छत्तीसगढ़

सत्ता का जन्म बंदूक से कब?

रायपुर | जेके कर: छत्तीसगढ़ के बस्तर में नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुडुम अभियान के दस साल हो चुके हैं. अब फिर से बस्तर में सलवा जुडुम पार्ट-2 शुरु किये जाने की सुगबुआहट है. इससे पहले साल 2011 में सर्वोच्य न्यायालय ने निर्णय दिया था कि सलवा जुडुम को पूरी तरह खत्म कर दिया जाये. 5 जून 2005 को सलवा जुडुम याने शांति अभियान की शुरुआत की गई थी. शुरुआत में आंदोलन की शक्ल में शुरु किये गये इस अभियान में कब आदिवासियों को बंदूक थमाकर स्पेशल पुलिस ऑफिसर का दर्जा दे दिया गया यह इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह गया है. सलवा जुडुम में भी वही गलतियां की गई जो उन नक्सलियों ने की थी जिनके खिलाफ यह अभियान शुरु किया गया था. आज न सलवा जुडुम का कोई अस्तित्व है और न ही नक्सलियों ने कुछ पाया है. सिवाय इसके कि इन दस सालों में छत्तीसगढ़ में 683 नागरिकों, 857 सुरक्षा बलों के जवान तथा 714 नक्सली मारे गयें हैं. उलट सलवा जुडुम के चलते हजारों आदिवासियों को अपनी जमीन से बेदखलकर कैंपों में भर दिया गया.

सलवा जुडुम तथा नक्सली आंदोलन में एक समानता रही है, वह है बंदूक के बल पर अपने को सही साबित किया जाये. बस्तर के नक्सलियों ने जहां चीन के कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व प्रमुख माओ जे दुंग के नारे “सत्ता का जन्म बंदूक की नाल से होता है” को बिना सोचे समझे खुद को बंदूकधारियों का गिरोह बना लिया तथा दावा किया कि इससे आदिवासियों को मुक्ति दिलाई जा सकती है वहीं इन बंदूकधारियों से निपटने के लिये दूसरी तरफ से आदिवासियों को बंदूकों से लैस कर दिया. वैचारिक रूप से दीवालिया होने के कारण दोनों ही अभियान अपने घोषित मकसद को प्राप्त न कर सके.

माओ का नारा “सत्ता का जन्म बंदूक की नाल से होता है” का नारा चीन में उन दिनों दिया गया था जब बंदूके जनता के कंधों पर था तथा वे अपनी यथास्थिति को बदलने के लिये तत्पर थे. इस बात को करीब 80 साल हो गये हैं. चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के आव्हा्न पर लांग मार्च शुरु किया गया था जिसने आखिरकार 14 प्रांतो से गुजरते हुये 2 साल के समय में करीब 12 हजार किलोमीटर की यात्रा कर वहां कम्युनिस्टों का शासन स्थापित कर दिया. लांग मार्च ने चीन की धरती से च्यांग काई शेक तथा जापानियों को दूर खदेड़ दिया.

छत्तीसगढ़ के बस्तर में नक्सलियों के अभियान से साबित हो गया कि सत्ता का जन्म हमेशा बंदूक की नाल से नहीं होता है. खून जरूर बहता है परन्तु उससे सुर्ख पताका फहराने के स्थान पर धरती लाल हो जाती है. आखिरकार छत्तीसगढ़ के 683 नागरिकों तथा 857 सुरक्षा बलों के जवानों की मौत ने वहां कौन सा सत्ता परिवर्तन किया है उसे दूर से ही महसूस किया जा सकता है. सिवाय इसके के आम जनता के मन में बस्तर के प्रति भय व्याप्त है.

यह सही है कि मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक ने ताकत के बल अपने शासन की रक्षा की थी परन्तु बस्तर की जमीनी हालत उससे जुदा है जुदा है. यहां के आदिवासी बस्तर के जंगलों पर निर्भर है. बस्तर का आदिवासी उसी का विरोध करता है जो जंगल पर उसके आधिपत्य को चुनौती देता है. अन्यथा उसकी मार्क्सवाद, लेनिनवाद या माओ जे दुंग की विचारधारा में कोई दिलचस्पी नहीं है.

चीनी नारें को हूबहू भारत में लागू करने के परिणाम स्वरूप ही आज नक्सलियों को अति वामपंथी माना जाता है. यह दिगर बात है कि नक्सलियों के वैचारिक भटकाव के बावजूद सिद्धांत की विश्वसनीयता कम नहीं हुई है. उलट, यथास्थिति को बनाये रखने की चाह रखने वाले इससे लाभांवित हुये हैं. दुनिया का इतिहास बताता है कि अति वामपंथियों का उपयोग कई बार अमरीकी रणनीति को जामा पहनाने के लिये वहां की सीआईए ने किया है.

जिस चीन में बंदूक के बल पर सत्ता हासिल की गई थी वहां आज माओ के विरोधी तेंग शियाओं पिंग के बताये राह पर सरकार तथा कम्युनिस्ट पार्टी चल रही है. आज चीन में अरबपति-खरबपति अस्तित्व में हैं. बाजार व्यवस्था अपने चरम पर है. शेयर बाजार के माध्यम से निवेश किये जा रहें हैं. फर्क केवल इतना है कि चीनी सरकार तथा कम्युनिस्ट पार्टी की सर्वोच्यता को बरकरार रखा गया है. उदाहरण के तौर पर चीन के टेलीकाम क्षेत्र में शत-प्रतिशत विदेशी निवेश की मंजूरी है परन्तु उन्हें केवल उपकरण बनाने की छूट है. टेलीकाम सेक्टर पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में है. कहने का मतलब है कि बंदूक के नाल से निकली सत्ता आज अपने को नये जमाने तथा नये परिस्थितियों के अनुरूप ढाल रही है. ऐसे में बस्तर के नक्सलियों का पुराने नारों पर चलना जड़सूत्रता का परिचायक है.

आकड़े गवाह हैं कि नक्सली आतंक के बावजूद बस्तर में मतदान का प्रतिशत कई अन्य जिलों से ज्यादा रहता है. 2013 के विधानसभा चुनाव में मतदान का प्रतिशत कोंडागांव में 84.78 प्रतिशत, बस्तर में 84.29 प्रतिशत, जगदलपुर में 73.61 प्रतिशत, केशकाल में 83.47 प्रतिशत, कांकेर में 79.12 प्रतिशत, भानुप्रतापपुर में 79.25 प्रतिशत, चित्रकोट में 79.11 प्रतिशत, नारायणपुर में 70.28 प्रतिशत, अंतागढ़ में 77.34 प्रतिशत, दंतेवाड़ा में 62.03 प्रतिशत, कोंटा में 48.36 प्रतिशत तथा बीजापुर में 45.01 प्रतिशत था.

इसकी तुलना में 2008 के छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के मतदान के आकड़े कम थे. जग जाहिर है कि नक्सलगढ़ में मतदान का प्रतिशत बढ़ा है. जाहिर है कि बस्तर के बाशिंदे सत्ता को बंदूक की नाल से नहीं मत पेटियों से निकलता देखना चाहते हैं.

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