कृषि

संकट में धान और किसान

रायपुर | विशेष संवाददाता: क्या छत्तीसगढ़ में धान और उसके किसान संकट में हैं? अब जबकि यह तय हो गया है कि राज्य के किसानों को समर्थन मूल्य के नाम पर केवल 1360 रुपये ही मिलेंगे, यह समझना मुश्किल नहीं है कि विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा द्वारा दिये गये आश्वासन किसानों को ठेंगा दिखाने वाले साबित हुये हैं.

ऊपर से केंद्र सरकार ने अलग से फरमान जारी कर दिया है कि राज्य अपनी मर्जी से समर्थन मूल्य तय करने और बोनसल बांटने का काम बंद करें. जाहिर है, छत्तीसगढ़ के किसानों के लिये यह सबसे बुरे दिनों की शुरुआत मानी जा सकती है.

2013 के विधानसभा चुनाव के घोषणा-पत्र में भाजपा ने किसानों से वादा किया था कि छत्तीसगढ़ में धान के समर्थन मूल्य को 2100 रुपये प्रति क्विंटल करने के लिये पहल की जायेगी. अब, जब छत्तीसगढ़ में तथा केन्द्र में स्पष्ट बहुमत से भाजपा की सरकार बन गई है, उसके बावजूद भी किसानों के लिये ‘अच्छे दिन’ मात्र घोषणा-पत्रों में कैद होकर रह गये हैं. विधानसभा चुनाव के समय धान के समर्थन मूल्य पर हल्ला करने वाली भाजपा की छत्तीसगढ़ सरकार ने अब इस मुद्दे पर मौन धारण कर लिया है. वहीं, छत्तीसगढ़ के किसान उस दोराहे पर खड़े हैं, जहां से एक रास्ता कृषि कार्य छोड़कर मजदूरी करने के लिये मजबूर करता है तथा दूसरा रास्ता उन्हें दिन पर दिन कर्जों में डूबते जाने के लिये बाध्य करता है.

धान का समर्थन मूल्य घोषित
गौरतलब है कि केंद्र सरकार हाल ही में धान का समर्थन मूल्य 1310 रुपये प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 1360 रुपये कर दिया है. इस प्रकार से धान के समर्थन मूल्य में केवल 50 रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी की गई है. इसमें छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा घोषित 300 रुपये प्रति क्विंटल को जोड़ने से भी कुल जमा 1660 रुपये प्रति क्विंटल किसानों को मिलेगा. जबकि भाजपा के घोषणा-पत्र में बड़ी प्रमुखता से घोषित किया गया था कि धान के समर्थन मूल्य को 2100 रुपये करने के लिये पहल की जायेगी तथा उस पर 300 रुपये का बोनस दिया जायेगा.

चुनावी ढ़िढ़ोरा
छत्तीसगढ़ में तीसरी बार भाजपा की सरकार बनने के बाद बकायदा, समारोह पूर्वक, भाजपा के घोषणा-पत्र को तत्कालीन मुख्य सचिव छत्तीसगढ़, सुनील कुमार को घोषणा-पत्र पर अमल करने के लिये सौंप दिया गया था. रमन सिंह ने तीसरी बार शपथ ग्रहण करने के बाद सबसे पहला काम तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिख कर धान पर समर्थन मूल्य 2100 रुपये करने की मांग की गई थी.

रमन सिंह का कहना था कि उन्होंने धान का समर्थन मूल्य बढ़ाने की पहल करने का वादा जनता से किया था और उसी वादे के अनुसार उन्होंने मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखी थी. कांग्रेस पार्टी ने जब मामले को उठाया तो रमन सिंह की सरकार ने समर्थन मूल्य का मुद्दा केंद्र सरकार के पाले में डाल दिया.

घाटे की खेती
किसानों से अगर आप बात करें और तथ्यों की पड़ताल करें तो पता चलेगा कि समर्थन मूल्य पर धान बेचना किसान के लिये बड़े घाटे का सौदा है. पिछले वर्ष तक ही प्रति क्विंटल धान के उत्पादन का खर्च करीब 1800 रुपये पड़ता था, जो इस बार महंगाई बढ़ने से और बढ़ गया है. मतलब ये है कि एक क्विंटल धान उगाने में किसान लगभग 1800 से 2000 रुपये खर्च करता है और उसे 1310 रुपये में बेचने के लिये मज़बूर है.

समर्थन मूल्य है क्या ?
1966 में देश में अकाल पड़ा था. उस समय सरकार ने बाजार में हस्तक्षेप करने के लिय धान पर लेवी तय कर दी थी. जिसका अर्थ यह होता है कि किसानों को अपने धान के उत्पादन से एक निश्चित मात्रा सरकार को बेचनी पड़ती थी. यह 1967 से लेकर 1971-72 तक चला. उस समय कई बार ऐसा हो जाता था कि किसानों को घर में खाने के लिये चावल नहीं मिल पाता था परन्तु उन्हें सरकार को लेवी के रूप में धान देने की बाध्यता थी. इस स्थिति में 1973-74 में बदलाव लाया गया तथा धान के लिये समर्थन मूल्य की घोषणा की गई.

समर्थन मूल्य, धान के उस न्यूनतम मूल्य को कहा जाता है जिससे कम पर इसे किसानों से नहीं खरीदा जा सकता है. उद्देश्य यह था कि किसानों को अपने परिवार के भरण-पोषण के लिये पैसे मिल जाये. उल्लेखनीय है कि इस मुद्दे पर 2006 में कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन के अध्यक्षता में केन्द्र सरकार ने एक समिति का भी गठन किया था. जिसने अनुशंसा की कि धान के पैदावार में किसान के परिवार के कम से कम तीन लोग शामिल रहते हैं, इसलिये धान का समर्थन मूल्य घोषित करते समय, धान के उत्पादन के खर्च में उनके मजदूरी को भी जोड़ा जाये.

महंगाई का असर
बढ़े महंगाई का असर किसानों के धान के पैदावार से भी जुड़ा हुआ है. डीजल के दाम बढ़े हैं, खादों के दाम बढ़े हैं, बिजली के दाम बढ़े हैं, धान के बीजों के दाम बढ़े हैं, कीटनाशकों के दाम बढ़े हैं. इस वर्ष धान के बीज का मूल्य पिछले साल की तुलना में 2 रुपये प्रतिकिलो बढ़ गया है. यूरिया तथा डैप खाद के मूल्य 60-100 फीसदी तक बढ़े हैं. ऐसा कुछ भी नहीं है जिसका दाम कम हुआ हो सिवाय किसानों के. इन सब बढ़ते दामों से कृषि का उत्पादन खर्च बढ़ा है.

ऐसा नहीं है कि इस महंगाई से छत्तीसगढ़ सरकार बेखबर है. राष्ट्रीय विकास परिषद की दिसंबर 2012 की बैठक में मुख्यमंत्री रमन सिंह ने अपने संबोधन में स्वीकार किया था कि “हमारे लगभग 74 प्रतिशत किसान लघु एवं सीमान्त श्रेणी के हैं. कृषि योग्य भूमि का 67 प्रतिशत वर्षा आधारित है, जिसमें आमतौर पर कम लागत की कृषि की जाती है. गत दो वर्षों के दौरान कृषि आगतों की कीमतों में अभूतपूर्व वृध्दि हुई है. जिसका मुख्य कारण कृषि श्रम की मजदूरी दर में वृध्दि तथा पोषक तत्व आधारित अनुदान योजना के परिणाम स्वरूप फास्फेटिक खाद की कीमतों में वृध्दि है.”

कृषि पर असर और सरकारी दावे
यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में जनगणना के आकड़ों के अनुसार किसानों की संख्या 44.54 फीसदी से घटकर 32.88 फीसदी हो गई है. वहीं, मजदूरों का संख्या 31.94 फीसदी से बढ़कर 41.80 फीसदी हो गई है.

गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ का बजट 2014-15 पेश करते हुए मुख्यमंत्री रमन सिंह ने विधान सभा के पटल पर वर्ष 2013-14 का आर्थिक सर्वेक्षण प्रस्तुत किया था. जिसमें उन्होंने कहा था कि “वर्ष 2004-05 के स्थिर मूल्य पर वर्ष 2013-14 के लिए अग्रिम अनुमान अनुसार राज्य की आर्थिक विकास दर में 7.05 प्रतिशत की वृद्धि अनुमानित है, जबकि इसी अवधि में देश की आर्थिक विकास दर में 5 प्रतिशत से भी कम वृद्धि संभावित है. कृषि क्षेत्र में 2.62, औद्योगिक क्षेत्र में 6.07 एवं सेवा क्षेत्र में 10.18 प्रतिशत वृद्धि अनुमानित है. आर्थिक मंदी के बावजूद राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में यह वृद्धि उल्लेखनीय है.” इससे समझा जा सकता है कि वास्तव में कभी धान का कटोरा कहें जाने वाले छत्तीसगढ़ में कृषि क्षेत्र की विकास दर सबसे कम है.

देश के समान ही छत्तीसगढ़ एक कृषि प्रधान राज्य है. यदि यहां पर उद्योग एवं सेवा क्षेत्र में क्रमशः 6.07 और 10.18 फीसदी की बढ़ोतरी हो रही है तो इसका अर्थ है कि तमाम दावों के बावजूद छत्तीसगढ़ में कृषि दिन पर दिन पिछड़ता जा रहा है.

धान का मूल्य किसान तय नहीं कर सकता?
देश में जितने भी उत्पाद हैं, उनका मूल्य उसका उत्पादक तय करता है. जैसे सीमेंट, रेत, इस्पात, कपड़ा, मोटर गाड़ी से लेकर होटलों में बिकने वाला खाना तक. यहां तक कि मूल्य नियंत्रण के तहत आने वाले जीवन रक्षक दवाओं का मूल्य तय करने का अधिकार भीमकाय दवा कंपनियों के पास सुरक्षित है. रेल के टिकट, रेल मंत्रालय या रेलवे बोर्ड तय करता है. डीजल-पेट्रोल एवं केरोसिन के मूल्य भी बाजार भाव के अनुसार घटते-बड़ते हैं फिर क्यों धान का मूल्य उसका उत्पन्न करने वाला किसान तय नहीं कर सकता है?

error: Content is protected !!