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विकास यात्रा का कड़वा सच

दरअसल राज्य में सब कुछ बढिय़ा-बढिय़ा नहीं है, हालांकि इसका राग जरुर अलापा जाता है. यह शासन के प्रचार तंत्र का कमाल है. यह प्रचार तंत्र ही है जिसने मीडिया को भी खामोश कर रखा है. वह वहीं दिखाता या लिखता है जो शासन चाहता है. उसके अपने व्यावसायिक हित हैं, लिहाजा वह समझौतावादी है. इसीलिए सच्चाई पर धूल पड़ी हुई है. यशोगान ज्यादा होता है, कमजोरियां छिपाई जाती हैं. किसी भी सरकार के लिए मीडिया की ऐसी स्थिति मुफीद होती है. लिहाजा इस बात का जोर-शोर से ढिंढोरा पीटा जा रहा है कि छत्तीसगढ़ प्रत्येक क्षेत्र में बहुत तेजी से प्रगति कर रहा है तथा यहां की गरीब जनता खुशहाल है. जबकि हकीकतन ऐसा नहीं है.

एक छोटे राज्य में जहां बेशुमार प्राकृतिक संसाधन हो तथा जिनसे राजस्व की अच्छी खासी प्राप्ति हो रही हो, वहां विकास कार्यों के लिए धन की कमी नहीं हो सकती. छत्तीसगढ़ में यह स्थिति है. पिछले दस सालों में विकास कार्यों की सैकड़ों घोषणाएं हो चुकी है, कई महत्वपूर्ण योजनाओं पर काम भी चल रहा है लेकिन अनेक विकास के काम कागजों तक सीमित है.

सार्वजनिक वितरण प्रणाली जिसे बहुत सफल माना जा रहा है, बस्तर – सरगुजा में विफल है. दुर्गम इलाकों में अनेक गांव है जहां प्रशासन की पहुंच नहीं है, जहां न तो राशन दुकानें हैं और न ही स्वास्थ्यगत सुविधाएं. ऐसे गांवों में पेयजल की माकूल व्यवस्था भी नहीं है. फलत: हर वर्ष दर्जनों लोग डायरिया के प्रकोप से मरते है. अभी हाल ही में बीजापुर जिले में लगभग 90 आदिवासी डायरिया से मर गए. आदिवासी इलाकों में जल जनित बीमारियों से मौतों का सिलसिला नया नहीं है. वर्षों से यह स्थिति बनी हुई है जिसमें बीते दस सालों में कोई विशेष सुधार परिलक्षित नहीं हुआ है.

राज्य में प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा का यह हाल है कि छात्रों को शिक्षकों की मांग के लिए सड़कों पर उतरना पड़ता है. शिक्षा का सबसे बुरा हाल दक्षिण बस्तर में है जहां नक्सली आतंक की वजह से न तो स्कूल खुलते हैं और न ही शिक्षक पढ़ाने जाते हैं. शिक्षा की ऐसी दुरावस्था के बावजूद राज्य सरकार अपनी पीठ थपथपाने से नहीं चूकती. वह यह सोचकर खुश हो सकती है कि राष्ट्रीय साक्षरता का पुरस्कार राष्ट्रपति के हाथों ग्रहण करके उसने शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति कर दी है. पर हकीकत सर्वथा विपरीत है.

बहरहाल, अन्य को छोड़ दें तो कम से कम दो मोर्चे पर सरकार नाकाम है. एक भ्रष्टाचार और दूसरा नक्सली आतंक. प्रशासनिक भ्रष्टाचार की तो इंतिहा हो गई है. चूंकि राज्य में अरबों रुपयों के विकास कार्य हो रहे है अत: कमीशनखोरी का स्तर भी बहुत ऊंचा हैं. यह हकीकत है कि बिना लेन – देन के कोई काम नहीं हो सकता. राज्य सरकार ने इस पर प्रभावी अंकुश लगाने की कभी कोई कोशिश नहीं की और न ही कभी ऐसा लगा कि वह इस मामले में गंभीर है. लिहाजा भ्रष्टाचार खूब फूल – फल रहा है. जाहिर है आगामी चुनाव में कांग्रेस के लिए यह सबसे बड़ा मुद्दा है.

यही स्थिति नक्सली मोर्चे पर भी हैं. जीरमघाटी में कांग्रेसियों के जत्थे पर नक्सली हमला राज्य सरकार की नाकामी का सबसे बड़ा उदाहरण है. चूंकि अब चुनाव सिर पर है अत: नक्सली मोर्चे पर नरमी स्वाभाविक है. यह बात छिपी नहीं है कि बस्तर में नक्सलियों का समर्थन या विरोध चुनाव को प्रभावित करता रहा है. चाहे कांग्रेस हो या भाजपा या अन्य पार्टियां, नक्सलियों को आंखें दिखाकर चुनाव नहीं लड़ सकती. यानी कम से कम आगामी चुनाव के निपटने तक नक्सल मोर्चे पर किसी सफलता की उम्मीद नहीं की जा सकती.

अब सवाल है, भाजपा सरकार के दस वर्ष कैसे रहे? सरकार ने ऐसा क्या किया कि जनता याद रखें और उसे फिर से चुने? दरअसल तमाम योजनाओं के बीच 1-2 रुपये किलो मुख्यमंत्री खाद्यान्न योजना ही ऐसा काम है जो राज्य के अतिगरीब एवं गरीबों को प्रभावित करता है. रोजमर्रा की जिंदगी से संबंधित अन्य योजनाओं का लाभ बीपीएल परिवारों को कितना मिल पाता है यह इसी उदाहरण से जाहिर है कि राज्य में गरीबों की संख्या बढ़ी है.

योजना आयोग द्वारा इसी जुलाई में जारी आंकड़ों के अनुसार गरीबी के मामले में सभी राज्यों में छत्तीसगढ़ अव्वल है. प्रदेश में 39.9 प्रतिशत लोग गरीब है. यह तथ्य साबित करने के लिए काफी है कि विकास योजनाओं का पूरा – पूरा लाभ राज्य के गरीबों को नहीं मिल रहा है. रमन सिंह की विकास यात्रा का कड़वा सच यही है.

* लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं और रायपुर में रहते हैं.

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