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जनस्वास्थ्य का निजीकरण

दिवाकर मुक्तिबोध
छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य सेवाओं को निजी हाथों में सौंपने के राज्य सरकार के फैसले पर बहस की पर्याप्त गुंजाइश है, किंतु दुर्भाग्य से ऐसा कुछ होता नहीं है. जनकल्याणकारी योजनाएं चाहे केन्द्र की हों या राज्य सरकार की, वे वैसी ही होती हैं जैसा प्राय: सरकारें चाहती हैं, इसमें जनविचारों की भागीदारी कतई नहीं होती जबकि कहा जाता है सरकारें जनता के प्रति उत्तरदायी होती है. यदि सभी नहीं, तो क्या कुछ योजनाओं पर प्रबुद्ध नागरिकों, विशेषज्ञों से विचार-विमर्श नहीं किया जा सकता? जाहिर है न नौकरशाही इसकी इजाजत देती हैं और न ही राजनीति क्योंकि यहां सवाल श्रेय का, श्रेष्ठता का एवं अहम् का होता है.

बहरहाल पिछले दिनों की एक खबर के मुताबिक छत्तीसगढ़ सरकार ने राज्य के सभी 27 जिलों में बच्चों एवं माताओं के लिए अस्पताल बनाने एवं उन्हें पब्लिक प्रायवेट पार्टनरशिप यानी पीपीपी के तहत निजी हाथों में सौंपने का फैसला किया है. सरकारी खबर के अनुसार भवन एवं आवश्यक सभी सुविधाओं की व्यवस्था सरकार करेगी. बाद में उनके संचालन की जिम्मेदारी निजी उद्यमियों को सौंप दी जाएगी, ठीक वैसे ही जैसा कि राजधानी रायपुर में करीब 15 बरस पूर्व एस्काटर्स हार्ट सेंटर के मामले में हुआ.

पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के कार्यकाल में एस्काटर्स का रायपुर में पदार्पण हुआ और छत्तीसगढ़ को हृदय रोग से संबंधित पहला अस्पताल मिला जिसके लिए सरकार ने लगभग 300 करोड़ रुपए खर्च किए. यह अलग बात है कि गरीबों विशेषकर गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों की मुफ्त हृदय चिकित्सा की जिन शर्तों पर एस्कार्ट्स को अस्पताल सौंपा गया था, उसका सतत् उल्लंघन होता रहा और सरकार मूकदर्शक बनी रही. अब इस अस्पताल को अपने अधिकार में लेने सरकार प्रयत्न कर रही है. पता नहीं वह कब सफल होगी. बहरहाल जोगी के जमाने के इस असफल प्रयोग पर अब भाजपा सरकार काम कर रही है.

हालांकि घोषणा के बावजूद अभी इस दिशा में कुछ नहीं हुआ है. योजना के अनुसार सरकार अस्पतालों के लिए इमारतें बनाने, उसे वातानुकूलित करने, आवश्यक मशीनें एवं उपकरणों की व्यवस्था करने, पैथ लैब बनाने आदि पर करीब 300 करोड़ रुपए खर्च करेगी. अस्पताल तैयार होने के बाद इन्हें निजी संचालकों को सौंप दिया जाएगा. शर्तें क्या होंगी इसका खुलासा नहीं हुआ है पर यह तय है गरीबों के मुफ्त इलाज की शर्त अवश्य होगी. सरकार की तरफ से निगरानी की व्यवस्था क्या होगी? यह भी स्पष्ट नहीं है. क्या इन अस्पतालों की संचालन कमेटी में सरकार और जनता का कोई प्रतिनिधि होगा, इसका भी पता नहीं. अलबता इस योजना जो मुख्यत: गरीब तबके के लिए है, की सफलता ऐसे ही सवालों पर निर्भर है.

छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य सुविधाओं पर बात करें तो स्थिति निराशाजनक ही कही जाएगी. हालांकि शासन ने स्मार्ट कार्ड के जरिए 50 हजार रुपए तक की मुफ्त चिकित्सा की व्यवस्था कर रखी है. लेकिन यह नाकाफी है क्योंकि विभिन्न कारणों से जन स्वास्थ्य की समस्याएं ज्यादा विकराल हैं. शहरों, ग्रामीण अंचलों विशेषकर आदिवासी इलाकों में प्रत्येक वर्ष मलेरिया, डायरियां आदि बीमारियों से होने वाली मौतों में कोई कमी नहीं आई है. प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों का बुरा हाल है, वहां न तो डाक्टर होते हैं और न ही दवाइयां. मामूली बीमारियों के लिए भी लोगों को शहरों की ओर रुख करना पड़ता है जहां निजी अस्पतालों में महंगे इलाज की वजह से उन्हें जमीन-जायदाद तक बेचनी पड़ती है.

दरअसल सबसे बड़ा संकट विश्वास का है. वैसा ही संकट जो स्कूली शिक्षा और कानून व्यवस्था के मामले में नज़र आता है. सरकारी स्कूलों में गुणवत्ताविहीन शिक्षा अविश्वास की भावना पैदा करती है इसीलिए निजी स्कूल खूब पनप रहे हैं और लूट-पाट मचा रहे हैं. इसी तरह कानून-व्यवस्था के मामले में लोग पुलिस से दूर भागते हैं. वे उसके मित्र नहीं हैं जबकि आम लोगों को अपना मित्र बनाने पुलिस निरंतर प्रयास करती है पर उसका खौफ इस कदर है कि यह उक्ति यथावत है कि पुलिस से न दोस्ती भली, न दुश्मनी.

स्वास्थ्य के मामले में संकट कुछ अलग है. यहां सवाल सिर्फ स्तर का नहीं, चिकित्सा की उपलब्धता का भी है. क्या कारण है कि दूर-दराज के ग्रामीण भी अपनी तमाम पूंजी के साथ निजी अस्पतालों की शरण लेते हैं. प्रायवेट अस्पतालों में विशेषकर सुविधा सम्पन्न बड़े अस्पतालों में ऐसे लोगों की भारी भीड़ इस बात की गवाह है कि वे इन्हें सरकारी अस्पतालों से बेहतर मानती है. जबकि चिकित्सा की श्रेष्ठता शासकीय चिकित्सालयों में भी कायम है.

ऐसा लगता है कि स्वास्थ्य के मामले में सरकार ने हार मान ली है. सभी 27 जिलों में अस्पताल बनाकर उन्हें निजी हाथों में सौंपने के पीछे यह दलील दी जा रही है कि सरकारी अस्पतालों के लिए डाक्टर नहीं मिलते. शहरी केन्द्रों में जब चिकित्सकों के पद रिक्त पड़े रहते हैं तो कस्बों के अस्पतालों की हालत का अंदाज लगाया जा सकता है. इसी तर्क के साथ स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजीकरण को प्रोत्साहित किया जा रहा है. इस विचार में कोई दिक्कत नहीं है बशर्तें पेशे के प्रतिबद्ध एवं इमानदार लोग चुने जाएं.

क्या भ्रष्ट तंत्र के लिए यह संभव है? कतई नहीं. तब गरीबों को बेहतर एवं त्वरित चिकित्सा उपलब्ध कराने की जिस मकसद से यह योजना बनाई गई है, वह कैसे सफल होगी? यकीनन सरकारी खर्च से बने अस्पताल निजी संचालकों के लिए एक तरह से कमाई के वैसे ही स्रोत बनेंगे जैसे कि एस्काटर्स रायपुर है. यानी चिकित्सा के नाम पर लूट-खसोट के नए केन्द्र खुल जाएंगे. अत: सरकार को विचार करना होगा कि निजीकरण को प्रोत्साहित करने के बजाए क्या ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा सुविधाओं के विस्तार के साथ-साथ मौजूदा उपायों को बेहतर नहीं बनाया जा सकता?

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