छत्तीसगढ़

छग के नक्सलवाद का नक्सलबाड़ी कहां?

रायपुर | जेके कर: झीरम घाटी के दूसरी बरसी पर छत्तीसगढ़ के कथित नक्सलियों से पूछा जाना चाहिये कि उनका नक्सलबाड़ी कहां है? नक्सलबाड़ी से तात्पर्य 1967 के उस आंदोलन की शुरुआत से है जो पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी के पास नक्सलबाड़ी-बेरुबाड़ी इलाके से शुरु हुआ था. हालांकि, वह नक्सलबाड़ी आज 48 साल बाद इतिहास के पन्नों में कैद होकर रह गया है फिर भी उस समय इसे मुक्ति के मार्ग के रूप में देखा गया था. नक्लसबाड़ी में चारु मजूमदार, कानू सान्याल तथा जंगल सान्थाल के नेतृत्व में सशस्त्र किसान आंदोलन की शुरुआत हुई थी जो भारतीय राजनीतिक अर्थव्यस्था से मेल न खाने की वजह से उन्ही किसानों के लिये बेगाना बन गया.

कहने का तात्पर्य यह है कि जिस नक्सलवादी आंदोलन की बात की जाती थी उसकी शुरुआत सत्तर के दशक में एक मुक्ति के मार्ग के रूप में हुई थी. उस समय नक्सलियों ने नारा दिया था ‘सत्तर का दशक हो मुक्ति का दशक”. वैसे उस नक्सवादी आंदोलन में भटकाव उसी समय नोट किया गया जब उन्होंने नारा दिया “चीन का चेयरमैन, हमारा चेयरमैन”. जाहिर है कि नक्सली चीनी क्रांति को हूबहू भारत में सफल करने की भूल कर रहे थे. इसके बावजूद वियतनाम के क्रांतिकारियों के द्वारा अमरीका के साथ लड़े जा रहें युद्ध पर लिखी कविता “आमार नाम, तोमार नाम, वियतननाम-वियतनाम” ने बदलाव की चाहत रखने वाले युवाओँ को आकर्षित किया था.

इसी कविता की एक पंक्ति थी “आमार बाड़ी, तोमार बाड़ी, नक्सलबाड़ी-नक्सलबाड़ी” को नक्सलियों ने अपना नारा बना दीवार पर जमकर वाल राइटिंग की थी. जाहिर है कि छत्तीसगढ़ के कथित नक्सलियों के पास अपना कोई नक्सबाड़ी या कहना चाहिये मुक्ति का मार्ग नहीं है. जो भले ही वामपंथी अतिवाद हो परन्तु जिसके पक्ष में क्लासिकीय मार्क्सवाद के उद्धरण दिये जा सके.

एक ओर जहां नक्सलबाड़ी आंदोलन मूलरूप से एक किसानों को जमीन दिलाने के लिये शुरु हुआ था वहीं छत्तीसगढ़ के कथित नक्सली जंगलों की पनाह में सुरक्षा बलों पर गुरिल्ला तरीकों से हमले करते हैं. एक के बाद छत्तीसगढ़ में हुये नक्सली वारदातों ने साबित कर दिया है कि उनका एकमात्र मकसद सुरक्षा बलों पर हमला करना है जो उनके कथित इलाकों में गश्त लगाते के लिये जाते हैं. जाहिर है कि सुरक्षा बलों पर हमला करके न तो किसानों का भला किया जा सकता है और न ही आम जनता इसे पसंद करती है. कहने का तात्पर्य यह है कि छत्तीसगढ़ में जिस कथित नक्सलवाद की बात की जा रही है वास्तव में वह कोई वामपंथी राजनीतिक भटकाव नहीं वरन् एक तरह का आतंकवादी गिरोह बंदी है. अन्यथा कुछ सालों पहले कोलकाता से आ रही रेलगाड़ी को बम से उड़ाकर झारखंड के नक्सलियों को कौन सी राजनीतिक जमीन हासिल हुई हुई थी इसे उन परिवारों से पूछा जा सकता है जिनके संबंधी उस घटना के शिकार हो गये थे. उसे “जनता के खिलाफ जनयुद्ध” की संज्ञा दी गई थी.

कहीं न कहीं छत्तीसगढ़ के बस्तर के कथित नक्सली भी उसी “जनता के खिलाफ जनयुद्ध” की भावना के शिकार हैं. अन्यथा 25 मई 2013 को झीरम घाटी में कांग्रेसी काफिले पर हमला करके करीब 32 नेताओं, कर्मियो तथा सुरक्षा जवानों की हत्या से क्या वहां के बाशिंदों को उनका हक दिलवाया जा सका है उलट उसके बाद से बस्तर के नक्सलियों को साफ तौर पर एक हत्यारे गिरोह के रूप में जाना जाता है.

उल्लेखनीय है कि झीरम घाटी हत्याकांड के बाद कथित नक्सलियों के प्रवक्ता गुड्सा उसेंडी का जो बयान मीडिया को जारी किया गया था उसे “हत्या का सिद्धांत या सिद्धांत की हत्या” के रूप में देखा गया. सोमवार 25 मई को झीरम घाटी हत्याकांड की दूसरी बरसी है इस मौके पर छत्तीसगढ़ के नक्सलियों से पूछा जाना चाहिये कि उनका नक्सलबाड़ी कहां पर है? जाहिर है कि बिना नक्सलबाड़ी के छत्तीसगढ़ का नक्सलवाद, तालिबान या इस्लामिक स्टेट के आतंकवादियों के जुदा समूह नहीं है. इसे लासाल के “आंदोलन ही सब कुछ है अंतिम लक्ष्य कुछ नहीं” नुमा कार्यवादियों की संज्ञा जरूर दी जा सकती है.

हत्या का सिद्धांत और…

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