास दिलाया कि अब परिस्थितियां बदल रहीं हैं. मैदानी स्तर पर गंभीर प्रयास किए जा रहे हैं. इसी प्रयासों के दौरान करीब दो माह पहले चिंतलनार इलाके के कासलपाड़ में सीआरपीएफ के 14 जवान शहीद हुए थे. इस मुठभेड़ में सीआरपीएफ को क्यों मात मिली? इसका सच भले ही आम लोगों से छिपा दिया गया, पर कम से कम गृहमंत्री और सरकार को तो पता ही है. कासलपाड़ में जो कुछ हुआ उसके बाद फोर्स को अपना मनोबल लौटाने में फिर से वक्त लगा. हांलाकि एक बड़ा सच यह है कि जंगल के भीतर जितने भी कैंप लगाए गए हैं वे आम नागरिकों की सुरक्षा और माओवादी मोर्चे पर सरकार का दखल बढ़ाने के लिए हैं. बावजूद इसके अगर रह-रहकर ऐसे बड़े हादसे होते रहे तो निश्चित तौर पर फोर्स के मनोबल पर बुरा असर पड़ेगा.
ताड़मेटला इलाके में यह न तो पहली वारदात है और ना ही पहली मात. सच तो यह है कि 2006 में अर्पलमेटा की पहाडिय़ों से शुरू हुए मात के सिलसिले में यह सिर्फ एक कड़ी है. इसके बाद 2007 में ताड़मेटला-1 में जगरगुंडा के जांबाज थानेदार हेमंत मंडावी समेत 14 जवानों की शहादत भी इसी का क्रम रहा.
2010 में ताड़मेटला-2 में सीआरपीएफ के 76 जवानों की शहादत को कैसे भूला जा सकता है? इसके बाद 2014 में कासलपाड़ और अब पिड़मेल में 7 जवानों की शहादत की नई कहानी सबके सामने है. बड़ी बात यह है कि माओवादी मोर्चे पर एक ही स्टाइल से नक्सलियों का वार और बार-बार मात खाती फोर्स यह जता रही है कि उसे जंगल वारफेयर में काफी कुछ सीखने की दरकार है. जिन चार घटनाओं का उल्लेख किया जा रहा है वह सभी ताड़मेटला से करीब-करीब 10 किलोमीटर के रेडियस में ही घटित हुए हैं. सभी में नक्सलियों ने एक ही तरीके से फोर्स को झांसा दिया और अपने एंबुश में फांस लिया.
पिड़मेल के घायल जवानो ने जो बातें बताई हैं उसे अगर सच माना जाए तो यह साफ है कि नक्सलियों को इस बात का एहसास था कि कुल कितने लोग ऑपरेशन के लिए निकले हैं. उन्होंने एक रणनीति के तहत एक-दो नक्सलियों को चारा के रूप में दिखाकर पूरी सर्चिंग पार्टी को अपने जद में फंसा लिया. जिस जगह पर वारदात हुई है उसकी तस्वीरें बयां कर रही हैं कि यह खुली जगह है. जहां नक्सलियों ने पहले से मोर्चाबंदी कर ली थी और जवानों को चारा दिखाकर अपने एंबुश प्वाइंट तक फंसाया. हांलाकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि फोर्स में अगर जज्बा नहीं होता तो मौतों की संख्या और भी बढ़ सकती थीं.
इसी स्टाइल में अर्पलमेटा, ताड़मेटला 1 और ताड़मेटला-2 में फोर्स मात खा चुकी थी. सो बीते समय में हादसों का सबक नहीं लेना ही इन मौतों का सबब दिख रहा है. खुले मैदान में बिखरी पड़ी लाशें बता रही हैं कि माओवादियों ने पूरी सूझ-बूझ और धैर्य के साथ अपने युद्ध कौशल का प्रदर्शन किया है.
बड़ी बात यह है कि माओवादी मोर्चे पर इस इलाके में तैनात फोर्स को क्या इस बात की जानकारी नहीं है कि वे नक्सलियों के मांद में घुसे हुए हैं. उन्हें हर कदम संभालकर बढ़ाना चाहिए. पीड़मेल में स्पेशल टास्क फोर्स के 50 जवान रवाना किए गए थे. जिन्हें आगे जाकर नक्सलियों के करीब आठ गुना बड़े दल के साथ भिडऩा पड़ा. सुबह करीब 11 बजे शुरू हुई मुठभेड़ के बाद शाम तक किसी प्रकार का राहत ना पहुंच पाना वाकई सुरक्षा खामियों को उजागर करता दिख रहा है.
प्रतिदिन अखबारों में अपने ताकत का इजहार करती सरकार अत्याधुनिक यंत्रों से सुसज्जित होने का दावा करती है तो ऐसा दावा इस तरह के मुठभेड़ों के दौरान फुस्स क्यों हो जाता है? सेना के हेलिकाप्टर से कव्हरिंग पार्टी को क्यों भेजा नहीं जा सका? जब फोर्स जंगल में ऑपरेशन के लिए निकली थी तो क्या सपोर्ट पार्टी की रणनीति पर काम नहीं किया गया? इन सवालों का चाहे सरकार जो भी जवाब दे. पर सच तो यही है कि नक्सल मोर्चे पर एक विफलता फोर्स के बढ़े दबाव को कम कर सकती है.
बस्तर रेंज में निश्चित तौर पर माओवादियों को बैकफुट पर लाने के लिए सुनियोजित प्रयास पहली बार दिख रहा है. यह सही है कि बस्तर एक अघोषित युद्ध का मैदान है जहां इस तरह की मौतें स्वाभाविक हैं. कभी माओवादियों की रणनीति फोर्स पर भारी पड़ सकती है तो कभी जवानों का जज्बा नक्सलियों को नुकसान पहुंचा सकता है. ऐसे में अगर पुरानी गलतियों को दोहराते हुए हादसे होंगे तो सवाल उठना लाजिमी है.
माओवादियों के हमले में विफलता पर सरकार किसी भी तरह से अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकती. आखिर यह माओवादियों के इलाके में सरकार की पहुंच का मामला है. केवल यह कहकर सरकार बच नहीं सकती कि नक्सली की यह बौखलाहट का परिणाम है, यह कायराना करतूत है. बल्कि यह साबित करने का वक्त है कि सरकार पहले से बेहतर रणनीति के साथ माओवादी मोर्चे पर अपनी जीत के लिए संकल्पित है. कोरी बातों से बस्तर में माओवादियों के मोर्चे पर सफलता नहीं मिल सकती इसे ध्यान रखते हुए. यह समझना होगा कि पुराने हादसों से सबक लेकर मोर्चे पर तैनात होकर ही सरकार जीत सकती है. अगर सबक नहीं लिया गया तो सबब में मौतें गिनने का काम भी सरकार के हिस्से ही आएगा.
* लेखक दंतेवाड़ा से प्रकाशित बस्तर इंपैक्ट के संपादक हैं.